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ब्लैक-व्हाइट-येलो कवक/फंफूद/फंगस

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ये काली-सफ़ेद-पीली फंगस सिर्फ उन्हीं लोगों में हुई जो कोरोना से संक्रमित हुए और संक्रमण के इलाज दौरान उन्होंने स्टेरॉयड का किसी भी रूप में इस्तेमाल किया था और ठीक होने के बाद वे शर्करा को नियंत्रित नहीं रख पाये. काली फंगस (ब्लैक फंगस) जिसे म्यूकरमायकोसिस कहा जा रहा है, असल में वो कैनडीडा या एसपरजिलस प्रजाति का फफूंद है (इसी के सबसे ज़्यादा मामले हैं और ये फफूंद 92-95 प्रतिशत उन मरीज़ों में पनपी है, जिनके इलाज में स्टेरॉइड का इस्तेमाल हुआ है. फंगस/फफूंद/कवक अनेकानेक अलग-अलग रंगों में हो सकते हैं तथा एक ही फंगस में अनेकानेक रंग एक साथ भी हो सकते हैं. कवक की अधिकाधिक वृद्धि विशेष रूप से आर्द्र परिस्थितियों में, अंधेरे में या मंदप्रकाश में होती है. कुछ कवक तो लाइकेन (lichen) की संरचना में भाग लेते हैं जो कड़ी चट्टानों पर, सूखे स्थान में तथा पर्याप्त ऊंचे ताप में उगते हैं, जहां साधारणतया कोई भी अन्य जीव नहीं रह सकता.

ब्लैक-व्हाइट-येलो कवक/फंफूद/फंगस

पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ

क्या आप जानते हैं कि कवक/फंफूद/फंगस भी एक जीवाणु और विषाणु दोनों रूप में पुरे विश्व में लगभग अपनी 3.8 मिलियन प्रजातियों के साथ विधमान है और इसमें से वैज्ञानिक अभी तक सिर्फ एक लाख बीस हजार प्रजातियों के बारे में ही पता लगा पाये हैं, उसमें भी 8000 से ज्यादा प्रजातियां वे हैं, जो वनस्पति विज्ञान या बॉटनी से जुड़े हैं अर्थात पेड़-पौधों-फसलों इत्यादि से संबंधित है. मनुष्य के लिये नुकसानदेह या रोगकारक कवक प्रजातियों के बारे में बहुत कम अध्ययन हुआ है लेकिन फिर भी वैज्ञानिक कवक की 400 के लगभग उन प्रजातियों के बारे में जानते हैं जो मनुष्य के लिये गंभीर रोगकारक (मृत्यु तक संभव) है.

कवकों की मुख्य प्रजातियों में निम्न है, यथा –

  • जल में पाया जाने वाला कवक एकलाया (Achlaya),
  • सैप्रोलेग्निया (Saprolegnia)
  • मिट्टी में पाये जानेवाले म्यूकर (Mucor),
  • पेनिसिलियम (Penicillium),
  • एस्परजिलस (Aspergillus),
  • फ़्यूज़ेरियम (Fusarium)
  • लकड़ी पर पाये जानेवाले मेरूलियस लैक्रिमैंस (Merulius lachrymans) या दीमक
  • गोबर पर उगनेवाले पाइलोबोलस (Pilobolus) तथा सॉरडेरिया (Sordaria)
  • वसा में (मानव वसा में भी) उगनेवाले यूरोटियम (Eurotium) और पेनिसिलियम

ये वायु तथा अन्य जीवों के शरीर के (इंसानी शरीर भी) भीतर या उनके ऊपर भी उत्पन्न हो सकते है. वास्तव में विश्व के उन सभी स्थानों में कवक की उत्पत्ति हो सकती है जहां कहीं भी इन्हें कार्बनिक यौगिक की प्राप्ति हो सके. कवक की अधिकाधिक वृद्धि विशेष रूप से आर्द्र परिस्थितियों में, अंधेरे में या मंदप्रकाश में होती है. कुछ कवक तो लाइकेन (lichen) की संरचना में भाग लेते हैं जो कड़ी चट्टानों पर, सूखे स्थान में तथा पर्याप्त ऊंचे ताप में उगते हैं, जहां साधारणतया कोई भी अन्य जीव नहीं रह सकता.

फंगस/फफूंद/कवक अनेकानेक अलग-अलग रंगों में हो सकते हैं तथा एक ही फंगस में अनेकानेक रंग एक साथ भी हो सकते हैं. जैसे उदाहरण के लिये पानी में आपने हरे रंग की काई (काई कवक का ही अपभ्रंशात्मक शब्द है) देखी होगी अथवा ब्रेड बनाने में इस्तेमाल होने वाली खमीर (यीस्ट) फंफूद के बारे में भी जानते होंगे या फिर छत या दीवारों में काइटिन नामक फंफूद भी देखी होगी, जिससे दीवारे धीरे-धीरे खोखली और कमजोर हो जाती है.

ऐसे ही इंसानों में जो फंगस होते हैं उनमें से एक तो अभी कोरोना संक्रमण से ठीक हुए मरीजों में हुई फंफूद के बारे में पढ़ा/सुना होगा, ये तीनों ही रंग वाली फफूंद अलग अलग प्रजाति की है और इनके रंग भी (काली-सफ़ेद-पीली) अलग-अलग है. काली फंगस (ब्लैक फंगस) जिसे म्यूकरमायकोसिस कहा जा रहा है, असल में वो कैनडीडा या एसपरजिलस प्रजाति का फफूंद है (इसी के सबसे ज़्यादा मामले हैं और ये फफूंद 92-95 प्रतिशत उन मरीज़ों में पनपी है, जिनके इलाज में स्टेरॉइड का इस्तेमाल हुआ है.

हालांकि इस फ़ंगस का कोई अंदरूनी रंग नहीं होता लेकिन जब स्टेरॉयड में मौजूद म्यूकर ग्रुप की फ़ंगस राइज़ोपस जब कोरोना संक्रमित व्यक्ति के शरीर में इन्फेक्टेड सेल्स को मारती है तो उन पर अपने काले रंग की कैप छोड़ जाती है ताकि स्टेरॉयड में मौजूद दूसरे राइज़ोपस जीवाणुओं को ये पता रहे कि वो मरी हुई कोशिका है और उस पर हमला नहीं करना है. और इसी से उसका नाम ‘ब्लैक फंगस’ पड़ा लेकिन ये म्यूकरमायकोसिस का ही एक प्रजाति है.

कृत्रिम स्टेरॉयड के इस्तेमाल से जब शरीर में मरी हुई कोशिकाओं का ढेर जमा हो जाता है लेकिन शरीर उसका निष्पादन नहीं कर पाता तब वो सड़ने लगती है, जिससे उन सड़ी हुई कोशिकाओं की वसा के कार्बनिक यौगिकों में परजीवी (वायरस) रूप फंगस उत्पन्न होती है, जिसे शरीर कफ के रूप में बाहर निकालने की प्रक्रिया को अंजाम देता है लेकिन चूंकि वह कफ नहीं बल्कि काली फंगस के परजीवी होते हैं, अतः वे नाक के कोनों में जमा कार्बनिक पदार्थों में जमा होते जाते हैं और स्वस्थ कोशिकाओं के एंजाइमों को खाकर अपनी वंशवृद्धि करते जाते हैं (जिसे आम भाषा में फंगस का जाल बनना या फंगस का जमा होना कहा जाता है) और धीरे धीरे ये आंख, मस्तिष्क पर भी कब्ज़ा करने लगते हैं.

चूंकि परजीवियों के लिये नाक, आंख, मस्तिष्कीय कोशिकायें सबसे कोमल और सुगम आहार होता है, क्योंकि प्रतिरक्षा प्रणाली कन्फ्यूजन में रहती है और वो समझती है कि वो कचरा शरीर से बाहर होने की प्रक्रिया है जबकि असल में वे परजीवी अपना वंश बढ़ा रहे होते हैं. इसके अलावा म्युकरमाइकोसिस की ही एक और प्रजाति कैंडिडा होती है, जो सफ़ेद दही की तरह दिखती है इसलिये उसका नाम व्हाइट फ़ंगस पड़ गया.

इसके अलावा एक और प्रजाति एसपरजिलस है जिसमें अनेक रंग होते हैं अर्थात ये काली, नीली, हरी, पीली, लाला और भूरे रंग की भी हो सकती है और जिसे येलो फंगस कहा जा रहा है. वो असल में एसपरजिलस प्रजाति है और ये सब म्युकरमाइकोसिस परिवार की ही प्रजातियां हैं. इसी से सभी को मोटे तौर पर म्युकरमाइकोसिस ही कहा जा रहा है.

अब प्रश्न उठता है कि जब स्टेरॉयड के साइड इफेक्ट इतने खतरनाक हैं और अब जब पता भी चल गया है तो स्टेरॉयड का इस्तेमाल प्रतिबंधित क्यों नहीं किया जा रहा ?इसका प्रत्युत्तर ये है कि चूंकि कोरोना संक्रमण की सबसे बड़ी समस्या ब्लड क्लॉट (थ्रोंबोसिस) है और ब्लड क्लॉट्स माइक्रो होते हैं, जो लाखों से लेकर करोडों तक हो सकते हैं. जिन मरीजों में ये खून के थक्के बनते हैं उनके हृदय में ये सूजन भी पैदा करते है और ये सूजन संक्रमित व्यक्ति की जान का जोखिम बढ़ाता है. अर्थात इनसे हार्ट अटैक, पैरालिसिस, हेमरेज, निमोनिया इत्यादि की संभावनायें बहुत ज्यादा बढ़ जाती है इसीलिये इन थक्कों के तुरंत निष्पादन के लिये अर्थात तुरंत जान बचाने के लिये स्टेरॉयड के इस्तेमाल को अनुज्ञप्त किया गया है.

क्योंकि फेफड़ों की सूजन कम करता है लेकिन मेडिकली लूट के चलते ये लगभग हर मरीज को लगाया जा रहा है. जबकि डॉक्टर अच्छे से जानते हैं कि स्टेरॉयड इम्युनिटी को कमज़ोर करता हैं और कोरोना मरीज़ों में शुगर का स्तर बहुत ज्यादा बढ़ा देता हैं, जिससे इस तरह के फ़ंगल इंफ़ेक्शन होना तय ही है. जो मरीज अपनी रक्तशर्करा को नियंत्रित कर लेता है वो इस फंगस से बच जाता है बाकी को ये होगा ही होगा.

म्युकरमाइकोसिस या राइजोपस फ़ंगस प्राकृतिक तौर पर मिट्टी, पौधों, खाद, सड़े हुए फल और सब्ज़ियों में पनपता है. चूंकि कोरोना मरीजों को ये कृत्रिम रूप से दिया जा रहा है, अतः रक्तशर्करा बढ़ने से उसे वही कार्बनिक यौगिक मानव शरीर में भी प्राप्त हो जाते हैं, जिससे ये इंसानी शरीर में भी पनप रहा है. ज्यादातर मामलों में ये साइनस, दिमाग़ और फेफड़ों को प्रभावित करता है. लेकिन इसकी एक और प्रजाति म्यूकर सेप्टिकस गेस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक (इसमें पाचन तंत्र के सभी अंग शामिल होते हैं) को भी प्रभावित करता है.

इसी तरह इंसानों में होने वाले अन्य फफूंद प्रजातियों में दाद-खाज-खुजली से तो आप में से हर कोई वाकिफ ही होंगे. जी हां, ये भी फंफूद या कवक का ही विस्तार है. इसे त्वचाप्रदाह या टीनिया बार्बी फंफूद कहा जाता है. इसमें भी अनेक प्रकार की अलग-अलग प्रजाति की फंफूद होती है, जैसे माइक्रोस्पोरोन, ट्राइकॉफ़ाइटॉन, टीनिया या एपिडर्मोफ़ाइटॉन प्रजाति की फंफूद.

खोपड़ी की फफूंद द्वारा केश की जड़ प्रभावित होती है, जिसे बालों की रुसी कहा जाता है. कई बार खोपड़ी पर गोल चकत्तियों में गंगाजल हो जाता है अथवा केश जड़ के पास से टूटने लग जाते हैं. सूक्ष्मदर्शी से देखने पर केश के चारों ओर फफूंद जीवाणु का जाला-सा दिखाई पड़ता है. इसकी चिकित्सा बहुत कठिन होती है. अतः सिर्फ एक्स-किरणों से चिकित्सा की जाती है.

इसी तरह नाख़ून का फंफूद या अन्य त्वचा रोग भी फंफूद के कारण ही होते हैं. त्वचा फफूंद की तरह ही शरीर में कई इंटरनल फफूंद भी होते हैं, जो अलग-अलग प्रजातियों के होते हैं तथा शरीर के अलग-अलग हिस्सों में होते हैं लेकिन प्रायः इन्हें एक कॉमन नाम इंटरनल फंगल इंफेक्शन के नाम से पुकारा जाता है.

असल में जब ये कवक/फफूंद शरीर के अन्दरुदनी हिस्सों में उत्पन्न होने लगता है तो यह मटमैला-सा या पारदर्शी और तरल होता है. कार्बनिक यौगिकों की सहायता से जब ये प्रजनन करता है तो सफ़ेद कवक तंतु बनाते हैं जो अनेक शाखाओं में बंटकर कवक-जाल बनाते हैं, जो अनेक अलग-अलग रंगो में हो सकते है क्योंकि इनके रंग उन यौगिक पदार्थों से प्रेरित होते हैं, जिन्हें ये ज्यादा अवशोषित करते हैं.

फफुंद अकोशिकीय और कोशिकीय दोनों प्रकार के जीव हो सकते हैं, जो अपनी वृद्धि के लिये उपरोक्तानुसार अपना भोजन ग्रहण करते हैं. अर्थात ये मृतोपजीवी भी हो सकते हैं और पराश्रयी भी हो सकते हैं अथवा परजीवी भी हो सकते हैं

मृतोपजीवी से तात्पर्य कार्बनिक पदार्थों, उत्सर्जित पदार्थ या मृत ऊतकों को विश्लेषित कर अपना भोजन ग्रहण करते हैं तथा पराश्रयी से तात्पर्य ये अपना भोजन कवक जंतुओं और वनस्पतियों की कोशिकाओं से ग्रहण करते हैं. इनमें एक सदा पराश्रयी भी होते हैं, जो अपना भोजन कोशिकाओं के जीवित जीवद्रव्य से ही प्राप्त करते हैं परंतु कभी-कभी मृतोपजीवी रूप से भी अपना भोजन प्राप्त करते हैं.

इसके अलावा जो परजीवी होते हैं वो जीवित कोशों पर आश्रित रहते हैं अर्थात सहजीवी के रूप में ये अपना संबंध किसी अन्य जीव से स्थापित कर लेते हैं और इन दोनों ही प्रकार की भोजनरीतियों के मध्य में कुछ कवक आते हैं, जो परिस्थिति के अनुसार अपनी भोजनप्रणाली बदलते रहते हैं.

कोरोना का जीव सर्वजीवी है अर्थात वो वस्तुस्थिति के हिसाब से मृतोपजीवी, पराश्रयी, परजीवी और सदा पराश्रयी तथा सहजीवी होना तय करता है. मनुष्य में उत्पन्न होने वाले कई कई फंफूद एककोशीय जीव भी होते हैं लेकिन उनमें प्रारूपिक नाभिक नहीं होता तथा श्लेष्मोर्णिक की बनावट और पोषाहार जंतुओं की भांति होता है. इस वर्ग में आने वाले सभी जीव अनन्तकाय जीवसमूह होता है, जो पर्णहरिम रहित होते हैं मगर इनमें प्रजनन सकाय होता है अर्थात इनके ऊतकों में कोई भेदकरण नहीं होता (उदाहरण के लिये अमीबा या कोरोना).

पहले जब विज्ञान इनके बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानता था, तब इन सब फफुंदीय जीवों को एक ही वर्ग में परिगणित करते थे. लेकिन माइक्रोलॉजी के गहन अध्ययन के बाद अब वैज्ञानिकों ने इनके दो वर्गों की क्रमशः जीवाणु (bacteria) और श्लेष्मोर्णिका (slime mold) के रूप में स्थापना की हैं. इनमें जीवाणु एककोशीय होते हैं तथा श्लेष्मोर्णिका अकोशिकीय होते है.

स्टेरॉयड भी एक प्रकार का एककोशीय कवक ही है. फर्क इतना है कि स्टेरॉयड कृत्रिम रूप से प्रजनन करके बनाया गया कवक है जबकि फंफूद प्राकृतिक रूप से सड़ी-गली चीज़ों में पैदा होने वाला कवक है, जिसकी उत्पत्ति शैवाल इत्यादि प्रकार में वनस्पति (अकोशिकीय) कवक तथा जिसकी उत्पत्ति कशाभ या प्रजीवा प्रकार में हो, वह जीवाणु (कोशिकीय) होते हैं.

ऐसे जीवाणु वाले कवक में आपकी बहुत-सी रोजमर्रा की चीज़ों में भी शामिल हैं जैसे- गुंथे हुए आटे की कवक (आटा गूंथने के एक निश्चित काल बाद ये उसमें उत्पन्न होती है) या बासी रोटियों पर रुई की तरह ऊगा सफ़ेद फंफूद अथवा कुकुरमुत्ते (मशरूम इत्यादि) तथा चलित रस वाले पदार्थ और सड़े-गले फल-सब्जियां, अचार इत्यादि ऐसे अनेकानेक चीज़ें हैं.

जैन दर्शन में ऐसी सभी खानपान वाली कवकों को अभक्ष्य के रूप में लगभग 14 लाख प्रजातियां तो सिर्फ साधारण वनस्पति की बतायी गयी है. तथा ऐसे ही प्रत्येक वनस्पति से लेकर संचित पदार्थों की प्रजातियां, चलित रस की प्रजातियां, अलग-अलग पदार्थों में अलग-अलग निश्चित समयावधि बीतने के पश्चात उत्पन्न होने वाली प्रजातियों के अलावा भी ऐसी न जाने कितनी ही प्रजातियों का भी वर्णन किया गया है लेकिन भाषा थोड़ी अलग है.

एककोशिकीय प्रजातियों (उदाहरणार्थ खमीर/यीस्ट) के अतिरिक्त अन्य सभी जीवाणु कवकों की प्रजातियों का शरीर कोशिकामय ही होता है तथा कुछ प्रजातियों को छोड़कर कवकों की कोशिकाभित्तियों का केमिकल कम्पोजिशन भी भिन्न-भिन्न होते हैं. यद्यपि इन कोशिकाओं में स्टार्च का अभाव होता है तथापि एक दूसरा जटिल पौलिसैकेराइड ग्लाईकोजन तो होता ही है तथा कुछ प्रजातियों की कोशिका- भित्तियों में सेलुलोस या एक विशेष प्रकार का कवक सेल्यूलोस पाया जाता है.

अन्य जातियों में काइटिन (chitin) मुख्य रूप से उत्तरदायी होता हैं और कई कवकों में कैलोस (callose) तथा अन्य कार्बनिक पदार्थ भी कोशिकाभित्ति में होते हैं. अब तो आप समझ ही गये होंगे कि जिसे काली-सफ़ेद-पीली फफूंद कहा जा रहा है, वो असल में मृतोपजीवी है, जो शरीर के अंदर मृत कोशिका, ऊतकों के कार्बनिक पदार्थों से उत्पन्न हुए हैं और इनके उत्पन्न होने के कारण पौलिसैक्राइड ग्लाईकोजन है, जो स्टेरॉयड के सेवन से बना है.

यही बात दूसरी दवाओं के सेवन में भी संभव है अर्थात, रेमडेसिविर से लेकर 2DG तक की सभी दवाओं के सेवन से शरीर में ये अनेकानेक रंगों वाली फफूंद बन सकती है. यानि स्टेरॉयड द्वारा मारी गयी कोशिका के मृत ऊतकों में B-1,3 या B-1,4 लिंकेज के माध्यम से जुड़े ग्लूकोज के अवशेषों में ये फंगस बनती है और ये ग्लूकोज अवशेष वही है जो स्टेरॉयड इस्तेमाल से रक्तशर्करा के रूप में बढ़ा हुआ होता है इसीलिये हो सकता है आगे भी कई अन्य रंग के फंगस और ट्रेस हो.

इसी से कोरोना मरीज ठीक होने के बाद डॉक्टर और सरकार 6 महीने डॉक्टर के परामर्श में रहने की चेतावनी तो देते हैं लेकिन ये तथ्य आपको नहीं बताते कि ये जो फंगस पैदा हो रही है, वो दोनों की गलतियों का नतीजा है. दोनों की इसलिये क्योंकि सरकार ने इसकी परमिशन दी है और डॉक्टर अस्पतालों का बिल बढ़ाने की लूट में बिना जरूरत प्रिस्किप्शन में लिखते हैं. बेचारे कोरोना मरीजों के लिये तो कुंए से निकलकर खाई में गिरने वाली बात हो गयी. मतलब कोरोना ठीक करने के लिये दूसरे भयंकर रोगों को आमंत्रण देना. (मैंने पहले भी लिखा था कि स्टेरॉयड लेना ऐसा है जैसे बिच्छू का जहर उतारने के लिये सांप का जहर पीना).

और हां, ये बात विशेष रूप से अपने दिमाग में बिठा लीजिये कि ये जो भ्रम फैलाया जा रहा है कि काली-सफ़ेद-पीली इत्यादि नाना प्रकार वाली फंगस होने का कारण मास्क है, वो एकदम गलत है, झूठ है क्योंकि ये सभी रंग वाली फंगस सिर्फ उन्हीं लोगों को हो रही है जिन्होंने संक्रमित होने पर स्टेरॉयड (रेमडेसिविर या अन्य प्रकार) लिया था जबकि मास्क तो उन लोगों ने भी प्रयोग किया है, जो संक्रमित नहीं हुए.

अर्थात भारत ही क्या विश्व की 90% आबादी ने पिछले डेढ़ साल से मास्क का प्रयोग किया है लेकिन ये काली-सफ़ेद-पीली फंगस सिर्फ उन्हीं लोगों में हुई जो कोरोना से संक्रमित हुए और संक्रमण के इलाज दौरान उन्होंने स्टेरॉयड का किसी भी रूप में इस्तेमाल किया था और ठीक होने के बाद वे शर्करा को नियंत्रित नहीं रख पाये. सरकार ये सच इसलिये छुपा रही है क्योंकि सत्य प्रकट होने पर लोगों को मुआवजा भी देना पड़ेगा क्योंकि ये आम लोगों की गलती या महामारी का साइड इफेक्ट नहीं बल्कि सरकार बने बैठे मूर्ख नेताओं द्वारा कमीशन खाकर मेडिकल लूट में सहयोगी होने का प्रमाण है.

शरीर में उत्पन्न होने वाले ब्लैक-व्हाइट-येलो फफुन्दीय जीव रक्त समाहित जल सोखकर कार्बोहाइड्रेट निर्मित करने में असमर्थ होते हैं, मगर ये साधारण विलेय शर्करा से जटिल कार्बोहाइड्रेट का संश्लेषण कर लेते हैं, जिससे इनकी कोशिकाभित्ति का निर्माण होता है. और ऐसे में यदि उनको साधारण कार्बोहाइड्रेट और नाइट्रोजन यौगिक का संयोग भी मिल जाय (जो कि मनुष्य के भोजन के माध्यम से इन्हें मिल ही जाता है) तो ये फफूंद उनके साथ क्रिया करके प्रोटीन और अंतत: प्रोटो-प्लाज्मा (protoplasm) निर्मित कर लेते हैं. इसी से इनका भोजन शरीर की कोशिकायें बनती है, जिससे इनके जीवन का विस्तार होता है. उसे व्यवहार भाषा में हम संक्रमण बढ़ना कह देते हैं.

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ROHIT SHARMA

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