लॉकडाउन के कारण हुए नुक़सान की भरपाई के लिए पश्चिमी देशों की सरकारों ने करोड़ों-अरबों डॉलर के राहत पैकेज (मुख्य रूप से कंपनियों और अन्य व्यापारों को) जारी किए. ऊपर से केंद्रीय बैंकों ने इस उम्मीद में ब्याज़ दरों को कम रखा कि लोग सस्ता क़र्ज़ लेकर कुछ ख़रीदारी करें, कुछ व्यापार करें ताकि लॉकडाउन के कारण पटरी से उतरी गाड़ी फिर से पटरी पर आ सके. ये क़दम कितने कारगर रहे, यह तो अलग विषय है, लेकिन अब शासकों की चिंता यह बन गई है कि उपरोक्त दो क़दमों से – राहत पैकेजों और सस्ते क़र्ज़ों से – महंगाई बढ़नी शुरू हो गई है.
ऊपर से इन बड़े देशों में लॉकडाउन के बाद अब अर्थव्यवस्था पटरी पर आने लगी है, जिसके चलते कच्चे माल की मांग में तेज़ी से वृद्धि होगी, इसके कारण यह शंका ज़ाहिर की जा रही है कि आने वाले महीनों में महंगाई और बढ़ेगी. यदि ऐसा होता है तो इसका सीधा असर भारत जैसे देशों पर भी पड़ेगा जो कई कि़स्म के कच्चे माल के लिए मुख्य रूप से आयात पर निर्भर हैं.
भारत में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के मुताबिक़ मार्च में महंगाई दर 5.52 प्रतिशत थी, जो कि फ़रवरी में 5.03 प्रतिशत और जनवरी में 4.03 प्रतिशत थी. लॉकडाउन खुलने से, यातायात और मालों की पूर्ति सामान्य होने से अप्रैल में यह कम होकर 4.29% हो गई लेकिन मई महीने में दोबारा लगे लॉकडाउन ने इस प्रक्रिया को बाधित किया. दूसरी ओर थोक मूल्य सूचकांक मार्च 2020 के मुक़ाबले मार्च 2021 में 7.39 प्रतिशत थी. ऐसी वृद्धि भारत में आठ सालों बाद देखी गई है. यह वृद्धि मुख्य रूप से तेल और यातायात के ख़र्चे बढ़ने और कुछ खाने-पीने की वस्तुओं की क़ीमतें बढ़ने के चलते हुई है.
अमरीका जैसे देशों में तो अर्थव्यवस्था के फिर से गति पकड़ने के चलते, केंद्रीय बैंक की नीतियों के चलते महंगाई में वृद्धि होना समझ में आता है (भले ही यह भी जनविरोधी क़दम है) लेकिन भारत में ऐसा क्यों हो रहा है ?
भारत की अर्थव्यवस्था पिछले साल -32 प्रतिशत तक गिर पड़ी थी और अभी भी उस तरह की गति में नहीं आई. करोड़ों लोग अभी भी बेरोज़गार बैठे हैं, कारख़ाने पहले के मुक़ाबले बहुत कम चल रहे हैं, मार्च महीने में कारख़ाना गतिविधि 7 महीनों के सबसे निचले स्तर पर आ गई है. मई महीने की सीएमआई रिपोर्ट के मुताबिक़ 1.3 करोड़ नौकरियां ख़त्म हो चुकी हैं. अब नई पाबंदियों के मद्देनज़र इस साल भी अर्थव्यवस्था के तेज़ गति पकड़ने की संभावना कम है. दूसरी ओर अनाज की भी किल्लत नहीं है. लाखों टन अनाज गोदामों में जमा पड़ा है. इसलिए ऐसा तो बिल्कुल नहीं है कि अनाज की या किसी चीज़ की कमी हो या लोगों की मांग बढ़ने के कारण महंगाई बढ़ रही हो.
तो फिर महंगाई का क्या कारण है ?
यदि अर्थव्यवस्था में मांग का दबाव ना हो तो महंगाई का स्रोत जिंसों की लागतों में वृद्धि ही हो सकता है और यह हुआ भी है और इसलिए प्रत्यक्ष रूप से मोदी सरकार ज़िम्मेदार है. महंगाई में मौजूदा वृद्धि के पीछे तेल की क़ीमतों में वृद्धि प्रमुख है. आज से पहले सरकार ने यह नीति अपनाई कि जब विश्व स्तर पर तेल की क़ीमतें घटतीं तो उसका लाभ ग्राहकों को ना देना और क़ीमतों को उसी स्तर पर क़ायम रखना. लेकिन जब विश्व स्तर पर तेल की क़ीमतें बढ़तीं तो उसका सारा बोझ जनता पर क़ीमतें बढ़ाकर डाल देना. अब मोदी सरकार एक क़दम और आगे बढ़ गई है. इसने अब तक ऐसे वक़्त में तेल की क़ीमतें बढ़ा रखी थीं, जब विश्व स्तर पर क़ीमतें बहुत नीचे थीं.
भारत में सिर्फ़ ‘तेल और ऊर्जा’ उत्पादों की थोक क़ीमत में पिछले साल के मुक़ाबले 10.25 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है, जिसमें एलपीजी 10.30 प्रतिशत और पेट्रोल क़ीमतें 18.48 प्रतिशत बढ़ चुकी हैं. तेल और इसके उत्पाद सर्वव्यापी बिचौलिए माने जाते हैं, यानी वे वस्तुएं जो हर जिंस की क़ीमत में शामिल हो जाती हैं, इसलिए इनके कारण अन्य जिंसों की क़ीमतें भी ऊपर गई हैं, भले ही वे किराए हैं या माल ढुलाई के ख़र्चे.
अब जबकि पिछले कुछ हफ़्तों से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत बढ़ रही है तो स्वाभाविक है कि भारत में भी तेल क़ीमतें बढ़ा दी गई हैं और यह कुछ शहरों में 100 के पार हो गया है ! कम से कम अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमतों में आने वाले महीनों में वृद्धि की ही संभावना जताई जा रही है.
बढ़ रही महंगाई का दूसरा कारण यह है कि मोदी सरकार ने ग़रीबों को दी जाने वाली थोड़ी-बहुत सब्सिडी भी छीन ली है. आज से पांच साल पहले स्त्री वोटरों को लुभाने के इरादे से पूरे ज़ोर-शोर से एलपीजी गैस पर सब्सिडी का ऐलान किया गया था लेकिन पिछले एक साल के अंदर ही इस सब्सिडी के लिए आरक्षित रक़म को आधा कर दिया गया. इसका सीधा असर रसोई गैस सिलेंडरों की क़ीमत में रिकॉर्ड तोड़ वृद्धि में हुआ है.
आज बहुत सारे शहरों में एक सिलेंडर की क़ीमत एक-तिहाई बढ़कर 800 रुपए के पार जा चुकी है. इसने भारत के बहुत सारे ग़रीब परिवारों को दूसरे ख़र्चे घटाने पर मजबूर किया है और या फिर कितने ही, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र के परिवारों को पुराने चूल्हों की ओर मोड़ दिया है. 2015 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ घरों में होने वाला प्रदुषण भारत में सालाना 10 लाख लोगों की सांस की बीमारियों से जान ले लेता है. क्या मोदी सरकार सब्सिडी ख़त्म करने से लोगों की सेहत के होने वाले इस नुक़सान की ज़िम्मेदारी क़ुबूल करेगी ?
महंगाई के इस तरह बढ़ने का असर क्या होगा?
इसका पहला असर तो यह है कि महंगाई बढ़ने से पहले ही लॉकडाउन की मार झेल रहे आम लोगों की जेबों पर और डाका पड़ेगा और इसका असर अर्थव्यवस्था में भी गिरती मांग में नज़र आएगा, जिससे लॉकडाउन बर्बादी के बाद अर्थव्यवस्था की बहाली और दूर होगी.
अमरीकी संस्था पिऊ शोध संस्थान की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में अत्यंत ग़रीबी में रहने वाले (रोज़ाना 150 रुपए से कम कमाने वाले) लोगों की संख्या केवल 2020 के दौरान 6 करोड़ से बढ़कर 13.5 करोड़ तक पहुंच चुकी है.
सीएमआई की रिपोर्ट के मुताबिक़ अर्थव्यवस्था साल 2020-21 में 7.3% गिर गई और 1.3 करोड़ लोग बेरोज़गार हुए. इस बेरोज़गारी की ख़ास बात यह थी कि इसमें दफ़्तरों में काम करने वाले कर्मचारी तबक़े की भी बड़ी संख्या में छंटनी हुई. 97% परिवारों ने अपनी आमदनी में एक साल में गिरावट होने की बात क़ुबूल की. ऐसे में इस तबक़े के ऊपर महंगाई के असर की हम कल्पना कर सकते हैं.
इस समय महंगाई कच्चे तेल, रसोई गैस जैसी वस्तुओं पर अधिक है. इनमें से कच्चे तेल की अपनी ज़रूरतों के लिए भारत अंतरराष्ट्रीय बाज़ार पर निर्भर है इसीलिए अगर वहां क़ीमत बढ़ती है तो उसका असर भारत में भी दिखेगा लेकिन जिस सरकार ने इतने सालों से कच्चे तेल की क़ीमत अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कम होने पर भी इस पर लगने वाला टैक्स और चुंगी कम नहीं की, इसके ज़रिए अपनी आमदनी बढ़ाई, तो आज यह सरकार की जि़म्मेदारी है कि वह इस बढ़ती क़ीमत के समय उस कमाई का एक हिस्सा टैक्स और चुंगी में रियायत देकर लोगों को राहत दे.
इस समय पेट्रोल, डीज़ल की जो क़ीमत है उसमें केंद्र और राज्य सरकार का चुंगी हिस्सा दो-तिहाई से भी अधिक है. यानी अगर पेट्रोल-डीज़ल की क़ीमत 100 है तो उस में सिर्फ़ चुंगी के रूप में 66 रुपए वसूले जा रहे हैं. तेल की क़ीमतों पर लगाया गया कर सरकार की आमदनी का अहम हिस्सा है, इसीलिए यह इस को छोड़ना नहीं चाहती. लेकिन अगर सरकार चाहे तो आम लोगों को इसमें राहत देकर और पूंजीपतियों पर टैक्स लगाकर अपनी आमदनी को बढ़ा सकती है, लेकिन फ़िलहाल सरकार का ऐसा करने का कोई इरादा नहीं दिख रहा.
उल्टे सरकार पूंजीपतियों को इस लॉकडाउन के समय में ही अरबों-खरबों की रियायत दे चुकी है लेकिन इतनी रियायत के बावजूद अभी अर्थव्यवस्था के उभरने के आसार नज़र नहीं आ रहे. सरकार का दावा है कि वह पूंजीपतियों को रियायत इसीलिए दे रही, ताकि वे अर्थव्यवस्था में निवेश करें जिससे नई पैदावार और रोज़गार सृजन हो लेकिन यह समझ ही पूरी तरह से ग़लत है.
आज यदि कारख़ाने या नया निवेश नहीं हो रहा तो उसका कारण यह है कि पहले वाले निवेश से अभी कोई लाभ नहीं आ रहा. कोई पूंजीपति तभी उपजाऊ निवेश करेगा, अगर उसे उसमें मुनाफ़़ा नज़र आएगा. लेकिन आज उपजाऊ निवेश करने में पूंजीपतियों को कोई मुनाफ़़ा ही नहीं, तो उसे चाहे सरकार से लाख रियायतें भी मिलें, वह निवेश नहीं करेगा, बल्कि वह सट्टेबाज़ी या शेयर बाज़ार जैसी ग़ैर-उपजाऊ गतिविधियों में पैसा लगा देगा, और यही आज हो रहा है. भारत के अरबपतियों की दौलत में हो रही वृद्धि भी उपजाऊ क्षेत्र के मुक़ाबले ग़ैर-उपजाऊ क्षेत्र में अधिक हो रही है.
बड़े पूंजीपतियों को रियायतें देने और आम लोगों पर बोझ डालने की सरकार की नीति का उल्टा असर होगा. जनता पर महंगाई का बोझ डालने से उनकी असल आमदनी गिर जाएगी, जिससे उनकी ख़रीदारी करने की क्षमता भी गिरेगी. इससे पहले से ही संकट की शिकार यह अर्थव्यवस्था और गहरी खाई में फंसेगी, क्योंकि जो कारख़ाने पहले से ही घाटे में चल रहे हैं, गिरती मांग के चलते उनकी पैदावार और घटेगी, छोटे कारख़ाने वालों का उजाड़ा होगा, अर्थव्यवस्था में कुछ इजारेदारों का क़ब्ज़ा और मज़बूत होगा.
फिर भी मोदी सरकार क्यों लोगों को कोई राहत नहीं दे रही ?
इसका सीधा-सरल-सा जवाब यही है कि एक तो यह पूंजीपतियों की सरकार है, इसलिए उनके ही हक़ में नीतियां बनाएगी. बड़ा पूंजीपति घराना अपने लिए कोई दौलत पर टैक्स, मुनाफ़़ों पर कोई टैक्स के बदौलत कोई जनहित योजनाओं पर ख़र्च किया जाना बर्दाशत नहीं कर सकता.
पिछले साल लॉकडाउन के चलते सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ गया था क्योंकि जीएसटी से होने वाली उसकी कमाई घट गई थी. राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए सरकार बड़े पूंजीपतियों पर भी उपरोक्त टैक्स लगा सकती है, लेकिन यह ऐसा नहीं करेगी बल्कि उस घाटे को पूरा करने के लिए यह जनता पर महंगाई के रूप में टैक्स लगा रही है.
दूसरा इस वक़्त मोदी सरकार को इस मुद्दे पर किसी बड़े मेहनतकश आंदोलन का सामना नहीं करना पड़ रहा। यदि ऐसा होता तो आंदोलन के दबाव के चलते सरकार तात्कालिक रूप से इस नीति को त्याग देती या यह भी हो सकता था कि जनता की माँग के आगे झुकते हुए उनके लिए कोई योजना बनाती। लेकिन इस वक़्त चूँकि ऐसा कुछ नहीं है, मोदी सरकार के आगे कोई चुनौती नहीं है, इस वजह से यह एकतरफ़ा तरीक़े से अरबपतियों के हक़ में खड़ी हुई है। आने वाले समय में इस आर्थिक संकट के चलते यदि राजनीतिक हालत बिगड़ते हैं, तो मोदी सरकार कच्चे तेल की क़ीमतों में टैक्स कटौती करने की सोच सकती है, जिस तरह अभी रसोई तेल की क़ीमतों पर आयात कर में कटौती करने की बात चल रही है। लेकिन यह कब होगा इसके बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता और जब होगा तब तक लोगों की जेब से बची-खुची आख़िरी कमाई भी जाती रहेगी!
- मानव
(मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 7, मई-जून (संयुक्तांक) 2021 में प्रकाशित)
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