Home गेस्ट ब्लॉग कार्ल मार्क्स (1857) : भारत से आने वाले समाचार

कार्ल मार्क्स (1857) : भारत से आने वाले समाचार

8 second read
0
0
632

[भाजपा की केन्द्र सरकार एक ओर जहां इतिहास बदलने की लगातार प्रयास कर रही है, ऐसे में इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में दुनिया के महान दार्शनिक कार्ल-मार्क्स भारत के इतिहास पर एक गहरी निगाह डाले हैं, जिसे हम अपने पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे उन्होंने अलग-अलग समय में लिखा है.]

कार्ल मार्क्स (1857) : भारतीय विद्रोह

भारत से आने वाली पिछली डाक, जिसमें दिल्ली की 17 जून तक की और बंबई की 1 जुलाई तक की खबरें मौजूद हैं, भविष्य के संबंध में अत्यंत निराशापूर्ण चिंताएं उत्पन्न करती हैं। नियंत्रण बोर्ड (बोर्ड ऑफ कंट्रोल) के अध्यक्ष, मि. वर्नन स्मिथ ने जब भारतीय विद्रोह की पहले-पहल कॉमन्स सभा को सूचना दी थी, तो उन्होंने विश्वासपूर्वक कहा था कि अगली डाक यह खबर लेती आएगी कि दिल्ली को जमींदोज कर दिया गया है. डाक आई, लेकिन दिल्ली को अभी तक ‘इतिहास के पृष्ठों से साफ’ नहीं किया जा सका है. उस वक्त कहा गया था कि तोपखाने की गाड़ी 9 जून से पहले नहीं लाई जा सकेगी और इसलिए शहर पर, जिसकी किस्मत का फैसला हो चुका है, उस तारीख तक के लिए हमला रुक जाएगा. पर 9 जून भी बिना किसी उल्लेखनीय घटना के ही गुजर गया. 12 और 15 जून को कुछ घटनाएं हुईं, लेकिन उलटी ही दिशा में दिल्ली पर अंगरेजों का धावा नहीं हुआ, बल्कि अंगरेजों के ऊपर विप्लवकारियों ने हमला बोल दिया. लेकिन उनके बारंबार होने वाले इन हमलों को रोक दिया गया है. इस तरह दिल्ली का पतन फिर स्थगित हो गया है. इसका तथाकथित एकमात्र कारण अब घेरे के लिए तोपखाने की कमी नहीं है, बल्कि उसका कारण जनरल बरनार्ड का यह फैसला है कि और फौजों के आने का इंतजार किया जाए; क्योंकि उस प्राचीन राजधानी पर कब्जा करने के लिए, जिसकी 30 हजार देशी सिपाही हिफाजत कर रहे हैं और जिसके अंदर फौजी सामानों के तमाम गोदाम मौजूद हैं, 3 हजार सैनिकों की फौजी शक्ति एकदम नाकाफी थी. विद्रोहियों ने अजमेरी गेट के बाहर भी एक छावनी कायम कर ली थी. अभी तक फौजी विषयों के तमाम लेखक इस बारे में एकमत थे कि 3 हजार सैनिकों की अंगरेजी फौज 30 या 40 हजार सैनिकों की देशी सेनाको कुचलने के लिए बिलकुल काफी थी. और अगर बात ऐसी नहीं होती, तो लंदन टाइम्स के शब्दों में, इंगलैंड भारत को ‘फिर से फतह करने’ में समर्थ कैसे हो सकेगा ? भारत की सेना में वास्तव में 30 हजार ब्रिटिश सैनिक हैं. अगले छह महीनों में अंगरेज इंगलैंड से जो सैनिक वहां भेज सकते हैं, उनकी संख्या 20 या 25 हजार सैनिकों से अधिक नहीं हो सकती. इसमें से 6 हजार सैनिक ऐसे होंगे जो भारत में यूरोपियनों की खाली हुई जगहों पर काम करेंगे. बाकी बचे 18 या 19 हजार सैनिकों की शक्ति भी कठिन यात्रा की हानियों, प्रतिकूल जलवायु के नुकसानों और अन्य दुर्घटनाओं के कारण कम होकर लगभग 14 हजार सैनिकों की हो जाएगी. वे ही युध्द के मैदान में उतर सकेंगे. ब्रिटिश सेना को फैसला करना होगा कि या तो वह अपेक्षाकृत इतनी कम संख्या के साथ बागियों का सामना करे, या फिर उनका सामना करने का खयाल एकदम छोड़ दे. हम अभी तक इस चीज को नहीं समझ पा रहे हैं कि दिल्ली के इर्द-गिर्द फौजों को जमा करने के काम में वे इतनी ढिलाई क्यों दिखा रहे हैं ? अगर इस मौसम में भी गर्मी एक अविजेय बाधा प्रतीत होती है, जो सर चार्ल्स नेपियर के दिनों में सिध्द नहीं हुई थी, तो कुछ महीनों बाद, यूरोपियन फौजों के आने पर, कुछ न करने के लिए बारिश और भी अच्छा बहाना उपस्थित कर देगी. इस चीज को कभी नहीं भुलाया जाना चाहिए कि वर्तमान बगावत दरअसल जनवरी के महीने में ही शुरू हो गई थी; और, इस तरह, अपने गोला-बारूद और अपनी फौजों को तैयार रखने के लिए ब्रिटिश सरकार को काफी पहले से चेतावनी मिल चुकी थी.

अंगरेजी फौजों की घेरेबंदी के बाद भी दिल्ली पर देशी सिपाहियों का इतने दिनों तक कब्जा बने रहने का निस्संदेह स्वाभाविक असर हुआ है. बगावत कलकत्ते के एकदम दरवाजे तक पहुंच गई है, बंगाल की 50 रेजीमेंटों का अस्तित्व मिट गया है, स्वयं बंगाल की सेना अतीत की एक कहानी मात्र रह गई है, और एक विशाल क्षेत्र में विप्लवकारियों ने इधर-उधर बिखरे और अलग-थलग जगहों में फंस गए यूरोपियनों की या तो हत्या कर दी है या वे एकदम हताश होकर अपनी हिफाजत करने की कोशिश कर रहे हैं. इस बात का पता लग जाने के बाद कि सरकार के आसन पर अचानक हमला करने का एक षडयंत्र रच लिया गया था जो, कहा जाता है कि, पूरे ब्योरे के साथ मुकम्मिल था, स्वयं कलकत्ते के ईसाई बाशिंदों ने एक स्वयंसेक रक्षा-दल तैयार कर लिया है और वहां की देशी फौजों को तोड़ दिया गया है. बनारस में एक देशी रेजीमेंट से हथियार छीनने की कोशिश का सिखों के एक दल और 13वीं अनियमित घुड़सवार सेना ने विरोध किया है. यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे यह मालूम होता है कि मुसलमानों की ही तरह सिख भी ब्राह्मणों के साथ मिलकर आम मोर्चा बना रहे हैं; और, इस तरह, ब्रिटिश शासन के विरुध्द समस्त भिन्न-भिन्न जातियों की व्यापक एकता तेजी से कायम हो रही है. अंगरेजों का यह दृढ़ विश्वास रहा है कि देशी सिपाहियों की सेना ही भारत में उनकी सारी शक्ति का आधार है.

अब, यकायक, उन्हें पक्का यकीन हो गया है कि ठीक वही सेना उनके लिए खतरे का एकमात्र कारण बन गई है. भारत के संबंध में हुई पिछली बहसों के दौरान भी, नियंत्रण बोर्ड (बोर्ड ऑफ कंट्रोल) के अध्यक्ष मि. वर्नन स्मिथ ने एलान किया था कि ‘इस तथ्य पर कभी भी जरूरत से ज्यादा जोर नहीं दिया जा सकता कि देशी रजवाड़ों और विद्रोह के बीच किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं है.’ दो दिन बाद, वर्नन स्मिथ को एक समाचार प्रकाशित करना पड़ा जिसमें अशुभ सूचक यह परिच्छेद है :

14 जून को अवध के भूतपूर्व बादशाह को, जिनके बारे में पकड़े गए कागजों से पता चला था कि वह षडयंत्र में शामिल थे, फोर्ट विलियम के अंदर कैद कर दिया गया था और उनके अनुयायियों से हथियार छीन लिए गए थे. धीरे-धीरे और भी ऐसे तथ्य सामने आएंगे जो स्वयं जौन बुल तक को इस बात का विश्वास दिला देंगे कि जिसे वह एक फौजी बंगावत समझता है, वह वास्तव में, एक राष्ट्रीय विद्रोह है.

अंगरेजी अखबार इस विश्वास से बहुत सांत्वना पाते प्रतीत होते हैं कि विद्रोह अभी तक बंगाल प्रेसिडेंसी की सीमाओं से आगे नहीं फैला है और बंबई और मद्रास की फौजों की वफादारी के संबंध में रत्ती भर भी संदेह करने की गुंजाइश नहीं है. लेकिन सुखद विचार के इस पहलू को निजाम की घुड़सवार सेना में औरंगाबाद में शुरू हुई बंगावत के संबंध में पिछली डाक से आई खबर बुरी तरह काटती प्रतीत होती है. औरंगाबाद बंबई प्रेसिडेंसी के इसी नाम के एक जिले की राजधानी है. स्पष्ट है कि पिछली डाक ने बंबई की सेना में भी विद्रोह के श्रीगणेश का एलान कर दिया है. वास्तव में, कहा तो यह जाता है कि औरंगाबाद की बंगावत को जनरल वुडबर्न ने फौरन कुचल दिया है, लेकिन, क्या मेरठ की बंगावत को भी फौरन कुचल दिए जाने की बात नहीं कही गई थी ? सर एच. लॉरेंस द्वारा कुचल दिए जाने के बाद, लखनऊ की बगावत भी क्या पखवाड़े भर बाद पुन: और भी अदम्य रूप में नहीं फूट पड़ी थी ? क्या यह याद नहीं है कि भारतीय फौज की बंगावत के संबंध में दी गई पहली सूचना के साथ ही साथ इस बात की भी सूचना नहीं दी गई थी कि शांति स्थापित कर दी गई है ? बंबई या मद्रास की सेनाओं का अधिकांश यद्यपि नीची जाति के लोगों का बना है, लेकिन प्रत्येक रेजीमेंट में अब भी कुछ सौ राजपूत मिल जाएंगे. बंगाल की सेना के उच्च वर्ण के विद्रोहियों के साथ संपर्क स्थापित करने के लिए यह संख्या पर्याप्त है. पंजाब को शांत घोषित किया गया है, लेकिन इसी के साथ हमें सूचित किया गया है कि ‘फिरोजपुर में, 13 जून को, फौजी फांसियां हुई थीं’ ! और, इसी के साथ बाघन की सेनापंजाब की 5वीं पैदल सेना की ’55वीं देशी पैदल सेना का पीछा करने में सराहनीय कार्य करने’ के लिए प्रशांसा की गई है. कहना पड़ेगा कि यह बहुत ही विचित्र प्रकार की ‘शांति’ है !

[14 अगस्त 1857 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, अंक 5091, में प्रकाशित हुआ]

Read Also –

कार्ल मार्क्स (1857) : भारतीय विद्रोह
कार्ल मार्क्स (1857) : भारत में विद्रोह
कार्ल मार्क्स (1857) : भारतीय सेना में विद्रोह
कार्ल मार्क्स (1853) : भारत में ब्रिटिश शासन
कार्ल मार्क्स (1853) : भारत में ब्रिटिश शासन के भावी परिणाम
कार्ल मार्क्स (1853) : ईस्ट इंडिया कंपनी, उसका इतिहास और परिणाम
मार्क्स की 200वीं जयंती के अवसर पर

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिय…