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कविता

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कविता –
कवि कहते हैं,
होना चाहिए प्रेम प्रतिज्ञा
अपने महबूब के प्रति.
वर्णन हो,
उसके अंग-प्रत्यंग का.
नख से शिख तक का.
कलात्मकता निहित हो,
उसके सुखमय आलिंगन में !

परन्तु,
कविता एक परम्परा भी है,
मेहनतकशों के प्रति प्रतिबद्धता का भी है.
जहां यह सब नहीं होता.

कविता कल्पना में नहीं
थाने के लाॅक-अप में भी हो सकता है,
जहां थानेदार की बूट
लिखती है कविता,
हमारे कपाड़ पर.
जहां गर्दन तोड़कर लुढ़का दी जाती है
और बन जाती है कविता.

यह शासक वर्ग –
रोज लिखती है कविता,
भूख से बिलबिलाते लोगों के मूंह में
रायफल की नाल ठूूंस कर.

आईयेे –
मैं भी सुनाता हूँ एक कविता,
भूख से बिलबिलाते लोगों के
हिंसक प्रतिरोध का.

मैं कवि नहीं, भुक्तभोगी हूँ.
नहीं ! मैं तो निमित्त मात्र हूँ,
भूख से बिलबिलाते लोगों का
एक प्रतिनिधि मात्र हूँ…

कवि चिल्लाते हैं –
यह कविता नहीं है…
पर,
चीखने दो उसे.
नहीं चाहिए मुझे उसका नपुंसक समर्थन.

मैं तो भुक्तभोगी हूँ,
मैं अपनी ही आवाज हूँ,
इसे तुम कोई भी नाम दो,
मैं ही भविष्य हूँ –
तुम्हारे आने वाली कल की कविता का.

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One Comment

  1. cours de theatre paris

    September 30, 2017 at 4:00 am

    A big thank you for your blog article.Really thank you! Much obliged.

    Reply

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