सुब्रतो चटर्जी
कर्नाटक सरकार आईटी लॉबी से घूस खाकर उनके एक प्रस्ताव पर विचार कर रही है, जिसके अनुसार आईटी सेक्टर में काम करने के समय को 10 घंटे से बढ़ा कर 14 घंटे करने का प्रावधान है. ज़ाहिर है कि एक बार इसे अगर Karnataka State Shops and Establishments Act में ला दिया गया तो इसका प्रभाव हरेक सेक्टर में पड़ेगा. राहुल गांधी की कॉरपोरेट विरोधी स्टैंड की असलियत यही है.
ख़ैर, बड़ा सवाल ये है कि कर्नाटक सरकार को ऐसे अमानवीय और श्रम विरोधी प्रस्ताव पर विचार करने की हिम्मत कहां से आई ?दरअसल, नव उदारवादी अर्थव्यवस्था का मतलब ही कॉरपोरेटपरस्त नीतियों को लागू कर मज़दूरों के हितों पर चोट पहुंचाना है. इसकी शुरुआत International Labour Law द्वारा पारित 8 घंटे के कार्य दिवस को पलीता लगाने से हुई.
कहने को तो भारत भी इस क़ानून का signatory है, लेकिन भारत में 95% रोज़गार देने वाले असंगठित क्षेत्र में यह कभी लागू ही नहीं हुआ. अब इजारेदारों की नज़र संगठित क्षेत्र के कामगारों पर है. दरअसल कोई blue collard or white collared job नहीं होता है. नौकर नौकर होता है और मालिक मालिक होता है.
जिस तरह से निजी बैंकों में 1 लाख की तनख़्वाह वाले ब्रांच मैनेजर को vice president कह कर उसे false pride दिया जाता है, उसी तरह से air conditioned office में बैठे आईटी लेबर को भी special treatment पाने वाले की कैटेगरी में लाया जाता है. यह अलग बात है कि air condition कंप्यूटर की रक्षा के लिए लगाया जाता है, न कि इम्प्लाइस की सुविधा के लिए.
अब लौटते हैं मूल प्रश्न पर. 90 के दशक से भारत में ट्रेड यूनियन मूवमेंट का कमज़ोर पड़ना इस तरह की शोषण आधारित स्वेच्छाचारी क़ानूनों को आगे बढ़ाने के लिए ज़िम्मेदार है.
पहले, सफ़ेद कॉलर और नीले कॉलर के बीच विभाजन पैदा कर श्रमिकों को एक नई वर्ग व्यवस्था में बांटा गया. नतीजतन, ज़्यादा सैलरी और सुविधा पाने वाले मजदूर अपने से कम सैलरी या दिहाड़ी पाने वाले मज़दूरों से अपने को श्रेष्ठ मानने लगे. इस तरह से एक नया मध्यम वर्ग आकार लेता गया जिसकी प्राथमिकता उसी पूंजीवादी, शोषण आधारित व्यवस्था को बचाए रखना था, जो उसके सुख सुविधाओं का बेहतर ख़याल रखता था.
इस प्रपंच को आगे बढ़ाने के लिए दुनिया भर की सरकारें गृह और कार लोन पर ब्याज की कटौती कर इस मध्यम वर्ग को हरेक छोटे बड़े शहर में कुकुरमुत्ता की तरह उगे सोसायटी में क़ैद कर दिया. उसके बाद का काम आसान था. समाज और जनता के मुद्दों से कटे यह परजीवी वर्ग विरोध की आवाज़ उठाने में सर्वथा अशक्त था.
इनके पास कोई ट्रेड यूनियन भी नहीं था. कर्मचारी संघ निजी क्षेत्रों में दुनिया में कहीं भी नहीं है. नतीजतन, इनकी सरकार के ग़ैरक़ानूनी फ़ैसलों के विरोध करने की शक्ति लगभग शून्य है. अब अंतरराष्ट्रीय पूंजीवादी ताक़तों के सामने मैदान साफ़ था. अब उनके पास इस नपुंसक, आत्मघाती वर्ग से 14 घंटे काम लेकर उनको असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की श्रेणी में लाना बहुत आसान काम था.
आज भी जिन लोगों को लगता है कि ट्रेड यूनियन औद्योगिक विकास के रास्ते में बाधा है, वे इस नारकीय जीवन को जीने के लिए तैयार रहें और भाजपा कांग्रेस को बारी बारी से वोट देते रहें. सच तो यह है कि आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था राजतंत्र की पुनर्स्थापना के लिए कटिबद्ध है. इसके विरुद्ध लड़ाई संगठित होकर ही लड़ी जा सकती है. कलियुगे संघे शक्ति ! पूंजीपति संगठित हैं और जनता असंगठित. अब आप कम्युनिस्ट लोगों को गाली देने के लिए स्वतंत्र हैं, क्योंकि आपके जैसे ग़ुलामों को इससे ज़्यादा अक़्ल नहीं है.
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