राम अयोध्या सिंह
आषाढ़ का दूसरा पखवाड़ा आते ही सावन की चर्चा शुरू हो जाती है, जिसमें चर्चा का सबसे प्रमुख विषय होता है मांसाहारी भोजन का. आषाढ़ के अंतिम पखवाड़े में मांस खाने वाले हिन्दू मांस का भक्षण करने को अपनी पहली प्राथमिकता यह कहते हुए देते हैं कि जल्द ही सावन आने वाला है, इसलिए अधिक से अधिक मीट, मछली और मुर्गे का सेवन कर लेना चाहिए, अन्यथा एक महीने तक यह सब कुछ बंद हो जायेगा. घर की औरतें तो किसी भी हाल में मांसाहारी भोजन बनाने के लिए तैयार नहीं होंगी.
इसके साथ ही कांवड़ यात्रा की तैयारी भी शुरू हो जाती है. गांव से लेकर छोटे शहरों के अनपढ़, अपढ़, मूर्ख, आवारा, लंपट, छोटे दुकानदार और सालोंभर आवारागर्दी करने वाले शोहदे कांवड़ यात्रा के लिए प्राणपण से जुट जाते हैं. यात्रा के लिए ड्रेस, कांवड़, पैसे और सवारी के इंतजाम में सभी जुट जाते हैं. अलग-अलग लोगों के दल बन जाते हैं.
सालभर जुटाये गये पैसों की गिनती की जाती है. आन-जाने, राह में ठहरने, खाने-पीने तथा सवारी के खर्चे का हिसाब-किताब किया जाता है. पैसे कम पड़ने पर कर्ज लेने से भी नहीं चुकते. बोल बम के लिए कुछ भी कर सकते हैं. कौन रोज-रोज कांवड़ यात्रा करनी है. सौभाग्य से तो साल में सिर्फ सावन के सोमवारी में ऐसा अवसर आता है, जब भोले बाबा के दर्शन का सौभाग्य मिलता है. यात्रा शुरू होने के पहले भांग, गांजा, दारू या अन्य नशीली वस्तुओं का पर्याप्त जोगाड़ होता है, क्योंकि इनके बिना यात्रा का मजा ही किरकिरा हो जाता है.
मैंने आजतक शायद ही किसी ब्राह्मण को कांवड़ यात्रा में जाते हुए देखा है. सवर्णों में मूर्ख राजपूतों की संख्या सबसे अधिक होती है. इसके अलावा अन्य पिछड़ी जातियों और दलित जाति के नवजवान भी इस यात्रा में भाग लेना अपना अहोभाग्य समझते हैं. सारी तैयारी के बाद वे एक अलग दुनिया के प्राणी हो जाते हैं. पूरी दुनिया से अलग अपने दल तक सीमित और अपने आप में खोये-खोये ये महानुभाव हिन्दू धर्म के रक्षक और अलमबरदार समझने लगते हैं.
गांजे के नशे के साथ वे स्वयं को सबसे पवित्र, सबसे धार्मिक, सबसे सदाचारी और ब्रह्मचारी समझने लगते हैं. श्रेष्ठता का यह भाव उनके चेहरे और हावभाव से ही पता चल जाता है. बोल बम के नारे के साथ जब वे अपनी गाड़ी में सवार होने लगते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे अगर ये न होते तो भारत धर्म विहीन हो जाता. उनकी नजरों में हिन्दू धर्म उनके ही सबल कंधों पर टिका है. वे न होते तो हिन्दू धर्म न जाने कब का खत्म हो गया होता.
गाड़ी के चलने से पहले कांवड़ दल का हर सदस्य गांजे का दम लगाता है. गांजे का यह दौर तबतक चलता है, जबतक कि उनकी आंखें लाल नहीं हो जातीं. इसके बाद दल का नेता ड्राइवर को कहता है कि ‘चल साला गाड़ी बढ़ाव, भोला बाबा के दरबार में हाजिरी लगावे के बा. एकदम ठीक समय पर पहुंचे के बा. सबसे पहिले बाबा पर जल ढारे के बा.’ ड्राइवर भी बोल बम का नारा लगाकर स्टियरिंग संभालते हुए गाड़ी स्टार्ट कर देता है. इसके बाद तो पूरे यात्रा के दौरान ‘बोल बम का नारा है, बाबा एक सहारा है’ का नारा लगता रहता है.
इस दल में एक ऐसा व्यक्ति जरूर होता है, जो इसके पहले भी बाबा धाम की यात्रा कर चुका होता है. अब वह गाइड बनकर निर्देश करता रहता है. उसे उन सारी जगहों का पता होता है, जहां ठहरना और रात्रि विश्राम करना होता है. जब भी उनकी आवाज कमजोर पड़ने लगती है, गाड़ी रूकती है, और दल के सभी सदस्य चाय-नास्ता करके बाबा का नाम लेकर गांजे का दम लगाते हैं, और फिर पूरे उत्साह के साथ नारा लगाने लगते हैं ‘बोल बम का नारा है, बाबा एक सहारा है.’
कांवड़ यात्रा में शामिल दल के सदस्यों को अगर गौर से देखा जाये, तो वे स्वभाव से ही उदंड, लंपट, आवारा, मूर्ख, अशिक्षित और असामाजिक लगते हैं. उनके सामने पड़ने वाले लोगों पर तो शामत ही आ जाती है. कांवड़िये अपने आगे किसी को कुछ भी नहीं समझते. उन्हें लगता है कि एक सप्ताह के लिए दुनिया उनकी मुट्ठी में है. पैदल चलने वाले कांवरिये तो आफत के परकाला होते हैं. झुंड के झुंड कांवरिये एक साथ एक दिशा में एकाएक मुड़ जाते हैं. उन्हें इसका भी भान नहीं होता है कि उनके ऐसा करने से लोगों को कितनी असुविधा होती हैं. उस समय तो वे अपने को सांड समझते हैं और लोगों की समझ में यह बात आनी चाहिए कि वे सांडों से बचकर चले, नहीं तो कभी भी खतरा हो सकता है.
अब तो इन कांवरियों में सबसे अधिक संख्या पिछड़ों और दलितों की होती है. वे शायद यह मानकर चलते हैं कि बाबा के आशीर्वाद से उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी हो जायेंगी. पूरे रास्ते इनके पागलपन का नजारा देखने को मिलता है. सचमुच ही शिव की बारात का नजारा होता है. रास्ते भर ‘बोल बम’ की हुंकार भरने वाले कांवरिये विश्राम स्थल पर ठीक इसके उल्टा हो जाते हैं, और उनके मुंह से गाली की धारा फूटने लगती है.
धर्म का ऐसा भौंड़ा प्रदर्शन और किसी भी देश में देखने को नहीं मिलता है. देश में, खासकर गोबर पट्टी में, आज की भाजपा सरकार और संघी कार्यकर्ता इन जाहिल कांवरियों की सेवा और सत्कार में जुटे रहते हैं. सरकारी संरक्षण के कारण ये कांवरिये और भी सनकी और उदंड हो गये हैं. उन्हें लगता है कि वे सरकारी मेहमान हैं, इसलिए वे कुछ भी कर सकते हैं, उन्हें रोकने-टोकने वाला कोई भी नहीं है.
जब सरकार इन मूर्ख कांवरियों पर हेलिकॉप्टर से पूष्पवर्षा करती है, तो वास्तव में वह कांवरियों को कुछ भी गलत करने का लाइसेंस दे रहे होते हैं. इतना सम्मान स्कूल जाते बच्चों का नहीं होता. उनके लिए तो किताबों का भी इंतजाम ठीक से नहीं होता. बेरोजगार नवजवानों को लाठी से पीटा जाता है, पर आवारा कांवरियों को राजकीय सम्मान दिया जाता है. सरकार की इस प्राथमिकता से उसके चरित्र, चेहरे और जनता के प्रति दायित्व बोध का पता चलता है.
कांवरिये सच कहा जाये तो करणी सेना, दुर्गा वाहिनी, बजरंग दल, हिन्दू युवा वाहिनी, विश्व हिन्दू परिषद और श्रीराम सेना की तरह सरकारी गुंडों की बटालियन है, जो सरकार के इशारे पर सांप्रदायिक नफरत फैलाने और दंगे करना अपना पवित्र धर्म समझते हैं. रामनवमी, दुर्गापूजा, हनुमान जयंती, जगन्नाथ जी की यात्रा और शिव बारात की तरह कांवरिया यात्रा भी भाजपाई सरकार के लिए सांप्रदायिक घृणा फैलाने का सुनहला अवसर प्रदान करतीं हैं, और गोबर पट्टी के भाजपाई इसका भरपूर फायदा उठाते हैं. यह आज के भारत की दुर्दशा की सच्ची कहानी है.
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