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कांग्रेस चिन्तन की कर्म कथा : अडानी, अंबानी जैसे काॅरपोरेट शोषकों का नाम तक जिस नेताओं की जबान पर नहीं आता, देशसेवा उनसे हो सकती है ?

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कांग्रेस चिन्तन की कर्म कथा : अडानी, अंबानी जैसे काॅरपोरेट शोषकों का नाम तक जिस नेताओं की जबान पर नहीं आता, देशसेवा उनसे हो सकती है ?
कांग्रेस चिन्तन की कर्म कथा : अडानी, अंबानी जैसे काॅरपोरेट शोषकों का नाम तक जिस नेताओं की जबान पर नहीं आता, देशसेवा उनसे हो सकती है ?
kanak tiwariकनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़

उदयपुर का कांग्रेस चिंतन शिविर और उसमें पारित नवसंकल्प पत्र चख-चख बाजार में हैं. कुछ टिप्पणीकार इस अभियान में कांग्रेस और देश के लिए नई राजनीतिक जद्दोजहद के संकेत ढूंढ़ रहे हैं. कुछ आलोचक फिलवक्त इस घटना या ऐलान के पीछे कई नकारात्मकताओं को भूल नहीं पाते. कुछ नए गैर-सियासी कांग्रेस समर्थक हालिया मुखर हुए हैं. वे कहते हैं कि जो भी कांग्रेस की आलोचना करेंगे उनकी लानत, मलामत करने का मौका वे नहीं छोड़ेंगे. कई बुद्धिजीवी, अध्यापक, रिटायर्ड अधिकारी और एक्टिविस्ट कांग्रेस को एक उर्वर खेत, मांद या खान अपने लिए समझते अपना भविष्य शेष उसमें ढूंढ़ने में लगे हैं. देश की सबसे पुरानी, प्रौढ़ और समावेशी राजनीतिक संस्था को लेकर लोगों के जुदा-जुदा सलूक के बावजूद परिपक्व फैसलों की अपेक्षा तो इतिहास को भी है.

किसी भी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी के उत्थान, पतन की कथा में नीतियों, कार्यक्रमों और व्यक्तियों की भूमिका ही मुख्य होती है. उदयपुर शिविर में मीडियाई प्रचार के अनुसार ज्यादा मशक्कत और जोर इस बात का हुआ कि पार्टी संगठन को किस तरह फिर परिभाषित और चुस्तदुरुस्त किया जाए. वह एक ढांचागत महत्वपूर्ण घटना तो है. राजनीति के भविष्य और भविष्य की राजनीति को लेकर कांग्रेस की संभावित भूमिका और मुकाम पर सरसरी नजर डालना उसके बनिस्बत ज्यादा ज़रूरी होगा. कई विचारक हैं जिनमें कांग्रेस का इतिहास उसकी लगातार बदलती तथा सार्थक निरर्थक होती भूमिका, हो गई गलतियां और उसकी समझ में भविष्य को लेकर आशंकाओं की ओर वस्तुपरक या तटस्थ नजर से देखने की कोशिश होगी.

आज देश की जनता के सामने सबसे बड़ा सवाल आर्थिक बदहाली का है. महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की बदहाली, श्रमिक यूनियनों का खात्मा, सरकारी नियोजन का घटते जाना, नए वैज्ञानिक प्रयोगों के साथ पारंपरिक प्रविधियों का संतुलन, शिक्षा की बरबादी वगैरह को लेकर क्या हो सकता है ? मोदी प्रशासन में इंदिरा गांधी की कई नीतियों के ठीक उलट सब कुछ काॅरपोरेट के हवाले इस तरह किया जा रहा है, जैसे दामाद और समधी को दहेज दिया जाता है. आर्थिक उदारवाद के नाम पर जो नीतियां डाॅ. मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते शुरू हो गई थीं, उन पर भी कांग्रेस का क्या सोचना है ? यह भी देश जानना चाहता है. आज ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियों की हालत तो यही है कि अडानी, अंबानी जैसे काॅरपोरेट शोषकों का नाम तक नेताओं की जबान पर नहीं आता तो क्या देश सेवा उनसे हो सकती है ?

मौजूदा निजाम की अमेरिकापरस्ती के साथ साथ भारत को चारों ओर के पड़ोसियों से या तो ख़तरा है या संबंध खराब हैं. मौजूदा हुक्काम की जिंदगी का सबसे बड़ा आधार हिन्दू मुसलमान का नारा उगाकर अल्पसंख्यकों के लिए बहुसंख्यकों के मन में केवल नफरत पैदा करना है. उदार हिन्दू मन को घृणा का नाबदान बनाया जा रहा है. इस हिकमत में लेकिन आर्थिक शोषण तो बहुसंख्यकों का संख्या के अनुपात में ज़्यादा हो रहा है. यह इतिहास का सच है कि गांधी और नेहरू एक तरह से पूरक रहे हैं. कई बडे़ मुद्दों पर नेहरू की असहमति रही और देश को उन्होंने अपनी तरह से चलाया. आज़ादी के बाद कांग्रेस ने गांधी और पिछले कई वर्षों में नेहरू को उस तरह जीवित नहीं रखा जो देश की ज़रूरत रही है. नेहरू-अंबेडकर युति में संविधान के जरिए भारत के लिए एक नया रास्ता तजवीज हुआ. कांग्रेसियों का आचरण तो लेकिन उससे नावाकिफ और उलट रहा है.

यह भी समय का सच है कि कांग्रेस को देश की जितनी ज़रूरत है, देश के भविष्य को अपने पुख्ता पैरों पर चलने के लिए कांग्रेस या उस जैसी किसी समावेशी विचारधारा की विकल्पहीन ज़रूरत है. यही पार्टी है जिसकी समझ की बनावट और परिष्कार एक व्यक्ति के खाते में नहीं जा सकते इसलिए वस्तुपरक, तटस्थ बल्कि निर्मम ढंग से कांग्रेस की भूमिका को लेकर टिप्पणी जनहित में ज्यादा ज़रूरी है. भाजपा-संघ की युति को विचार के केन्द्र में रखकर केवल संगठनात्मक स्तर पर विकल्प ढूंढने से फकत कांग्रेस देह मजबूत हो सकती है.

देखना होगा कि चुनौतीपूर्ण क्षणों में कांग्रेस से बाहर रहकर भी गांधी, मुख्य नियंता होकर नेहरू और लगभग पराजय का आभास होने पर भी इंदिरा गांधी ने फैसले बिना किसी चिन्तन शिविर के किए. उन्हें जस का तस पुनरावृत्त करने की कोई समझाइश नहीं देगा लेकिन नई चुनौतियों से जूझने के लिए इतिहास की घटनाओं से तात्विक सीख तो ली जा सकती है. कांग्रेस के पास इतिहास तो है, उसके ही अपेक्षाकृत दक्षिणपंथी समझे गए पारंपरिक सोच के नेताओं को तो भाजपा द्वारा हाईजैक कर लिया गया है.

फिर वही जवाहरलाल नेहरू का विचार-पथ बचता है. उस पर कांग्रेस कैसे चलेगी ? पथ विचार नहीं होता, विचार पथ होता है. अब भी ऐसा क्यों लगता है कि नियमित अध्यक्ष के रूप में कोई सामने क्यों नहीं आता, मसलन राहुल गांधी. सबसे बड़ा सवाल यही कि अब चिंतन के बाद कर्मपथ पर शुरूआत करने में भी गांधी जयंती तक प्रतीक्षा करनी है. वक्त तो व्यग्र हो रहा है. कांग्रेस को भी होना चाहिए.

ऐसा नहीं है कि राजनीति में सब कुछ मीठा मीठा गप्प गप्प ही होता है, कड़वा कड़वा थू भी करना पड़ता है. भाजपा-संघ के फंदे में फंसकर कांग्रेस साॅफ्ट हिन्दुत्व उच्चारने लगे. हनुमान, राम और तमाम आराध्य हिन्दू देवी देवताओं के दरबार में भाजपाई मुद्रा में जाने लगे. पांच और सात सितारा नस्ल के कांग्रेसी सामन्तों से मुक्ति नहीं पाए. उसके मुख्यमंत्री और क्षेत्रीय नेता हाईकमान के सामने अपनी सूबेदारी करें. आदिवासी इलाकों का कोयला, लोहा, जंगल, जल और सभी वनोपज लूट ली जाए और उसका कोई कारगर विरोध तक नहीं हो. आनुषंगिक संगठनों का कोई नामलेवा तक नहीं हो. सूर्यास्त के बाद राजनीतिक पार्टियों में बैठकें तक निरामिष नहीं हो पाएं. सक्रिय कार्यकर्ताओं के नाम पर सेठिए बही खातों में नाम भरकर सैकड़ों हजारों सदस्य बना लें. इन सब व्याधियों से लड़ते हुए कांग्रेस को भी वापसी करने को लेकर सोचना होगा.

राह आसान नहीं है. मंजिल की मृगतृष्णा भी है. संघ ने 1925 से अपनी मंज़िल पर नजर रखी है. एक पंचवर्षीय योजना से कांग्रेस को पाथेय तक पहुंचने के बदले काॅरपोरेट विरोधी, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, जनवादी अपनी ऐतिहासिक समझ को विन्यस्त करने के लिए व्हाट्सएप विश्वविद्यालयनुमा समर्थकों और शुभचिन्तकों से पीछा छुड़ाते गांवों में जाना होगा. पता नहीं कब और कितना हो पाएगा ?

ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी जो कुछ कांग्रेस के साथ किया, अपनी खानदानी परंपरा का पालन ही तो किया

भाषा को काबू और लचीली रखने से मनुष्य अपने जीवन में सुखी रह सकता है. उससे राजनीति में भी तरक्की के मौके मिलते हैं. हम जैसे कस्बाई लोग शायद यह नहीं जानते रहे हैं. कटु भाषा के कारण लेकिन राजनीति के कांग्रेसी फिसलन के दौर में भी प्रादेशिक महामंत्री रहते जनता पार्टी की मुखालफत करने के कारण आम सभाओं में श्रोताओं की तालियों में मेरा इंडेक्स ऊंचा रहता था. सियासी घमंड मेरे स्वभाव का हिस्सा हो गया था/. पूरे प्रदेश में घूम घूमकर हम कई सभाएं करते रहते. तब मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की हुकूमत थी. सुन्दरलाल पटवा मुख्यमंत्री थे.

जबलपुर में पूर्व मंत्री और कांग्रेसी नेता माधवराव सिंधिया के अरबपति मित्र बीड़ी किंग श्रवणभाई पटेल के घर पार्टी कार्यकर्ताओं के रात्रि भोजन के बाद कमानिया गेट में आम सभा में जाना था. पटेल ने मुझसे कहा सिंधिया जी को पहुंचने में समय लग रहा है. स्थानीय नेताओं ने मोर्चा संभाल लिया है. आप भी भोजन कर वहां पहुंच जाइए. आप तो भीड़ को भी नियंत्रित कर लेते हैं. इसके बाद सिंधिया जी भी आ जाएंगे. अपनी तारीफ किसे नहीं सुहाती ! मैं भोजन करने के बाद सीधे मंच पर पहुंचा. युवक कांग्रेसियों ने भरपूर तालियां बजाईं. फिर अपनी उग्र आदत के चलते मैंने भाजपा सरकार के खिलाफ वह सब बोलना शुरू किया, जिस मानसिक खूराक के लिए भीड़ जुट चुकी थी.

कांग्रेस में वैसे भी निचले स्तर के कार्यकर्ताओं की भाषण देने से ज़्यादा इज्जत नहीं होती रही है. यह तो भाजपा, कम्युनिस्ट पार्टियों और समाजवादियों के कारण मंच से कार्यकर्ताओं का और श्रोताओं का संवाद कायम है. प्रदेश कांग्रेस महामंत्री होने के बाद मैंने प्रदेश स्तर पर एक वक्ता प्रकोष्ठ मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी में गठित किया था. बहरहाल जबलपुर में भाषण देते वक्त मुझे अचानक प्रसिद्ध कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान की याद हो आई. उनके सबसे छोटे बेटे अशोक चौहान उर्फ मुन्ना भैया मेरे प्रोफेसर रहे हैं. सुभद्रा जी की याद आते ही मैंने उनकी प्रसिद्ध कविता ‘बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ का जानबूझकर सभा में जिक्र किया. कविता सुनते ही तालियों और जोशीले नारों की गड़गड़ाहट शुरू हो गई, यही मेरी उम्मीद थी.

फिर झांसी की रानी के साथ हुए षड्यंत्र और धोखे को लेकर इतिहास बांचता अपने तर्कों की रेल में ग्वालियर तक पहुंच गया. अचानक मुंह से यह भी निकल गया कि गद्दार ग्वालियर राजघराने ने झांसी की रानी को बुलाया था कि ‘आइए आपकी मदद करेंगे.’ लेकिन उनके वहां पहुंचने पर अंगरेजों के बगलगीर राजवंश ने उन्हें धोखा दिया. इस वजह से पहले स्वतंत्रता आंदोलन की जांबाज नायिका शहीद हो गई. अपने भावुक जोश में मैंने यहां तक कह दिया जाइए ग्वालियर किले के सामने जाकर झांसी की रानी का बुत देखिए. वह जिस घोडे़े पर बैठी हैं, वह ग्वालियर किले की ओर देखकर थूक रहा है (हालांकि बोलने के बाद ही ख्याल आया था कि घोड़ा किले की ओर देखकर थूकता नहीं दिखाया गया है). फिर मैंने राजमाता विजयाराजे सिंधिया की गुलामी करती भारतीय जतना पार्टी की लालत मलामत की. तालियां दुगुनी चौगुनी हो गईं. मुझे लगा देशभक्ति का उन्माद उमड़ पड़ा है.

फिर किस्सा बताया कि जबलपुर से सटे त्रिपुरी में ही 1939 में कांग्रेस अधिवेशन में उद्दाम नायक सुभाष बोस ने गांधी के उम्मीदवार पट्टाभिसीतारमैया को अध्यक्ष पद पर शिकस्त दी थी. अचानक एक युवक ने फिर मांग की कि ‘जीजा जी ग्वालियर की कहानी फिर बताइए.’ मेरी ससुराल जबलपुर में होने से अधिकतर युवक मुझे जीजा जी कहते थे. लड़कों ने मुझे फंसा दिया. मेरी आक्रोशमय भाषा को बढ़िया बाजार भाव मिल रहा था. मुझे सचेत रहना चाहिए था, लेकिन चूक तो हो गई.

जैसे ही मैंने ग्वालियर कथा को दुबारा चाव के साथ सुनाना शुरू किया, तालियां दुगुने जोश में आ गईं. मुझे नहीं मालूम हुआ कि तब तक पीछे की ओर से माधवराव सिंधिया मंच पर चढ़ चुके थे. मैं सामने की ओर खड़ा होकर भाषण दे रहा था. वे पीछे की ओर से मंच पर खडे़ होकर जनता का अभिवादन स्वीकार कर रहे थे. गफलत थी कि तालियां किसके लिए बज रही हैं ? भीड़ के कारण दूर से पैदल चले आ रहे सिंधिया ने अपने पूर्वजों पर लगाई गई निन्दा की मेरी कथा सुन ली थी. जब मेरा भाषण खत्म हुआ तो मैंने देखा सिंधिया की आंखों में मेरे लिए आग बरस रही थी. मुझसे गलती तो हो गई थी. मेरे बाद उनका भाषण किसी तरह हुआ. उनके द्वारा मुझे खारिज कर देने का वह एक और बड़ा कारण हो गया. उसके बाद उनकी तीखी निगाह मुझ पर जीवन भर अनुकूल नहीं हो पाई. ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी जो कुछ कांग्रेस के साथ किया है, अपनी खानदानी परंपरा का पालन ही तो किया है.

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