कश्मीर की घाटी में देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नीतियों की विफलता का एक नयाब पहलू उभर कर सामने आया है. देश भर में एक ओर जहां बेहिसाब बढ़ती मंहगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा, अचिकित्सा, बढ़ते साम्प्रदायिक तनाव पूरे उफान पर है, वहीं प्रधानमंत्री मोदी ने 8 नवम्बर, 2016 में आपातकालीन तरीके से नोटबंदी की ‘गोपनीय’ योजना को देश भर में लागू करते हुए अपने अनेक मुद्दों में से एक यह भी कहा था कि ‘‘नोटबंदी के इस कदम से कश्मीर में आतंकवाद खत्म हो जायेगा. 50 दिनों के बाद सपनों का भारत बन जायेगा.’’ प्रधानमंत्री मोदी के इस जोरदार घोषणा के बाद देश में लोगों को एकबारगी लगा कि ‘‘सचमुच कुछ बदल रहा है’’, जिसकारण तकरीबन डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों ने बैंक की लाईनों में लगकर अपने प्राण त्याग दिये, जिसे लोगों ने भी शहीद होना मान लिया. हलांकि भारत सरकार अपने मारे जाने वाले सैनिकों को भी कभी शहीद नहीं मानता.
परन्तु इस नोटबंदी के 50 दिन बाद तो क्या अब तक भी कहीं ‘‘सपनों का भारत’’ नजर नहीं आया. आतंकबाद का खात्मा कहीं नहीं हुआ, बल्कि इसने अपना जड़ हर संभव तरीके से ज्यादा ही मजबूती से जमा लिया है. नोटबंदी की भारी असफलता के बाद आनन-फानन में जीएसटी लागू किया और खुदरा व्यापार में सौ प्रतिशत विदेशी निवेश को मंजूरी दे दी. जिस कारण देश भर में अव्यवस्था और भी ज्यादा बुरी तरह चरमरा गई. मोदी सरकार अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए आंकड़ों की बाजीगरी करनी लगी और देश के सामने गलत आंकड़े दे-देकर खुद के नाकामियों पर पर्दादारी करने लगे इसलिए हम भी कश्मीर घाटी में आतंकवाद की राह पर चलने वाले युवाओं के संदर्भ में भी आंकड़ों की ही बात करेंगे, जो मोदी सरकार और पूर्ववर्ती सरकार की नीतियों का साफ तौर पर उजागर करने का एक पैमाना हो सकता है.
जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्रती ने मंगलवार को राज्य विधानसभा को सूचित करते हुए कहा कि ‘‘कश्मीर घाटी में वर्ष 2017 में 126 स्थानीय युवाओं ने आतंकवाद की राह पकड़ ली है.’’ जबकि पिछले साल मार्च में संसद में पेश किए गये आंकड़ों की बात करें तो वर्ष 2010 में 54 युवाओं ने हथियार उठाये थे, जो वर्ष 2011 में घटकर 23 हो गया था. वर्ष 2012 में 21 और वर्ष 2013 में घटकर मात्र 16 युवा ही हथियार उठाने को अपना लक्ष्य बनाया था. जबकि घाटी में हथियार उठाने वाले युवाओं की संख्या वर्ष 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद अचानक बढ़कर 53 हो गई. जो लगतार बढ़ते हुए वर्ष 2015 में 66, तो वर्ष 2016 में 88 हो गया. परन्तु वर्ष 2017 ई. में इस संख्या में भारी इजाफा होकर 126 युवा हथियार उठा लिये हैं, जो पूरी तरह केन्द्र की मोदी सरकार की नीतियों के विफलता का परिणाम ही माना जाना चाहिए.
सुरक्षा बलों के ही एक आंकलन के अनुसार मौजूदा समय में आतंक की राह पर चलने वाले युवा वर्ष 1990 के दौर के आतंकवादियों की तुलना में वैचारिक रूप से ज्यादा कट्टर हैं. इसका एक अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि मौजूदा समय में घाटी में हथियार उठाने वाले युवा ज्यादा पढ़े-लिखे और सोच-समझकर कदम उठाने वाले हैं. अगर ऐसे पढ़े-लिखे युवा हथियार उठाने लगे तो निश्चित तौर पर यह भारतीय शासक वर्ग के लिए ज्यादा खतरनाक साबित होंगे.
स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि वर्ष, 2014 में देश की सत्ता पर काबिज संघी सोच के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वैचारिक नीतियों के कारण एक ओर जहां देश भर में साम्प्रदायिक तनाव बढ़े हैं, दलित-पिछड़ों-आदिवासियों-महिलाओं पर हमलें बढ़े हैं तो वहीं उनकी कश्मीर घाटी के मामले में भी उनकी नीतियां न केवल फिसड्डी ही साबित हुए हैं, वरन् घाटी में लोगों के असंतोष को ही बढ़ाया है, जिसकारण शांति होने के कागार पर जा रही घाटी में युवाओं ने अपनी समस्या को हल करने का एकमात्र माध्यम हथियार उठाने को अपनी रणनीति बनाने में जुट गये हैं, जो भारत सरकार के लिए भारी सरदर्द साबित होने वाला है.