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कालजयी अरविन्द : जिसने अंतिम सांस तक जनता की सेवा की

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[प्रस्तुत आलेख 22 अप्रैल, 2018 ई. को माओवादी नेता अरविन्द कुमार की शहादत के मौके पर उनके कुछ शुभचिन्तकों के द्वारा उनके गृह-जिला में जहानाबाद में एक जनसभा के आयोजन हेतु वितरित किये जा रहे एक पर्चे के आधार पर लिखी गई है, विदित हो कि बिहार-झारखण्ड में माओवादी आन्दोलन के सबसे बड़े नेता के रूप में अरविन्द को जाना जाता था, जिन पर शासकों ने तकरीबन एक करोड़ का ईनाम रखा था – जय राज, पत्रकार]

माओवादियों के सुरक्षा घेरे में अरविन्द कुमार

21 मार्च, 2018 के दोपहर मेें बिहार-झारखंड के क्रांतिकारी किसान आंदोलन के अन्यतम शिल्पकार, आदरणीय शिक्षक व अग्रिम पंक्ति में रहकर लड़ाई को नेतृत्व देने का जीवन भर उदाहरण प्रस्तुत करने वाले क्रांतिकारी वीर व जननायक कामरेड देव कुमार सिंह उर्फ अरविन्द कुमार उर्फ कामरेड निशांत का अचानक उठे हफनी की बीमारी से युद्ध क्षेत्र में ही सी-पी-आई- (माओवादी) के एक हेडक्वार्टर में देहांत हो गया. पिछले कुछ सालों से वेे कई तरह के पीड़ादायक रोगों से ग्रसित थे. डायबिटीज की वजह से उनकी एक आंख जाती रही थी परंतु भारतीय शासक वर्गों के सुरक्षा बलों द्वारा क्रांतिकारी आंदोलन के खिलाफ चलाये जा रहे अभूतपूर्व ‘‘घेरो व मार डालो’’ अभियान की वजह से क्षेत्र में ही उनका इलाज बहुत ही असंतोषजनक तरीके से हो पा रहा था. जीवन भर क्रांतिकारी चरित्र का निर्वाह करने वाले कामरेड निशांत ने दुश्मन के हाथों मारे जाने से बेहतर बीमारी से मर जाना समझा. उन्होेंने एक बार अपनी पत्नी से कहा था ‘‘मैं दुश्मन के हाथों नहीं मारा जाऊंगा, मेरी स्वाभाविक मौत होगी।’’

कामरेड अरविन्द उर्फ विकास जी उर्फ सुजीत जी उर्फ निशांत जी भारत के क्रांतिकारी आंदोलन में एक जाना-पहचाना नाम है. मृत्यु के वक्त वेे क्रांतिकारी पार्टी सी-पी-आई- (माओवादी) के केन्द्रीय कमिटी व केन्द्रीय सैन्य कमीशन के सदस्य थे. उनके जाने से भारत के क्रांतिकारी आंदोलन को एक गंभीर धक्का पहुंचा है, खासकर तब जब भारतीय राज्य (जिस पर भारत का दलाल बुर्जुआ व सामंती वर्ग काबिज है) क्रांतिकारी आंदोलन को कुचल डालने के लिये सभी लोकतांत्रिक मूल्यों/नीतियों को ताक पर रख क्रूरतम व धूर्त्ततापूर्ण दमन अभियान चला रहा है. कामरेड निशांत एक अद्भूत सैन्य संचालक थे, जिनकी उपस्थिति मात्र से ही कतारों में जोश व उत्साह भर जाता था, वो एक सहृदय अभिभावक थे, जिनसे छोटा से छोटा कैडर/सैनिक भी अपनत्व महसूस करता था व उनसे मन की बात बोलता था. वेे एक सजग सिद्धांतकार थे, जिसमें लड़ाईयों की गलतियों से सबक लेकर अगली लड़ाई के लिए कार्यनीति सूत्रबद्ध करने की साहस व क्षमता थी.

चार दशक का उनका क्रांतिकारी जीवन बिहार-झारखंड के क्रांतिकारी इतिहास का अनूठा अध्याय है. उनकी जीवन-यात्र को जानना ही इस प्रदेश के क्रांतिकारी आंदोलन के एक बड़े हिस्से को जानने जैसा है. 24 नवंबर, 1950 को जहानाबाद के सुकुलचक गांव में एक मध्यमवर्गीय किसान के घर उनका जन्म हुआ. उनके पिता सिंचाई विभाग में बड़ा बाबू थे. उनकी प्रारंभिक शिक्षा दयानन्द हाईस्कूल (मीठापुर, पटना) से हुई व उन्होंने फिर कॉलेज ऑफ कॉमर्स, पटना से रसायन शास्त्र में स्नातक किया. छात्र-जीवन से ही वेे राजनीति में सक्रिय हो गये थे. बिहार में 1967-68 के दौरान हुए व्यापक छात्र आंदोलन मेें उन्होंने सक्रिय भूमिका अदा की. उसके बाद जे-पी- आंदोलन में वेे अपने साथियों के साथ पटना व रोहतास समेत विभिन्न जिलों में सक्रिय रहे. पर जे.पी. आंदोलन के परिणाम ने उन्हें बेहद निराश किया. वेे व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्त्तन देखना चाहते थे, सत्ता परिवर्त्तन नहीं. जे.पी. के ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का खोखलापन जल्द ही सामने आ गया था, जब जनता पार्टी उन्हीं शासक वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हुए सत्ता में आयी.

सन् 1978 में जेल से छुटे कुछ कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों ने सी.पी.आई. (एम.एल.) (पार्टी युनिटी) का गठन किया। देश में सामाजिक-आर्थिक ढांचे में बुनियादी बदलाव की चाहत रखने वाले कामरेड देव कुमार 1979 में ही इससे जुड़ गये व जहानाबाद मसौढ़ी क्षेत्र में क्रांतिकारी किसान आंदोलन को संगठित करने लगे. 1981 में मजदूरों-किसानों का संगठन मजदूर किसान संग्राम समिति का गठन हुआ. वे इसकी राज्य कमिटी में चुने गये. 1984 में एम.के.एस.एस. के तत्कालीन महासचिव कामरेड कृष्णा सिंह की शहादत के उपरांत कामरेड अरविन्द को एम.के.एस.एस. का महासचिव निर्वाचित किया गया. 19 अप्रैल, 1986 में अरवल जनसंहार के बाद एम.के.एस.एस. के अध्यक्ष डॉ. विनयन विभिन्न कुतर्को का सहारा लेकर अपने कुछ समर्थक कार्यकर्त्ताओं के साथ एम.के.एस.एस. से अलग हो गये. तब एम.के.एस.एस. प्रतिबंधित भी हो चुकी थी. कामरेड अरविन्द के नेतृत्व में कामरेड विनयन के कुत्तर्को व गलत व्यवहार के खिलाफ तीखा वैचारिक संघर्ष चलाया गया व एम.के.एस.एस. के खत्म होने तक कामरेड अरविन्द इसके निर्विवाद नेता चुने जाते रहे.

1984 में कामरेड कृष्णा सिंह की शहादत के बाद वेे पार्टी यूनिटी के बिहार राज्य कमिटी के सचिव बनाये गये. 1987, 1992, 1997 में हुए राज्य सम्मेलनों में व 1997 में पी.यू. – पी.डब्ल्यू. के एकता के बाद सी.पी.आई. (एम.एल.) (पीपुल्सवार) के राज्य सम्मेलन में भी वेे निर्विवाद बिहार-झारखंड की राज्य इकाई के सचिव चुने गये. 1987 के पार्टी यूनिटी के केन्द्रीय सम्मेलन में वेे पार्टी के केन्द्रीय कमिटी में निर्वाचित हुए. फिर सी.पी.आई. (एम.एल.) (पीपुल्सवार) व 2004 में पी.डब्ल्यू., एम.सी.सी. विलय के बाद बने सी.पी.आई. (माओवादी) के केन्द्रीय कमिटियों में भी वेे निर्वाचित होते रहे. 2005 से वेे पार्टी के केन्द्रीय सैन्य कमीशन के भी सदस्य थे.

बिहार में सामंतवाद विरोधी किसान आंदोलन को शुरू से ही विभिन्न दबंग जातियों के निजी सेनाओं/गुंडावाहिनियों के हमलों का शिकार होना पड़ा. इन सेनाओं व उसके सक्रिय सहयोग में उतरे सरकारी सुरक्षाकर्मियों के खिलाफ लड़ते हुए ही बिहार का क्रांतिकारी किसान आंदोलन जवां हुआ. पी.यू. के नेतृत्व में चल रहे किसान आंदोलन को शुरू में ही भूमि सेना के हत्यारे हमलों का सामना करना पड़ा. भूमि सेना से चले इस संघर्ष को कामरेड अरविन्द ने सीधा रणभूमि में नेतृत्व प्रदान किया. इसके बाद लोरिक सेना, ब्रह्मर्षि सेना, कृषक सेवक समाज, सवर्ण लिबरेशन फ्रंट, किसान संघ, सनलाइट सेना, कुंवर सेना व रणवीर सेना से किसान आंदोलन को निबटना पड़ा. लगभग इन सभी लड़ाईयों को कामरेड निशांत ने सीधा नेतृत्व प्रदान किया. इसी वजह से वेे मगध क्षेत्र की जनता के नायक बन गये व जनता उन पर अगाध भरोसा करने लगी. सभी सेनाओं ने अंततः जनता के क्रांतिकारी तूफान के समक्ष आत्मसमर्पण किया.

2004 में सी.पी.आई. (माओवादी) ने तीन केन्द्रीय व तात्कालिक कार्यभार तय किये: 1- छापामार-क्षेत्र को आधार-क्षेत्र में बदल डालो 2- छापामार सेना को जनमुक्ति सेना में बदल डालो 3- छापामार युद्ध को चलायमान युद्ध में बदल डालो. कामरेड निशांत जी-जान से इन नारों को सफलीभूत करने के काम में लग गये. उनके नेतृत्व में दर्जनों बड़ी-छोटी सैन्य कार्रवाईयां की गयीं जिसने प्रतिरोध संघर्ष को एक नयी ऊंचाई छूने में सहयोग प्रदान किया. जहानाबाद जेल ब्रेक की कार्रवाई उनमें सबसे चर्चित घटना थी.

चार दशकों के अपने क्रांतिकारी जीवन में वेे तीन बार गिरफ्रतार किये गये व जेल में रहे (1981, 1990-93, 2003-05)। केन्द्र व बिहार-झारखंड व छत्तीसगढ़ की राज्य सरकारें कई वर्षों से उनकी हत्या कर देने हेतु सघन दमन अभियान चला रही थी. उन्हें पकड़ने के लिए उनके ऊपर एक करोड़ का ईनाम भी घोषित कर रखा था.

शासक वर्गों की सरकार द्वारा 2004 से ही क्रांतिकारी आंदोलन के खिलाफ गहन दमन अभियान व चौतरफा हमला शुरू हुआ. ऑपरेशन ग्रीन हंट की घोषणा के बाद ये और भी क्रूर व बर्बर हो गया. कई नेतृत्वकारी कामरेड शहीद हो गये या गिरफ्तार कर लिये गये. सदैव आशावान व क्रांतिकारी ऊर्जा से लबरेज रहने वाले कामरेड सुजीत/निशांत झारखंड के कोयल-शंख जोन में क्रांतिकारी आंदोलन को अपने प्रत्यक्ष नेतृत्व में आगे बढ़ाने का काम करने लगे. पिछले तीन-चार सालों से वेे काफी बीमार रहते थे, पर उन्होंने युद्ध भूमि को कभी नहीं छोड़ा व शहीद होने को ही वरीयता दी. उन्हें डायबिटीज था जिनसे उनकी एक आंख खराब हो गई थी व दूसरी आंख भी प्रभावित हो रही थी, ठंड से भीषण एलर्जी थी, घुटनों में दर्द रहता था, सांस फूलने की वर्षों पुरानी बीमारी और गहरा गई थी. रात में मुश्किल से कभी-कभार नींद आती थी. इन सब बीमारियों का इलाज भी आज की परिस्थिति में संभव नहीं था. पर इन सबसे उनकी क्रांतिकारी सक्रियता व जोश में कोई कमी नहीं आयी.

एक सजग नेता व आदरणीय शिक्षक अरविन्द कुमार को अधिकांश लोग उन्हें एक दक्ष सैन्य नेता के रूप में ही जानते हैं. पर यह एक आंशिक समझ है. क्रांतिकारी जीवन के शुरूआत से ही वेे वैचारिक-सैद्धांतिक मोर्चे पर भी काफी सक्रिय रहे. वेे लगातार आंदोलन की समीक्षा करते हुए सर्कुलर व लेख लिखते रहे हैं. कई सांगठनिक मामलों पर उन्होंने सर्कुलर लिखे। सन् 1988 में ही जब जहानाबाद का संघर्ष विश्वविख्यात था, उन्होंने आंदोलन में आ रही गतिरूद्धता को पहचान लिया था और तब पार्टी यूनिटी के राज्य पार्टी मुखपत्र ‘लाल निशान’ में एक लंबा लेख लिखा था, जिसमें भूमि सुधार के अलावे छोटे मध्यम किसानों के लिए कृषि विकास के मुद्दे को भी प्रमुखता से उठाने की बात कही गयी थी. यह सारगर्भित लेख आज पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक है.

मध्य बिहार में जब पार्टी के गांव कमिटियों के प्राधिकार को लागू करने के लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलूओं को नियमित करने का दायित्व आ पड़ा तब उन्होंने एक दस्तावेज लिखा (1994) जिसे तबकी स्टेट कमिटी ने पारित किया था. निजी सेनाओं से निबटने हेतु विभिन्न मौकों पर कार्यनीतियों को तय करने में उनकी अहम् भूमिका रही. 1987 में विनयन के पार्टी विरोधी दुष्प्रचार के खिलाफ उन्होंने मजबूती से सैद्धांतिक-वैचारिक लड़ाई लड़ा, फलस्वरूप विनयन गुट बेनकाब भी हुआ। 1987 में पार्टी यूूनिटी में छिड़े दो लाइन के संघर्ष में उन्होंने सही लाइन (पारित लाइन) के पक्ष में मजबूती से बिहार पार्टी को नेतृत्व प्रदान किया. 1997 में पी.यू. के अंदर दो लाइन के संघर्ष में उन्होंने अलग से ‘आलोचना दस्तावेज’ प्रस्तुत किया, जिसने पार्टी की समझ बढ़ाने व पी. डब्ल्यू. से एकता वार्त्ता को मजबूती प्रदान करने में काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया. वे न सिर्फ वर्ग-संघर्ष के व्यवहारिक क्षेत्र में बल्कि सैद्धांतिक-वैचारिक क्षेत्र में भी एक स्थापित, आदरणीय व अनुकरणीय नेता थे.

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3 Comments

  1. AP Bharati

    April 20, 2018 at 3:20 pm

  2. Sakal Thakur

    April 20, 2018 at 3:52 pm

    अच्छा परिचायक लेख धन्यवाद

    Reply

  3. Utpal Basu

    April 20, 2018 at 3:56 pm

    Excellent Post, Rohit. Lal Lal Lal Salam Comrade.

    Reply

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