बीते साल मई में जब विधानसभा चुनाव परिणाम आए, कर्नाटक में भाजपा सत्ता से बाहर हो गई और कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई. कांग्रेस की सत्ता में वापसी के पीछे न तो कांग्रेस की कोई लोकप्रियता थी, न उससे कोई भविष्य की आस. कांग्रेस की जीत के पीछे उस संघर्ष का हाथ रहा, जो सांप्रदायिक ताकतों को कर्नाटक की सत्ता से बाहर करने में पिछले कई सालों से जारी रहा, और 2024 लोकसभा चुनाव तक जारी रहेगा.
कलबुर्गी (2015) और गौरी लंकेश (2017) की हत्या के बाद से ही सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ कर्नाटक की जनता में गहरा गुस्सा था. दिसंबर 2022 से ही अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा-आरएसएस को कर्नाटक की सत्ता से खदेड़ने की तैयारियां होने लगीं थी. 16 फरवरी, 2022 को बैंगलुरू के फ्रीडम पार्क में संयुक्त किसान मोर्चा के घटक किसान संगठनों, केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों, दलित संगठनों, महिला संगठनों, युवा संगठनों के साझा बैनर संयुक्त होरता (संयुक्त मोर्चा) तले हजारों की संख्या में जमावड़ा हुआ.
संयुक्त किसान मोर्चा के राष्ट्रीय नेता डा. दर्शन पाल भी इस जमावड़े के मंच पर शामिल थे. इसी महापंचायत में कर्नाटक के तमाम जनसंगठनों के सामूहिक निर्णय की मंच से पहली बार घोषणा की गई कि ‘आगामी विधानसभा चुनाव में जनविरोधी बीजेपी को सभी मिलकर सबक सिखाएंगें.’
इसी निर्णय को मजबूती से लागू करने और चुनावों में राजनैतिक दखल के मकसद से ही 5 मार्च को बैंगलुरू के जय भीम भवन में कर्नाटक के 20 जिलों से 150 संगठनों के नेताओं-प्रतिनिधियों ने एक साझा अभियान ‘इद्देलु कर्नाटक’ की घोषणा की, अब सभी संगठनों ने जमीनी स्तर पर विधानसभा क्षेत्रों में जुटने का निर्णय लेते हुए नारा बुलंद किया – ‘सांप्रदायिक ताकतों को हराओ’
‘इद्देलु कर्नाटक’ की रणनीति
‘इद्देलु कर्नाटक’ के साथियों ने उन विधानसभा सीटों पर सघन जनसंपर्क की रणनीति बनाई जिन पर भाजपा के साथ विपक्षी दलों की कांटे की टक्कर थी. सुचारू काम के लिए कई कमेटियां बनाईं गईं – सोशल मीडिया कमेटी, फाइनेंशियल कमेटी, क्रिटिकल विधानसभा क्षेत्र कमेटी, राजनैतिक वार्ता कमेटी, प्रचार लेखन कमेटी आदि.
5500 समर्पित कार्यकर्ताओं का मजबूत मोर्चा बनाया गया, जिन्हें 102 छोटे समूहों में बांटा गया. इन कमेटियों के जिम्मे सांगठनिक वर्कशाप, प्रचार सामग्री वितरण, सोशल मीडिया पोस्ट शेयरिंग, वोटरों के साथ बैठकें-संपर्क करने जैसे तमाम काम सौंपे गए. सभी को वालियंटर्स के रूप में भर्ती किया गया, न कि पार्टी कार्यकर्ता के रूप में.
41000 परिवारों का डाटा एकत्रित किया गया. समानान्तर मीडिया तैयार किया गया. 650 पोस्टर, 80 वीडियो और 7 गाने तैयार किए गए. पत्रकारों के साथ 100 से अधिक वार्ता आयोजित की गई. किसानों, श्रमिकों, दलितों, महिलाओं, विद्यार्थियों और आदिवासियों के 50 से अधिक धरने संचालित किए गए. यह साझा जन अभियान 31 जिलों के 151 तालुक में फ़ैल गया.
इद्देलु कर्नाटक अभियान के साथ बहुत्व कर्नाटक, दलित संघर्ष समिति, कर्नाटक राज्य रायतु संघ, राज्य ट्रेड यूनियन, आदिवासी संघ और मुस्लिम-ईसाईयों के संगठन भी इस मुहिम में जुड़े. इन अभियानों के प्रयासों से एक लाख से अधिक नये मतदाता जोड़ें गए. साजिशन 1.5 लाख से ज्यादा गायब घोषित मुस्लिम, ईसाई और दलित मतदाताओं को दोबारा जोड़ा गया था. मतदाताओं में मतदान के प्रति इतनी जागरूकता बढ़ी कि कर्नाटक के चुनावी इतिहास में पहली बार 73.86 फीसदी मतदान हुआ. चुनाव में जनता के बीच नारे दिए- ‘वोट बेकार न जाने दो !’ वोट बंटने मत दो !’ ‘वोट उसे दो, जो बीजेपी को हराए !’
संयुक्त किसान मोर्चा की जमीनी कार्रवाई
उधर संयुक्त किसान मोर्चा जमीनी स्तर पर किसानों के बीच गांव-देहात में बीजेपी को सबक सिखाने की अपील कर रहा था. 26 अप्रैल, 2022 को बैंगलुरू में संयुक्त किसान मोर्चा और राज्य के प्रमुख किसान संगठनों की साझा महापंचायत हुई. इस महापंचायत में हन्नान मोला, अविक शाह, डा. सुनीलम, बड़गलापुरा नागेन्द्र, जी. सी. बयारेड्डी, एच. आर. बसवराजप्पा, योगेन्द्र यादव, नूर श्रीधर आदि 200 से अधिक राष्ट्रीय और प्रादेशिक किसान नेताओं और 20 से अधिक प्रमुख किसान संगठनों की व्यापक भागीदारी रही.
पंचायत में सांप्रदायिकता के मुद्दे के अलावा कई आर्थिक -सामाजिक मुद्दों पर कर्नाटक सरकार को घेरा गया. नंदिनी डेयरी को अमूल के साथ विलय करके अडानी की सेवा करने के कर्नाटक सरकार के फैसले का किसानों ने पुरजोर विरोध किया. जैसा कि नंदिनी 15 हजार से अधिक दुग्ध उत्पादक समितियों का समूह, जिसमें 60 लाख से अधिक किसान परिवार शामिल हैं. साथ ही राष्ट्रीय स्तर की मांगों – एम.एस.पी. की कानूनी गारंटी, संपूर्ण कर्जा माफी, किसान पेंशन जैसी तमाम मांगों पर वादाखिलाफी की सजा भाजपा को देने का निर्णय लिया गया.
13 मई को कर्नाटक चुनाव के परिणाम आए, तो सांप्रदायिक ताकतें सत्ता से बाहर हो गईं. कोडगु, कोलार, चिक्कबलापुरा, चिकमगलूर, बैंगलुरू ग्रामीण, चामराजनगर, बेल्लारी, मांड्या और यादगीर जिलों की 42 सीटों में कहीं कमल नहीं खिला. इसके अलावा लगभग समूचे कर्नाटक में विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में या तो बीजेपी के उम्मीदवार हारे या बामुश्किल बड़े की कम अंतर से जैसे-तैसे जीत पाए. कर्नाटक में भी भाजपा के सामने विपक्ष बिखरा-बिखरा था.
कांग्रेस 223 सीटों पर लड़ी, वहीं आप और जेडीएस भी 209 सीटों पर मुकाबले में थे. दलित आधार की पार्टी बसपा ने भी 195 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे लेकिन कर्नाटक की जनता ने कमाल की समझदारी दिखाई, वोट खराब होने और वोट बंटने न देने की हरसंभव कोशिश की. जैसा कि कर्नाटक की जनता सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ वोट करने का मन बना चुकी थी.
सत्ता में आने के बाद कांग्रेस
सांप्रदायिकता के प्रति जनता के गुस्से को भांपते हुए कांग्रेस ने मुख्य सांप्रदायिक संगठन बजरंग दल को बैन करने का वादा किया था, जिसका कांग्रेस को चुनाव में सांप्रदायिक विरोधी वोट बैंक के ध्रुवीकरण करने में फायदा मिला लेकिन आर्थिक मुद्दों पर सभी मुख्य विपक्षी पार्टियों कारपोरेट शक्तियों के सिर झुकाए और हाथ बांधे खड़ी नजर आईं.
कांग्रेस को 42.9 फीसदी वोटों के साथ कुल 135 सीटों पर जीत हासिल हुई, वहीं भाजपा पिछली बार की 40 सीटें हार गईं. भाजपा के साथ ही कर्नाटक की जनता के साथ धोखा करने वाली पार्टी जेडीएस को भी अच्छा सबक मिला. जेडीएस का वोट शेयर पिछली बार से 6 से 13 प्रतिशत घट गया. लेकिन आर्थिक मुद्दों पर सभी मुख्य विपक्षी पार्टियों कारपोरेट शक्तियों के सामने सिर झुकाए और हाथ बांधे खड़ी नजर आईं.
कर्नाटक चुनाव के दौरान किसान संगठनों, श्रमिक संगठनों, दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यकों के बीजेपी के खिलाफ आक्रोश का फायदा कांग्रेस को मिला, नहीं तो कांग्रेस भी चुनाव जीतने के बाद पहले की तरह अंबानी-अडानी जैसे कारपोरेट की सेवा में जुट गई. सितंबर में छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल का अडाणी समूह को कोयला खदान के लिए न्यौता देना, अक्टूबर में राजस्थान में तत्कालीन मुख्यमंत्री गहलोत के साथ गौतम अडानी की मुलाकात और उसके बाद राहुल गांधी की कारपोरेट भक्ति किसी से छिपी नहीं.
अगले ही महीने 2 नवंबर, 2022 को बैंगलुरू में आयोजित वैश्विक निवेशक सम्मेलन में गौतम अडाणी ने कर्नाटक में लाख करोड़ निवेश की घोषणा कर दी, जिसके लिए कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री सिद्धरम्मैया तो जून से ही पलक पांवडे बिछाए बैठे थे. मुख्य विपक्षी पार्टियों की कारपोरेट भक्ति ही उन्हें किसान आंदोलन का साथ और समर्थन देने से रोकती है. यह बात अलग है कि बीजेपी शुरू से ही किसान आंदोलन को विपक्षियों की साज़िश घोषित करने में जुटी है.
भाजपा के खिलाफ कांग्रेस एक नाकामयाब विकल्प
कर्नाटक की जीत के बाद मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने जिस तरह किसान आंदोलन को अनदेखा करके कारपोरेट के साथ जनविरोधी नीतियों की तरह जुट गईं, संयुक्त किसान मोर्चा के एकजुट विपक्ष के संदेश और भाजपा को सबक सिखाने के मकसद को केन्द्र में नहीं रखा, उसीका परिणाम रहा कि राजस्थान और मध्यप्रदेश में मतदाता भाजपा का एकजुट विकल्प तलाशने में नाकामयाब रहा.
बावजूद इसके देश की मेहनतकश जनता और विशेषकर किसान-मजदूर न तो हताश हैं और न ही निराश. 2024 के लोकसभा चुनाव में और ज्यादा बेहतर तैयारी के साथ जुटने की तैयारी कर ली. 29-30 सितंबर को बैंगलुरू के गांधी भवन देश भर के 300 से अधिक संगठनों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में बीजेपी को एकजुटता के साथ हराने की घोषणा की गई.
कर्नाटक जैसे सफल जनप्रयासों के अनुभव को आज समूचे देश में फैलाने की जरूरत है. विशेषकर आधी संसदीय सीटों के किसान आंदोलन के प्रभाव के राज्यों पंजाब, हरियाणा, यूपी, राजस्थान, एम पी, उत्तराखंड, बिहार में बाकी सभी वर्गों जैसे श्रमिकों, दलितों, अल्पसंख्यकों के संगठनों-समूहों के साथ एकजुटता करते हुए जन अभियान संचालित करने पर त्वरित काम शुरू करना चाहिए. तभी किसानों-मजदूर विरोधी, महिला विरोधी, कारपोरेट परस्त, साम्प्रदायिक यहां तक कि जनविरोधी भाजपा-आरएसएस को उसकी काली करतूतों के लिए सबक सिखाने में कामयाबी हासिल होगी।
- शशिकांत (अलीगढ़)
क्रांतिकारी किसान यूनियन
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