‘खुड़ी मांं, घर में हो ?’
‘के रे ?’ शांति अपनी दुर्बल, बूढ़ी काया को खटिया से खींचकर लकुटिया के सहारे कमरे के आबनूसी काले दरवाज़े तक लाती है.
‘अरे विष्णु, कितने दिनों बाद आया. आ, अंदर आ जा, बैठ.’
‘विष्णु, कितना बूढ़ा लगता है रे ! ठीक से खाना नहीं खाता क्या ?’
सन 1972 में जब शांति बांग्लादेश से जान बचा कर भागी थी, इस छोटे से क़स्बे ने उसको सहारा दिया था. आंंधी में उंंचे पेड़ से गिरे चिड़िया के घोंसले को कभी कभी कोई दरका हुआ डाल थाम लेता है और उसमें पलने वाले छोटे बच्चे बच जाते हैं. कुछ लोग इसे भाग्य कहते हैं, मैं इसे जीवन की अपने को हर हाल में बनाए रखने की चेष्टा की सफलता कहता हूंं. जीवन नष्ट होने से मना करता है. और, आदमी भी. जो ख़ुद को नष्ट नहीं करना चाहता, वह मर सकता है, लेकिन, आत्महत्या नहीं कर सकता.
क़स्बे के बाहर, टांड़ पर, एक रिफ्यूजी कोलोनी बसाई गई थी. मिट्टी से गांथे हुए ईंट की दीवारों पर टिन के छप्पर. क़रीब दो सौ घरों के लिए दो चापाकल, दस शौचालय.
क़स्बे तक जाने के लिए एक रेलवे का पुल पार करना पड़ता था, जो कि एक गहरी खाई के उपर बना था. आदमी के चलने के लिए एक पुल बनाने की बात जब तब चलती और फिर बंद हो जाती.
शांति जब यहांं आई थी तब सिर्फ़ सत्रह साल की थी. साथ में उसका मामा, जो कि प्रौढ़ था. खुलना में जब पाकिस्तानी फ़ौज नरसंहार कर रही थी, तब शांति मामा घर आई थी. सारे परिजन मारे गए, या युद्ध के भंवर में कहीं डूब गए. तरुण मामा, किसी तरह बचते बचाते शांति को ले कर आमगोला बॉर्डर तक पहुंंचे.
साधारण समय में भारत घुसने के लिए भारतीय सीमा सुरक्षा बल के जवानों की मुठ्ठी गर्म करनी पड़ती थी, या औरतों को एकाध हफ़्ते के लिए उनको अपना देह सौंपना पड़ता है, आख़िर स्वर्ग जाने का रास्ता मुफ़्त में तो मिलता नहीं, हम सबको अपनी देह की आहुति तो देनी पड़ती है. ख़ैर, यह युद्ध का समय था. लाखों भारत आ रहे थे. देह की अधिकता संभोग की इच्छा को ख़त्म कर देता है, इसलिए, शांति बच गई.
बंगाल के निकटवर्ती राज्य के इस छोटे से क़स्बे के बाहर टांड़ पर उसे आश्रय मिला. पहले सोचती कि वह तो कुलीन ब्राह्मण है, उसे अछूतों की तरह गांंव से दूर क्यों रखा गया है ? वह नहीं जानती थी कि दुर्भिक्ष और युद्ध के द्वार पर सभी याचक होते हैं, क्या कुलीन और क्या अछूत !
ख़ैर, ये सारी बातें पद्मा के विशाल छाती पर कश्तियों-सा गुम हुए पचास साल गुज़र चुके थे. शांति अब याद नहीं करती. इस टांड़ पर उसने एक नई जिंदगी शुरु की थी. तरुण मामा रेलवे गुड्स यार्ड और मंडी में पिलवानी कर जैसे तैसे दोनों को पाल लेता. दुर्गा पूजा के समय चार जोड़ी रंगीन साड़ी शांति के लिए जुगाड़ हो जाता, फिर साल भर उसी से काम चलता.
‘मामा, तुमने कुछ नहीं लिया इस साल भी !’
‘लिये न, ये देख मेरी नई धोती, बंडी और लाल गमछा.’
‘इसे पहनकर दुर्गा पूजा घूमने जाओगे ?’
‘अरी पगली, मुझे तो रेलवे कोलोनी की पूजा में पिलवानी का काम मिला है. भोग के लिए इतने चावल के बोरे, सब्ज़ी के कट्टे, पंडाल के सामान, सब कौन उतारेगा ?’
मामा सूखी हंसी हंस कर कहता.
‘लेकिन तुम तो अपने गांंव में दुर्गा पूजा के पुरोहित थे ?’
‘अरी पगली, वो अपना देश था, ये विदेश है. चल, जल्दी से तैयार हो जा. और हांं, सोने की दोनों चूड़ियांं पहन लेना.’.मामा ने अपनी बेटी रिचा के लिए दो सोने की चूड़ियांं बनवाई थी, जिन्हें बचा कर लाया था.
समय बीता. मामा कि चिंता शांति की शादी की थी. बस्ती के एक मैट्रिक पास लड़के पर रेलवे के एक साहब की कृपा हो गई थी और उसे चतुर्थ श्रेणी में रख लिया था. लड़के का एक पैर छोटा था, इसलिए, लंगड़ा कर चलता था. उम्र में शांति से चौदह साल बड़ा था, लेकिन लड़के की आमदनी देखी जाती है, उम्र और चेहरा नहीं. वैसे स्वस्थ और हंसमुख था.
एक शाम, जब जितेन काम से लौट कर बस्ती के कामचलाऊ मंदिर के चबूतरे पर बैठे उस मंदिर के उद्धार की चिंता में डूबा था, मामा ने शांति की शादी की बात उससे छेड़ दी. वैसे तो तरुण मामा बस्ती में काली मंदिर बनाने से ज़्यादा महत्वपूर्ण एक डिस्पेंसरी बनाना मानते थे, बस्तीवासियों के मीटिंग में एक दिन चिढ़ कर सुना भी दिया था.
‘जितेन, ये क्या मंदिर की रट लगाए बैठे हो ? क्या चाहते हो दवाखाना नहीं बने ? और जब कोई बच्चा बिना इलाज के यहांं तड़पे तो उसकी मांं अपने बच्चे को गोद में ले कर मंदिर में सर पटके ?’
‘लेकिन, आप तो पुरोहित थे तरुण मामा !’
जितेन नहीं जानता था कि तरुण का ईश्वर कब का मर चुका था, और अब एक पांंच धागों वाले जनेऊ में सिमट कर उसकी देह से लटका हुआ था, चिता तक जाने के लिए.
जो भी हो, जितेन शादी के लिए मान गया. शांति सुंदरी थी और जितेन भी खाना पकाते-पकाते थक चुका था. उसके आगे पीछे कोई नहीं था. हांं, उसके नाम के आगे कुलीन ब्राह्मण का एक ठप्पा जरूर था. गरेड़िये मवेशियों के मालिक की पहचान के लिए पशुओं को दाग देते हैं, कुछ इस तरह.
शांति ने शादी के बाद भी अपना काम जारी रखा. वह बस्ती की दूसरी औरतों की तरह ही काग़ज़ के दोने बनाती थी. बस्ती के मर्द इन दोनों को क़स्बे के पंसारी की दुकानों में बेच आते. काग़ज़, गत्ता, लोई की क़ीमत चुकाने के बाद पांंच रुपए किलो की बचत. श्रम की क़ीमत आंकना कुटीर उद्योग में लगे ऐसे श्रमिक नहीं जानते. उनके लिए ख़ाली बैठे रहने से बेहतर कुछ सृजनात्मक करना होता है.
मानव सभ्यता की अनेक अनमोल कृतियांं, चाहे वह बाटिक शैली का विकास हो या मिथिला आर्ट, इसी निष्काम कर्म की उपज हैं. इसकी शुरुआत देखनी हो तो आपको गुफा चित्रों को देखना होगा. ख़ैर, दोना बनाना इतना भी निष्काम कर्म नहीं था, अर्थशास्त्र के सिद्धांत उसे रहने नहीं दिया. काग़ज़ के नाव बनाकर बारिश के पानी में बहाने वाली उंंगलियांं जब उसी काग़ज़ को दोने की शक्ल देती हैं, तब चवन्नी और चांंद का फ़र्क़ ज़ाहिर हो जाता है.
समय बदला. बाज़ार से काग़ज़ हट गया. अब हर जगह प्लास्टिक के थैले. बस्ती के लड़के काग़ज़ के दोने लेकर अब भी बाज़ार जाते और औने-पौने भाव में माल निपटा कर मुंंह लटकाए शाम को घर लौटते. धीरे-धीरे वह भी बंद हो गया. ग़रीब की आमदनी भादो की रात के आसमान में उगा प्रथमा का चांंद होता है, रोशनी कालिख़ देखने भर को है.
समय पलटा. अब भोज भात में चलने वाले पत्तल के दोने और थालियों के उपर प्लास्टिक की पन्नी लगाने का चलन निकला. गांंव की आदिवासी महिलाओं के पास तो पत्तल जोड़ने के लिए सींकियां थी, प्रेस मशीन कहांं से आए ? इस समय जितेन दो हैंड प्रेस मशीन लाकर बस्ती की औरतों को दिया. धंधा फिर से चल निकला, लेकिन यह सीज़नल था. आदिवासी औरतों का कारोबार हांंडियांं के अड्डों तक सिमट गया. सींकियों पर टिके उनके पत्तों के दोने लाल चूंटे के चखने को रखने के काम आई, या हाट बाज़ार में जंगली बेर रखकर बेचनेवालों के लिए – जीवो जीवस्य भोजनम्.
इतने दिनों बाद विष्णु आया है. शांति को विधवा हुए क़रीब दस साल हो गए हैं. जितेन के पेंशन के दो हज़ार रुपए महीने पर गुज़ारा होता है. शांति की शादी के एक साल बाद तरुण मामा चल बसे. लोगों ने उनकी लाश रेलवे पुल के किनारे औंधे मुंंह लेटा पाया था. क्रिया कर्म के पहले उनके मुंंह में डालने के लिए गंगा जल नहीं मिला, पद्मा बहुत दूर बह रही थी.
विष्णु वही लड़का था जो शांति के बनाये दोनों को क़स्बे में ले जाकर बेचता था. काम बंद होने के बाद वह क़स्बे में घूम-घूम कर कभी मज़दूरी कर लेता तो कभी किसी चाय ठेका पर गिलास धोता.
‘आ बैठ, थोड़ा बताशा पानी ले. कहांं-कहांं घूमता रहता है इस कड़ी धूप में ?’
‘खुड़ी मांं, तेरे लिए एक ख़बर है.’ पानी पीते हुए विष्णु ने कहा.
शांति उसकी तरफ़ धुंधली आंंखों से देखती है.
‘रहने दे, अब तो मैं ही ख़बर बनने वाली हूंं कुछ दिनों में.’
‘नहीं, सच में ख़बर है.’
‘क्या ?’
‘सरकार ने प्लास्टिक बैन कर दिया. अब सिर्फ़ काग़ज़ के दोने चलेंगे.’
शांति का मुंंह खुला रह गया. उसकी आंंखों के सामने बस्ती की उन तमाम औरतों का चेहरा तैर उठा जो दोने की बिक्री कम होने के साथ-साथ तेल कम होते दीयों की तरह बुझती गई थी.
क़स्बे की एक संकरी गली में प्लास्टिक के थैले बनाने वाले कुछ मज़दूर बार-बार अपनी आख़िरी दिहाड़ी को पसीजे उंंगलियों में गिन रहे थे.
अचानक, शांति दहाड़ मार कर रो पड़ी. विष्णु सकपका कर खुड़ी मांं को देखता रहा. खुड़ी मांं को इतना रोते हुए उसने कभी नहीं देखा था. तरुण मामा की मौत पर भी नहीं. जितेन दा के गुजरने पर भी नहीं.
विष्णु ने खुड़ी मांं से सुना था कि पद्मा में जब बाढ़ आती है तो गांंव के गांंव काग़ज़ के दोने की तरह बह जाते हैं.
क़स्बे की मंडी में निरंजन पंसारी उस समय अख़बार फाड़ कर सौदा मोड़ कर ग्राहक निपटा रहा था.
- सुब्रतो चटर्जी
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