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‘कौन जात हो भाई ?’ दलित स्वाभिमान को मिट्टी में मिलाती एक कविता

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विनोद शंकर

‘बच्चा लाल उन्मेष’ की बहुचर्चित कविता ‘कौन जात हो भाई ?’ आप सब ने पढ़ा ही होगा. आइये आज इस कविता पर बात करते हैं. देखने में ये कविता अच्छी है, जिसमें दलितों के दुरदसा और दयनीय स्थिति का मार्मिक वर्णन है, जिसे पढ़कर पाठक के अंदर दलितों के प्रति दया आती है. इस कविता में दलित बहुत ही हीन भावना से ग्रस्त है, जो सवर्ण जातियों के दया और खैरात पर जी रहा है.

अगर यह कविता बाबा साहेब डॉ. आम्बेडकर या ज्योतिबा फूले से पहले लिखी गई होती तो शायद इस पर कोई आपत्ति नहीं होती. लेकिन ये कविता 21 वीं सदी में लिखी गई है, जब दलितों ने अपने आंदोलनों द्वारा बहुत कुछ हासिल कर लिया है. जिसमें सबसे बड़ी चीज है स्वाभिमान. और यह कविता इसी दलित स्वाभिमान को मिट्टी में मिला देती है.

यह कविता सवाल-जवाब के शैली में लिखी गई है. कविता इस प्रश्न के साथ शुरू होती है, ‘कौन जात हो भाई ?’ इसके उत्तर में कवि कहता है, ‘दलित हूं साब !’ यहीं पर इस कविता के साथ-साथ कवि पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाता है, अगर कवि को दलित शब्द और दलित पैंथर आंदोलन के इतिहास के बारे में पता होता ! जहां से ये शब्द आया है, तो कवि इतनी हीनता में जवाब नही देता !

दलित शब्द स्वाभिमान का घोतक है. ब्राह्मणवाद का काट है. अपने को दलित वही कहेगा जो दलित चेतना से लैस होगा. और जो दलित चेतना से लैस होगा वो गर्व से कहेगा कि मैं दलित हूं. लेकिन इस कविता में कवि ने दलित शब्द का मानी ही खत्म कर दिया है.

अगर कवि ये कहता कि चमार हूं साब! या ये कहता कि डोम हूं साब! तो ये समझ में आता की चलो अभी इन तक दलित चेतना नहीं पहुंची है इसलिए ये अभी भी हीन भावना से ग्रस्त है. लेकिन यहां कवि खुद को दलित भी कह रहा है और हीनभावना से भी ग्रस्त है, ऐसा कैसे हो सकता है ? दरसल यहां कवि की अज्ञानता का पता चलता है, जिसे अभी तक दलित आंदोलन के इतिहास और दलित साहित्य विमर्श के बारे में ठीक से पता नहीं है. नहीं तो वो इतनी बड़ी भूल नहीं करता.

इसके बाद पूरी कविता गड़बड़ा जाती है, जिसमें दलित चेतना का नामो-निशान नहीं है. इतनी बेचारगी से भरी कविता तो हीरा डोम ने भी नहीं लिखा है. हर सवाल का जवाब जिस तरह से कविता में दिया जा रहा है, उससे दलितों के समाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थिति का पता चलता है, जो इस कविता की अच्छी बात है. जो दलित राजनेताओं और उनकी पार्टियों पर एक करारा तमाचा है. जिन्होनें सत्ता पाने के लिए दलितो को एक वोट बैक के रूप में इस्तमाल तो किया लेकिन दलितों के समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हालात को नहीं बदला.

लेकिन ये समय दलितों के स्वाभिमान का समय है. ब्राह्मणवाद से निर्णायक लड़ाई लड़ने का समय है. छूआछूत जैसी अमानवीय प्रथा को खत्म करने का समय है, जिसमें यह कविता अपनी कोई भूमिका निभाती नहीं दिखती. ब्राह्मणवाद के सामने हाथ जोड़ने से दलितों को न तो मुक्ति मिली है और न ही मिलने वाली है.

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