कश्मीर पर अमित शाह को इतिहास का सबक कि उन्हें कश्मीर पर बोलने के पहले स्कूल में पढ़ाया जाना चाहिए था. अमित शाह को पता होना चाहिए कि पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ही वह कारण हैं कि आज जम्मू-कश्मीर का दो-तिहाई भाग भारत का हिस्सा है.
जम्मू-कश्मीर राज्य द्वारा भारत को स्वीकार किए जाने के 72 साल बाद भी सवाल पूछे जा रहे हैं कि भारत ने युद्ध विराम क्यों स्वीकार किया और उसकी सेना को नियंत्रण रेखा के दूसरी तरफ से पाकिस्तानी हमलावरों को निकालने की अनुमति क्यों नहीं दी गई ? जो तब से पाकिस्तान का कब्जा वाला कश्मीर (POK) बन गया है. कश्मीर (पीओके) और गिलगित-बाल्टिस्तान.
इस सवाल का ताजा मुद्दा केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का है, जिन्होंने जम्मू-कश्मीर समस्या को भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराया है. दुर्भाग्य से, केंद्रीय गृह मंत्री, जो आरएसएस का एक तड़ीपार उत्पाद है, को लगता है कि संघ के प्रचार के इतिहास के केवल एक विकृत संस्करण के बारे में पता है.
यह संक्षिप्त लेख विवाद की उत्पत्ति का पता लगाने और इस मुद्दे पर आरएसएस/भाजपा के प्रचार का जवाब देने का प्रयास करता है. लेकिन ऐसा करने से पहले, यह जानना महत्वपूर्ण है कि इस अवधि के दौरान भारत और पाकिस्तान दोनों सेनाओं का नेतृत्व ब्रिटिश जनरलों द्वारा किया गया था.
जबकि पाकिस्तान के गवर्नर जनरल के रूप में मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के सर्वोच्च प्राधिकारी थे. भारत के गवर्नर जनरल के रूप में लॉर्ड माउंटबेटन, भारत के रक्षा समिति के प्रमुख थे, जिनमें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, केंद्रीय गृह मंत्री सरदार पटेल और रक्षा मंत्री बलदेव सिंह शामिल थे.
जम्मू और कश्मीर विलय, सेना भेजने, संयुक्त राष्ट्र का संदर्भ, युद्ध विराम आदि के संबंध में सभी निर्णय रक्षा समिति द्वारा लिए गए थे, किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं. ये संघी लंपट पीढ़ी जिसको किताब से नहीं ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी से नालेज प्राप्त होता है, को यह बताकर गुमराह किया जाता है कि नेहरू ने कश्मीर समस्या को UNO में ले गये, नहीं तो कश्मीर आज समस्या नहीं होता.
नेहरू डिमोक्रेट थे, मोदी और तड़ीपार जैसे फासिस्ट लंपट, अनपढ़ तड़ीपार नहीं थे कि अकेले निर्णय लेते. जो भी निर्णय था सर्वसम्मति का था. नेहरू शांतप्रिय व्यक्ति थे. विलय पर UNO का मुहर लगवाकर इस समस्या को एक समाधान तक ले जाना चाहे. वे अपनी जगह सही थे क्योंकि कश्मीर का असली नेता शेेरे कश्मीर शेख अब्दुल्ला, नेहरू और कांग्रेस के साथ थे. अत: जनमत संग्रह में कश्मीर की जनता शेख के साथ थी.
जहां तक अन्य रियासतों का है, यह जम्मू और कश्मीर के शासक के लिए खुला था – एक ऐसा राज्य जो भारत और पाकिस्तान दोनों के निकट था, प्रवेश के साधन पर हस्ताक्षर करने और इसे या तो प्रभुत्व में शामिल करने के लिए. जम्मू और कश्मीर के शासक महाराजा हरि सिंह ने अपने निर्णय में देरी की क्योंकि यह उनके लिए कोई आसान निर्णय नहीं था. उनका राज्य भारत और पाकिस्तान दोनों के निकट था और वे हिंदू थे, तो उनकी प्रजा मुख्य रूप से मुस्लिम थी.
शासक हरि सिंह की पेशकश 12 अगस्त, 1947 को दोनों प्रभुत्व वाले राष्ट्र भारत और पाकिस्तान को समान शब्दों में व्यक्त की गई थी. पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों के नेतृत्व में आदिवासी हमलावरों ने अक्टूबर के तीसरे सप्ताह में राज्य की सीमाओं को पार करना शुरू कर दिया. राज्य के सशस्त्र बलों को प्रतिरोध देने के लिए जुटाया गया था, लेकिन 25 अक्टूबर तक हमलावर कश्मीर में अंदर तक बढ़ गए थे और श्रीनगर के कुछ ही मील के भीतर थे.
जम्मू-कश्मीर में राज्य के जन आंदोलन का नेतृत्व एक उत्कृष्ट नेता शेख अब्दुल्ला ने किया था. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस के बीच सहयोग का मजबूत बंधन था. नेहरू और शेख अब्दुल्ला ने एक मजबूत दोस्ती बनाई थी, जो भारत के लिए बहुत फायदा साबित करने के लिए थी.
माउंटबेटन की सलाह और नेहरू और पटेल के दबाव में महाराजा ने भारत में कश्मीर का विलय स्वीकार करने की पेशकश की और तत्काल सैन्य सहायता मांगी. राज्य मंत्रालय के सचिव वी. पी. मेनन जम्मू गए और 26 अक्टूबर को महाराजा ने विलय दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए.
रक्षा समिति की आपात बैठक में नेहरू, पटेल और बलदेव सिंह की आपात बैठक हुई, हालांकि लॉर्ड माउंटबेटन ने घाटी में सैनिकों को आक्रमण करने वालों को निकालने का आदेश दिया. ऑपरेशन जम्मू-कश्मीर 27 अक्टूबर की सुबह पहली रोशनी में शुरू हुआ.
एक के बाद एक सौ से अधिक विमानों ने सफदरजंग हवाई अड्डे से उड़ान भरी और लेफ्टिनेंट कर्नल रंजीत राय के नेतृत्व में सिख रेजिमेंट ने हथियार, राशन और सैनिकों को ले गए. बारामूला श्रीनगर मार्ग पर एक पुल का हेड स्थापित करना, जिसने आक्रमण को रोक दिया और श्रीनगर को बचाया. जम्मू और कश्मीर में युद्ध 15 महीने तक चला.
पर 1 जनवरी, 1948 को भारत ने जम्मू और कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में ले गया. अप्रैल 1948 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें पाकिस्तान से जम्मू और कश्मीर और भारत को अपनी सेनाओं को न्यूनतम स्तर तक कम करने के लिए हटाने का अनुरोध किया गया था, जिसके बाद लोगों की इच्छाओं का पता लगाने के लिए एक जनमत संग्रह आयोजित किया जाएगा.
नवंबर 1948 के अंत तक भारतीय सेना ने द्रास और करगिल पर फिर से कब्जा कर लिया था और घाटी से लद्दाख तक का रास्ता सुरक्षित कर लिया था. इसके साथ ही वे मेंढर ले लिया और पुंछ गैरिसन के साथ जुड़ा हुआ है, तो साल भर की घेराबंदी उठाने.
लद्दाख और राजौरी पुंछ को पूरी तरह सुरक्षित रखने के बाद भारत ने संघर्ष विराम को स्वीकार कर लिया है, जिसके लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ रहा था और अब इसका विरोध नहीं किया जा सकता. 1948 की आखिरी रात को बंदूकें चुप हो गईं और 1 जनवरी 1949 से युद्ध विराम लागू हो गया.
भारत कतिपय विशिष्ट शर्तों के अधीन एक जनमत संग्रह पर सहमत हुआ, जिसमें से सबसे महत्वपूर्ण यह था कि पाकिस्तान को सभी सैनिकों को वापस लेना चाहिए और जम्मू और कश्मीर के पूर्व रियासत के पूरे क्षेत्र को खाली करना चाहिए. पाकिस्तान ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और अभी भी ऐसा करने से इनकार करते रहे हैं.
दिवंगत राजनयिक और पूर्व विदेश सचिव जेएन दीक्षित के अनुसार, ‘एक और दिलचस्प पहलू, जो व्यापक रूप से ज्ञात नहीं है, यह है कि शेख अब्दुल्ला स्वयं बहुत उत्सुक नहीं थे कि भारतीय सेना पाकिस्तानी सैनिकों से राज्य के पश्चिमी क्षेत्रों को पुनः प्राप्त करे.
इसका कारण यह था कि वह पीओके में रहने वाले लोगों के साथ उनकी लोकप्रियता के बारे में निश्चित नहीं थे. उनके नेतृत्व को उन क्षेत्रों में वैसा समर्थन नहीं मिला था, जो जम्मू और कश्मीर के बाकी हिस्सों में मिलता था. इसलिए शेख अब्दुल्ला ने भारत का समर्थन करते हुए इस मामले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को भेज दिया.
इसलिए यह बात साफ तौर पर उभरकर सामने आती है कि जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला नहीं होते तो कश्मीर भारत का हिस्सा कभी नहीं होता.
अमित शाह और संघ परिवार को यह जानने की जरूरत है कि नेहरू की नीति के कारण हमने कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा नहीं खोया, राज्य का दो तिहाई हिस्सा जवाहरलाल नेहरू के त्वरित सैन्य हस्तक्षेप और शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में जम्मू-कश्मीर के लोगों के समर्थन के कारण भारत के साथ है. जो आज मोदी शाह जैसे लंपट के कारण कश्मीर एक सवाल था पाक और भारत के बीच का, आज दुनियां का सवाल बन गया है.
अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देश में भी कश्मीर के सवाल पर मानवाधिकार को लेकर प्रदर्शन हो रहा है. यह भारत पाक के बीच का मसला अब मोदी सरकार की मूर्खता के कारण वैश्विक मसला बनता जा रहा है. इसमे विदेशों मे बैठे अलगाववादी ताकतें हवा दे रही हैं.
पिछले दिनों अमेरिका में कश्मीरी और सिख मोदी के खिलाफ ‘कश्मीर-सिख रिफ्रेंडम फ्रंट’ के बैनर तले प्रदर्शन कर रहे थे. वे सिख कौन लोग थे ? वही जो खालिस्तान की मांग करने वाले थे. आज भी खालिस्तान समर्थक विदेशों मे खासकर अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन में बैठकर अपनी दबी हुई इक्छा को कश्मीर के बहाने पूरा करने की लालसा के साथ सतह पर आ गये हैं.
इन प्रदर्शनकारी सिखों को कश्मीर और कश्मिरियों से कोई लेना देना नहीं, ये इसी के आड़ मे अपना एजेंडा पूरा करने की सोच रहे हैं. ये सोचते हैं कि कश्मीर अगर अलग होता है तो हमारा अगला मांग खालिस्तान होगा.
मोदी शाह अगर ऐसे ही हिंदू राष्ट्र बनाते रहे तो इस देश में अलगाववाद की बयार बहते देर नहीं लगेगी और देश टुकड़े टुकड़े में बंट जायेगा. फिर तो कश्मीर, बंगाल. आसाम, नागालैंड, सिक्किम, गोरखालैंड, तमिल, त्रावनकोर इत्यादि राज्य की मांग की बाढ़ आ जायेगी.
अत: मोदी शाह की मूर्खता की भारी कीमत देश को चुकानी पड़ सकती है. फौज किसी राजनीतिक समस्या का समाधान नहीं होता. कश्मीर की समस्या को टेबल पर लाकर उसका उचित समाधान खोजा जाय. यह अपराधिक मानसिकता के लोगों के वश की बात नहीं. संसद, देश के बुद्धजीवी और सुप्रीम कोर्ट इस पर चिंतन करे और समाधान को खोजे. Finally, you have to decide that you need democracy or tyranny of fascist majority…
- डरबन सिंह
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