कन्हैया कुमार के जरिये सामाजिक न्याय की कलई खुलेगी, ऐसा सोचा नहीं था. सबको लगा था कि बेगूसराय की सीट तो सीपीआई को अपने आप बिना मांगे मिल जायेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसे ले कर पिछले कुछ दिनों से मचे घमासान को देख-पढ़ रहा हूं और एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचने को मजबूर हुआ हूं.
हिंदी पट्टी में मण्डल की आंधी में जो भी कमजोर पत्ते थे, वे टूटकर वाम आंदोलन से बहकर लालू-मुलायम के बवंडर में बह गए. सीपीआई-सीपीएम का तो बिहार और उत्तर प्रदेश में जिला इकाई ही करीब-करीब शामिल हो गई. माले के जनसंगठन आईपीएफ से भी 3-4 नए-नए विधायक लालू के भक्त बन गए.
यह दौर पिछड़ा दलित नेतृत्व के नाम से जाना गया, और वाम दल ने यूनिवर्सिटी के छात्रों, अध्यापकों तक खुद को सीमित कर लिया. बिहार के धधकते खेत-खलिहानों की दास्तान लिखने वाले भी अवैध जमीन पर कब्जा कर गरीबों में वितरित करने से लेकर वर्ग-संघर्ष को उत्तरोत्तर तेज करने के लिए जिस संसदीय राह के जरिये इस व्यवस्था की सीमाओं को उजागर करने का बीड़ा उठाये थे, वहां भी धीरे-धीरे जमीन के संघर्ष के मातहत संसदीय संघर्षों को रखने की बात जुबान पर तो थी, लेकिन अंदर ही अंदर यह दरक रहा था. लेकिन मोदी है तो मुमकिन है.
यह बात बेहद महत्वपूर्ण है. पिछले पांच वर्षों में जिस तरह आबादी के हर हिस्से को प्रताड़ित करने, खासकर अल्पसंख्यक और दलित समुदाय के साथ यह जोर पकड़ा उसके साथ ही बुद्धिजीवियों धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों पर हमले ने देश के इस हिस्से को भी बुरी तरह प्रभावित किया और सोचने पर मजबूर किया. जल्द ही उनकी कल्पना के भारत की तस्वीर जो बदरंग तो हो ही रही थी, उसके तत्काल अंत की घंटी बज गई है. या तो चुप रहो और जैसा भगवा गिरोह आपको कहे नारे लगाओ या देश छोड़ जहां आजादी के जीने और अपनी बात कहने की स्वतंत्रता मिलती है उन पश्चिमी देशों में चले जाओ.
लेकिन जाएं तो जाएं कहां ? अमेरिका, फ्रांस, ग्रीस सब तो इसी अंधराष्ट्रवादी आंधी में धीरे-धीरे आ रहे हैं. जीना है तो लड़ना तो पड़ेगा ही, तो फिर अपनी मातृभूमि के लिए क्यों नहीं ?
अब चलिए आते हैं वर्तमान हलचल पर फिर से. जिस तेजस्वी यादव ने अपनी बहन तक को स्टार प्रचारक नहीं घोषित किया, उससे उम्मीद की थी कि वह कन्हैया जैसे लोकप्रिय युवा नेता को अपने ही समर्थन ने सांसद बना दे ? जिस युवा नेता को अगर मोदी जी के साथ आधा घंटा डिबेट में खड़ा कर दिया जाय तो मोदी जी के आधे भक्त उसी समय नष्ट हो जाएं, यह खतरा पुश्तैनी लालू यादव की बिहार की राजनीति के लिए कितना बड़ा खतरा हो सकता है, यह सिर्फ तेजस्वी और उनके पिता को ही अच्छे से पता है. एक अधूरे कर्मयोगी नीतीश कुमार से बिहार पिछले 15 साल से बेहाल है. कन्हैया के जरिये गलती से भी कम्युनिस्ट का भूत बिहार में खड़ा हो गया तो फिर सारी पुश्तें बर्बाद हो जाएंगी.
यह बात वामपंथी नेताओं को कब पता चलेंगी ? विचारधारात्मक संघर्ष और जमीनी संघर्ष के साथ देश में वैकल्पिक मॉडल खड़ा करने का प्राथमिक कार्य ये लोग दोबारा फिर किस साल से शुरू करेंगे ?
- रविन्द्र पटवाल, सामाजिक कार्यकर्त्ता
Read Also –
मुख्यधारा के नाम पर संघ के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का पर्दाफाश करने की जरूरत है]
हमारी पार्टियों के लिए बेरोज़गारी कोई मुद्दा है ?
लकड़बग्घे की अन्तर्रात्मा !
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]