इन्दरा राठौड़
रतन टाटा के निधन पर लगभग पूरी सोशल मीडिया शोक में डूब गया. यद्यपि उनके प्रति सम्मान न प्रकट किए जाएं, मैं ऐसा नहीं कहूंगा लेकिन क्या पूरी देश दुनिया में रतन टाटा ही जन्मना थे कि मौत न आती. मौतें तय है. आएंगी ही एक दिन. रतन टाटा को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया, वह अतिशय रूप है. उन्हें निम्न मध्य वर्ग का जैसा रोल माडल बताया जा रहा है, वह अतिशय है. शायद लोग भूल गए हैं कि सिंगूर, नंदीग्राम प्रोजेक्ट पर कितने जानें गईं. उड़ीसा, झारखंड सहित छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के विस्थापन के दर्द भी लोग जल्दी ही भूला गये.
टाटा समूह निश्चय ही औद्योगिक घरानों में एक बड़ी कोशिश है, जो भारत के विकास में और उत्थान में बड़े भागीदार की तरह दिखा. कर्मचारी भविष्य निधि का दूरगामी स्वप्न दिया लेकिन बाद के दिनों में बाजार की प्रतिस्पर्धा के आगे पस्त हो वही किया जो अडानी अंबानी कर रहे हैं. यहां मैं टाटा समूह के प्रसार के हथकंडे का एक उदाहरण कलिंगनगर की घटना को प्रसिद्ध गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार और पत्रकार साथी श्रद्धा लहानगिर के आलेख से दे रहा हूं. कोशिश करें कि इसे पूरा पढ़ें और सोचें कि इस पर रतन टाटा क्या जिम्मेदार नहीं थे ?
हिमांशु कुमार लिखते हैं कि 2006 में उड़ीसा के कलिंगनगर में टाटा स्टील प्लांट के लिए पुलिस ने 14 आदिवासियों की हत्या कर दी थी. पांच आदिवासियों के हाथ भी काट कर ले गई. आज तक उन कटे हुए हाथों का अंतिम संस्कार नहीं हुआ है. सुकमा के गोमपाड़ में भी पुलिस ने कब्र खोदकर आदिवासियों के हाथ काट लिए थे ताकि फोरेंसिक जांच में उनके निहत्थे होने की बात साबित ना हो सके. मिडिल क्लास, जो पूंजीपतियों की लूट में से मिले हुए टुकड़े खाकर जिंदा है, वह पूंजीपतियों की मौत पर उनकी शान में कसीदे पढ़ सकता है.
माओवादी सिनी सय की कहानी
सात मई को मेरे एक पत्रकार मित्र ने सूचना दी कि जाजपुर पुलिस ने एक बुजुर्ग महिला माओवादी को अस्पताल से गिरफ्तार किया है. नाम है उसका सिनी सय. नाम सुनकर मैं चौंकी. मैंने झटपट अपना कैमरा निकाला ओर जाजपुर की ओर निकल पड़ी. पिछले कई सालों से सिनी सय को मैं ढूढ रही थी, पर उसका कोई अता-पता नहीं था.
रास्ते भर मैं सिनी सय के बारे में सोचती रही. पचपन साल की सिनी सय 1997 में जाजपुर जिले के गोबरघाटी गांव की सरपंच के तौर पर जानी जाती थी. इस तेज-तर्रार आदिवासी महिला सरपंच को लोग उसके व्यवहार कुशलता के कारण जानते थे. लेकिन यह सिनी सय का अधूरा परिचय है.
2006 में कलिंगनगर में टाटा कंपनी के खिलाफ जब आदिवासियों का आंदोलन शुरु हुआ तो इस विस्थापन विरोधी आंदोलन में सिनी सय ने अपनी सक्रिय भूमिका निभाई थी लेकिन इस सक्रियता की कीमत सिनी सय ने जिस रुप में चुकाई वह दहला देने वाला है.
टाटा कंपनी की सुरक्षा और आदिवासियों को बेदखल करने की कोशिश में पुलिस ने जिन चौदह आदिवासियों को गोलियों से भून दिया, उनमें सिनी सय का 25 साल का जवान बेटा भगवान सय भी शामिल था. जिस जवान बेटे को लेकर सिनी सय इस आंदोलन में गई थी, वहां से उनके बेटे की हाथ कटी हुई लाश घर लौटी.
सिनी सय के बारे में सोचते-सोचते मैं करीब साढे पांच बजे जाजपुर अस्पताल पहुंची. जाहिर है, वहां पुलिस का कड़ा पहरा था. आने-जाने वालों पर प्रतिबंध था. खासकर मीडिया पर. किसी तरह पुलिस वालों को मैंने राजी किया और दो मिनट के निर्देश के साथ मैं सिनी सय के कमरे में जा पहुंची.
अस्पताल के बिस्तर पर एक साधारण-सी सूती साड़ी में सिनी सय लेटी हुई थी. मुझे पहचान नहीं पाई. मैंने याद दिलाया तो सबसे पहले मेरा हाल-चाल पूछा. फिर बहुत सुस्त और धीमी आवाज में उसने कहा- ‘मेरी तबियत आजकल ठीक नहीं रहती, मलेरिया हुआ है, जिसके ईलाज के लिए मैं यहां भर्ती हुई थी और तभी से पुलिस मेरे पीछे पड़ी हुई है.’
सिनी सय बहुत कमजोर दिख रही थी लेकिन उसकी बातचीत से ऐसा लग रहा था, जैसे मैं उसी पुरानी सिनी सय से मिल रही हूं. उसका बोलना जारी था- ‘मुझे जेल जाने का कोई दु:ख नहीं है. और ना ही मैं इस बात की परवाह करती हूं कि मेरे बारे में कोई क्या सोचता है. मैंने अपने लिए जो रास्ता चुना है, उसमें मुझे इस बात की संतुष्टि है कि अपने मरे हुए बेटे को मैं इंसाफ दिलाने की कोशिश कर रही हूं.’
मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि उससे इस हालत में क्या सवाल करुं. मेरी चुप्पी को देखकर उसने फिर से कहना शुरु किया- ‘आप जानती है कि जमीन की लड़ाई, अपने हक की लड़ाई लड़ते हुए मेरे बेटे ने अपने सीने पर पुलिस की गोली खाई. मेरे सामने उसे न सिर्फ बेरहमी से मारा गया बल्कि बाद में उसकी लाश के भी टुकड़े कर दिए गए. एक मां यह कैसे बर्दाश्त करती कि जिस बेटे को मैंने नौ महीने अपनी कोख में रखकर जन्म दिया, उसी बेटे को पुलिस वाले बेरहमी से एक लाश में बदल दें.’
कमरे की बाहर की ओर बैठी पुलिस की तरफ इशारा करते हुए उसने फिर कहा- ‘इन्होंने बड़ी कंपनियों की खातिर हमें अपने घर, अपनी जमीन, यहां तक की हमारी रोजी-रोटी से भी बेदखल कर दिया. इनकी सहायता, इनका पैसा क्या मुझे मेरा बेटा वापस लौटा सकता है ? शायद नहीं, हमारे सारे दर्द, सारी तकलीफें और घुटन भरी जिंदगी की जिम्मेवार सरकार है. और मैं उसे कभी माफ नहीं कर सकती. अपने लोगों के हक के लिए लड़ना मैं नहीं छोड़ूंगी.’ यह सब कुछ कहते हुए उसकी आंखों में मुझे एक अजीब सा आत्मविश्वास दिखाई दिया.
मैं उससे कुछ और बात कर पाती कि एक पुलिस वाले ने मुझे बाहर जाने को कहा. बाहर आकर मैं फिर से एक बार उससे मिलने की उम्मीद में बैठी रही. पत्रकार हूं, मन में तरह-तरह के सवाल थे. पर पुलिस ने हमें मिलने की इजाजत नहीं दी. मैं अपने घर भुवनेश्वर के लिए निकल पड़ी.
सिनी सय से मेरी पहली मुलाकात दो जनवरी 2006 को हुई थी. दिन के दो बजे थे और हमें खबर मिली कि कलिंगनगर इलाके में पुलिस और आदिवासियों के बीच मुठभेड़ हो रही है. पुलिस की गोली से कुछ आदिवासियों के मरने की भी खबरें आ रही थी. मेरे साथ-साथ कुछ और पत्रकार साथी अपनी कैमरा टीम के साथ कलिंगनगर की ओर निकल पड़े.
लगभग ढाई से तीन घंटे के बाद जब हम घटनास्थल पर पहुंचे तो हमने देखा कि सड़क के एक तरफ अपनी बंदूकें लिए पुलिस खड़ी थी और दूसरी तरफ अपना परंपरागत हथियार लिए आदिवासी. पुलिस वालों ने हमें सड़क पार करके दूसरी तरफ जाने से मना किया. लेकिन हम गांव की ओर बढ़ गए.
अंधेरा घिर चुका था और चारों तरफ अलग-अलग गुटों में सैकड़ों की संख्या में आदिवासी जगह-जगह खड़े थे. कुछ आदिवासियों ने हमें घेर लिया और वे हमें वहां से चले जाने को कहने लगे. वो इतने गुस्से में थे कि कुछ कहना-सुनना नहीं चाह रहे थे. आदिवासियों का एक दल गांव में पुलिस को घुसने से रोक रहा था तो कुछ और लोग इधर-उधर मरे पडे़ आदिवसियों की लाशों को इकट्ठा कर रहे थे.
कलिंगनगर में टाटा कंपनी अपनी परियोजना के लिए आदिवासियों की जमीन पर कब्जा चाहती थी, जिसका आदिवासी विरोध कर रहे थे. हजारों आदिवासी अपने विस्थापित होने के खिलाफ थे, जिसे लेकर यह संघर्ष हुआ था. टाटा कंपनी के साथ एमओयू कर चुकी सरकार का कहना था कि कंपनी के आने से विकास होगा. लेकिन आदिवासी अपने जल, जंगल, जमीन को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे.
अंधेरे में एक लाश की तस्वीर लेने के लिए मेरे कैमरामैन ने जैसे ही कैमरा घुमाया, तभी कुछ आदिवासी भड़क उठे और हमें मारने के लिए घेर लिया. हमारा कैमरा उनकी हाथ में था. इससे पहले कि वो सरकार और पुलिस का गुस्सा हम पर उतारते, हाथों में तीर-धनुष लिए हुए एक प्रौढ़ महिला सामने आई और उसने आदिवासियों को रोका.
मैंने देखा, वह महिला बड़े आत्मविश्वास के साथ उनका नेतृत्व कर रही थी. उसने आदिवासियों को हमें किसी भी तरह का नुकसान न पहुंचाने की हिदायत दी. पूछने पर पता चला कि उस आदिवासी महिला का नाम सिनी सय है.
रात के आठ बज चुके थे. हमें कुछ विजुअल और इंटरव्यू लेकर वापस होना था, जिससे जल्दी से जल्दी खबरें भेजी जा सके. जैसे-तैसे हमने कुछ शूट किया और वापस आ गए. देर रात भुवनेश्वर पहुंचने तक पुलिस की गोली से चौदह आदिवासियों और एक पुलिस वाले की मारे जाने की पुष्टि हो चुकी थी. अपनी खबर फाईल करने के बाद मैं अगले दिन की तैयारी करने लगी. वैसे भी आंखों में नींद कहां थी !
अगले दिन यानी तीन जनवरी 2006 को मैं अपनी टीम के साथ फिर से कलिंगनगर की ओर निकल पड़ी. उस सुबह तक देशी-विदेशी मीडिया के लिए कलिंगनगर हेडलाईन में तब्दील हो चुका था.
जब हम कलिंगनगर पहुंचे तो गोबरघाटी गांव से एक किलोमीटर दूर मुख्य सड़क पर आदिवासियों ने लाशों को रखकर रास्ता जाम कर रखा था. हमने अपनी गाड़ी कलिंगनगर थाने के पास छोड़ी और उस ओर निकल पड़े, जहां चौदह लाशों को घेरकर आदिवासी खड़े थे और सरकार और पुलिस के खिलाफ नारा लगा रहे थे.
हमें देखकर आदिवासी फिर से तैश में आ गए थे. हमने बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया कि हम पत्रकार हैं और हमारा काम खबरों को देश-दुनिया तक पहुंचाना है. आदिवासियों के गोल घेरे में जाने पर मैंने देखा कि सिनी सय अपने बेटे की लाश पर गिरकर बिलख-बिलखकर रो रही थी. मुझे देखकर उसने हाथ जोड़ा और रोते हुए कहा- ‘मैडम पुलिसवालों ने मेरे जवान बेटे को मार डाला.’
सिनी सय का 25 साल का बेटा भगवान सय, जो इस विधवा मां और छोटे-छोटे पांच भाई-बहनों का इकलौता सहारा था, इस आंदोलन की बलि चढ़ चुका था. उसने फिर रोते हुए कहना शुरु किया- ‘मेरे बेटे को गोली लगी थी. पुलिस मेरे जख्मी बेटे को बेरहमी से मार रही थी और मैं कुछ नहीं कर पाई. सरकार ने ये अच्छा नहीं किया हमारे साथ. मेरा बेटा हमारा सहारा था. अब मैं और मेरे बच्चे क्या करेंगे ?’
उसकी आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. माहौल भावुक हो रहा था. सब तरफ लाशें पड़ी थी, लोग रो रहे थे. किसी ने अपना बेटा तो किसी ने अपना पति खोया था. हमने कुछ लोगों से बातचीत की और फिर भुवनेश्वर लौट आए.
चौदह आदिवासियों के मारे जाने की इस बड़ी खबर के सिलसिले में हमें रोज भुवनेश्वर से कलिंगनगर जाना होता था. चार जनवरी को पुलिस ने लाशों का पोस्टमार्टम किया और फिर उन लाशों को उनके परिजनों को सौंप दिया गया. पांच जनवरी को जब हम गांव में पहुंचे तो आदिवासी सकते में डूबे हुए थे.
हमने देखा, सिनी सय के बेटे भगवान सय के दोनों हाथ की कलाई कटी हुई थी. दूसरे आदिवासियों की लाश भी सलामत नहीं थी. मैंने देखा सिनी सय एकटक अपने बेटे की लाश को देखे जा रही थी. उसकी आंखों में आंसू का एक बूंद तक नहीं था. एक औरत होने के नाते मैं उसकी चुप्पी को महसूस कर पा रही थी.
इस घटना के कई दिनों तक कलिंगनगर के इलाके में विभिन्न दलों के राजनेताओं, पत्रकारों और स्वयंसेवी संगठनों का आना-जाना चलता रहा. तीन-चार दिन के बाद आदिवासियों ने लाशों का अंतिम संस्कार किया. माहौल थोड़ा शांत हो रहा था पर तनाव फिर भी था. आदिवासियों का सड़क जाम आंदोलन जारी था.
इस दौरान मैंने सिनी सय से कई दफा बातचीत की. बेटे की मौत का दर्द, सरकार के खिलाफ गुस्सा और आने वाली जिंदगी की चिंताएं उसके चेहरे पर हमेशा दिखती थी. लेकिन पहले दिन के बाद मैंने उसकी आंखों में आंसू नहीं देखे.
इस घटना के एक साल बाद दो जनवरी 2007 को पुलिस गोली से मारे गए 14 आदिवासियों की पहली बरसी पर आयोजित शहीद दिवस के कार्यक्रम में मेरी मुलाकात सिनी सय से हुई. इस आयोजन में अलग-अलग राज्यों से हजारों की संख्या में आदिवासी पहुंचे थे. इसके अलावा देश भर के पत्रकार, स्वयंसेवी संगठन और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की लंबी-चौड़ी फौज तो थी ही.
इसी भीड़ में शामिल सिनी सय ने मुझे देखते ही पहचान लिया. एक बार फिर मैंने सिनी सय से लंबी बातचीत की. इस इंटरव्यू में सिनी सय ने एक बार फिर से अपनी पुरानी बातें दुहराई- ‘ये हमारे हक की लड़ाई है, अपनी जमीन, अपनी रोजी-रोटी हम किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ सकते. अपने लोगों के हक के लिए मैं एक तो क्या, दस बेटों को भी कुर्बान कर सकती हूं. हम अपने लोगों के शहादत को कैसे जाया कर सकते है ?’
सिनी सय का आत्मविश्वास मुझे हमेशा चौंकाता था. सहमति-असहमति के ढेरों मुद्दे थे लेकिन गांव की एक अनपढ़ आदिवासी महिला होकर भी सिनी सय अपने हक की लड़ाई के लिए जिस तरह सबसे आगे थी, एक औरत होने के नाते उसे देखकर मुझे गर्व होता था. बातचीत के बाद हमने एक-दूसरे से विदाई ली. यह सिनी सय से मेरी आखिरी मुलाकात थी.
2007 के बाद कलिंगनगर में आदिवासियों और टाटा कंपनी के बीच चल रहे संघर्ष को कवर करने के लिए मैं कई बार उस इलाके में गई. लेकिन सिनी सय से मेरी मुलाकात नहीं हो पाई. इस दौरान उस इलाके में छोटी-बड़ी कई घटनाएं हुईं. कुछ आदिवासी अपनी जमीन देने को राजी हो गए थे. मारे गए आदिवासियों के लिए सरकार मुआवजा दे रही थी. टाटा कंपनी और सरकार की तरफ से ढेरों लुभावने नारे हवा में तैर रहे थे.
पर कुछ आदिवासी अभी भी अपनी जमीन छोड़ने को राजी नहीं थे. जो अपनी जिद पर अड़े थे. उनके घरों को बुलडोजर से तोड़ दिया गया. उन्हें उनकी जमीन से बेदखल कर दिया गया. पुलिस ने गांव पर कब्जा कर लिया था और डरे-सहमे आदिवासी जंगलों में छुपते फिर रहे थे. बीमार बच्चों और महिलाओं का बुरा हाल था. पुलिस के डर से वे अस्पताल तक नहीं जा रहे थे.
इन आदिवासियों की भूख-गरीबी और उनके डर को मैंने कई बार अपने कैमरे में कैद किया. साल गुजरते गए, इस दौरान मैं कई-कई बार कलिंगनगर हो आई. जब भी मैं वहां गई सिनी सय को मैंने जरुर तलाशा लेकिन उसका कहीं अता-पता नहीं था.
अब इतने सालों बाद अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी हुई सिनी सय मुझे मिली. उसे इस हालत में देखकर और उसकी बातें सुनकर मैं ये सोच नहीं पा रही थी कि मैं क्या प्रतिक्रिया दूं.
सिनी सय के बारे में कुछ और जानने की इच्छा ने मुझे उसके मंझले बेटे लक्ष्मीधर सय से मिलाया. कलिंगनगर गोली कांड के समय लक्ष्मीधर सय बारहवीं में पढ़ता था. आज वो कलेक्टर के कार्यालय में जूनियर क्लर्क की नौकरी कर रहा है. यह नौकरी उसे भाई की मौत के मुआवजे के तौर पर मिली है.
लक्ष्मीधर से ये पता चला कि उसका छोटा भाई, जो उस समय सातवीं कक्षा में पढ़ता था, आज एक इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहा है. तीन बहनों की भी शादी हो चुकी है.
सिनी सय को बतौर मुआवजा 11 लाख रुपए भी मिले थे, जो उनके नाम से बैंक में जमा हुए थे. लक्ष्मीधर सरकारी मुलाजिम होने के नाते इन सब मुद्दों पर कोई भी बातचीत नहीं करना चाहता था. मैंने कैमरा बंद किया, फिर उसने बातचीत शुरु की. बातचीत में उसने वही पुराना मंजर उसने मेरी आंखों के सामने रख दिया- ‘उस घटना के वक्त मैं सोलह-सत्रह साल का था और मेरे भैया की मौत के साथ ही मेरा परिवार पूरी तरह बिखर गया था. मेरी पढ़ाई छूट गई. पिता का साया तो बचपन में ही उठ गया था लेकिन इस घटना ने मां को भी बुरी तरह से तोड़ दिया. मां हमसे भी कटी-कटी रहने लगी.’
‘इस घटना के बाद मैंने कभी भी मां को मुस्कुराते नहीं देखा. भाई की कटी हुई कलाई वाली लाश देखने के बाद तो मां मानो पत्थर की बन गई थी. उसकी आंखों में मैंने कभी आंसू भी नहीं देखे थे. घटना के एक साल के बाद मुझे यह नौकरी मिली और मैं यहां जाजपुर चला आया.’
मुआवजे के बतौर जो पैसे मिले थे, वो सिनी के नाम से बैंक में जमा थे. उनमें से सिर्फ ढाई लाख रुपए उसने छोटे भाई की इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए खर्च किए थे. इस दौरान घर में लोगों का आना-जाना लगा रहता था. कोई इंटरव्यू के लिए आता था तो कोई शोक जताने, कोई सहानुभूति के शब्द कहने तो कोई अपना ही दुखड़ा रोने. फिर 2008 के आसपास एक दिन सिनी सय घर से चली गई. कहां, इसकी खबर तो घरवालों को भी नहीं थी.
लक्ष्मीधर के अनुसार अपनी मां से उनकी एक-दो बार बातचीत हुई. मां ने अपने इस तरह गायब होने को लेकर कोई बात नहीं बताई. लेकिन मां के जाने के बाद से ही घर में पुलिस वालों के आने का सिलसिला शुरु हो गया. पूछताछ के बहाने पुलिस कभी भी घर में आ धमकती. परिवार के लोग परेशान हो गए. फिर एक दिन सिनी ने लक्ष्मीधर को यह खबर भिजवाया कि वो उन लोगों से दूर ही रहेंगी क्योंकि वो नहीं चाहती थीं कि उनकी वजह से उनके परिवार को कोई परेशानी हो.
पुलिस रिकार्ड में सिनी सय का नाम एक माओवादी के तौर पर दर्ज हो चुका था. लक्ष्मीधर से विदा होते हुए मैंने पूछा- ‘तुम्हारी मां को पुलिस ने माओवादी के रुप में गिरफ्तार किया है. क्या सोचते हो ?’
लक्ष्मीधर ने बिना एक पल गंवाए जवाब दिया- ‘पुलिस के लिए, आपके लिए मेरी मां एक माओवादी हो सकती है पर मेरे लिए वो सिर्फ एक मां है. एक ऐसी मां, जो अपने बच्चों के लिए कुछ भी कर सकती है. एक ऐसी मां, जो अपनी ममता सिर्फ अपने बच्चों पर नहीं बल्कि दूसरों के बच्चों पर लुटाने और उनकी जिंदगी संवारने से पीछे नहीं हटती. ऐसी मां पर मुझे गर्व था, है और रहेगा.’
सिनी सय और लक्ष्मीधर से मिलने के बाद मैं इन दिनों उहापोह में हूं. एक औरत होने के नाते सिनी के दर्द को मैं महसूस कर सकती हूं. एक आदिवासी महिला के संघर्ष और उसकी जीजिविषा को लेकर भी कई-कई सवाल मन में उमड़ते-घुमड़ते हैं.
एक गणतांत्रिक देश की नागरिक और पत्रकार होने के नाते मेरे लिए सिनी सय के किसी भी हिंसात्मक रास्ते का समर्थन करने का तो सवाल ही नहीं उठता लेकिन इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है कि सिनी सय सही थी या गलत. आप अगर इस सवाल का जवाब ढूंढ़ पाएं तो मुझे जरुर बताइएगा.
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