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कबीर : इंसान और इंसानियत के सच्चे प्रतीक और प्रतिनिधि

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कबीर : इंसान और इंसानियत के सच्चे प्रतीक और प्रतिनिधि
कबीर : इंसान और इंसानियत के सच्चे प्रतीक और प्रतिनिधि
राम अयोध्या सिंह

कबीर भारत के ऐसे सबसे पहले और सबसे बड़े ऐसे कवि और संत हुए हैं, जिन्होंने सदियों से सामाजिक रूढ़ियों और धार्मिक सड़ांध में बिलबिलाते भारतीयों को शब्दों के तमाचे गाल पर लगाकर जगाने का काम किया, कान ऐंठकर जीवन और जगत की सच्चाई को उजागर किया, और आंख फाड़कर दिखाया कि हकीकत क्या है, और झूठ क्या ? सबसे बड़ी और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्होंने यह सब कुछ उस समय किया, जब इन सामाजिक कुरितियों और धार्मिक पाखंडों के खिलाफ कोई आवाज़ उठाने को भी तैयार नहीं था.

और, यह सब कुछ उन्होंने वहां किया, जो धार्मिक पाखंड, अंधविश्वास और कर्मकांड का भारत में सबसे बड़ा गढ़ था. जी हां, उन्होंने यह सब कुछ काशी में ही किया और डंके की चोट पर किया. एक जुलाहे के रूप में अपना जीविकोपार्जन करने वाले कबीर ने जीवन और जगत की सच्चाई को जिस निडरता और निर्ममता के साथ लोगों की आंखों में उंगली डालकर दिखाया, वह अपने समय से बहुत ही आगे की थी.

कबीर अपनी मर्जी के मालिक तो थे ही, शब्दों और भाषा के अधिनायक भी थे. भाषा और शब्द उनकी उंगलियों पर नाचते थे. जनभाषा और शब्दों को अपनी वाणी का जिस तरह उन्होंने अपनी चेरी बनाया, वह काबीलेतारीफ है. क्या मजाल जो कोई शब्द उनके साथ जिद्द करने की कोशिश भी करे. कोई भी शब्द हो, ठोक-पीटकर या हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहें तो दरेला देकर अपने मनमाफिक बना ही लेते थे. इस मामले में वे लोकभाषा के जादूगर थे, जो हमें आज भी विस्मित करता है.

लोकजीवन, लोकभाषा और लोकसंस्कृति से अलग वे न तो किसी शब्द की कल्पना उन्होंने की, और न ही अपनी भाषा पर उन्होंने कभी अपना नियंत्रण छोड़ा. मजाल है कि शब्द या भाषा उनके बताये रास्ते से कभी भटक भी जायें. लोकभाषा पर अपनी इसी पकड़ के कारण वे लोगों के साथ आसानी से जुड़ जाते थे. लोकजीवन के साथ उनका यही जुड़ाव उन्हें जनकवि और जनवादी संत बनाता है. न तो वे कभी लोक से अलग हुए, और न ही कभी उनके शब्द और भाषा. वास्तव में, वे मनसा, वचसा और कर्मणा लोककवि और आमजन के संत थे. जन के साथ यही एकात्मकता उन्हें औरों से अलग करती है.

काशी के जिस दक्षिणपंथी, रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी समाज में वह तर्क, विवेक और सच्चाई के साथ सामाजिक और धार्मिक कुरितियों और पाखंडों पर वज्र प्रहार कर रहे थे, वह तत्कालीन व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी, जिसे उन्होंने खुलकर और बिना लागलपेट के लोगों के सामने व्यक्त किया. ऐसा करने में जिस साहस, संकल्प और ज्ञान का परिचय उन्होंने दिया, वह न सिर्फ लोगों की आंख खोलने वाला था, बल्कि अपने समय से बहुत आगे भी था.

धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा की संकीर्णताओं से मुक्त होकर ही कोई ऐसा कर सकता था, और कबीर ने यही काम किया. उन्होंने संतों की संयमित वाणी का सहारा न लेकर एक खांटी गृहस्थ के जीवन को आधार बनाते हुए ही अपनी वाणी को प्रखरता दी, और डंके पर हथौड़े की चोट देते हुए अपनी बातों को लोगों की जेहन में उतारने का भरसक प्रयास किया.

जिस सच्चाई, अक्खड़पन, निडरता और तार्किकता के साथ कबीर साहेब ने अपने मंतव्यों और विचारों को प्रस्तुत किया, वह एक ऐसा मशाल था, जो युगों-युगों तक भारत के लोगों को अंधेरे में राह दिखाने का काम करता रहा है. इतना बेखौफ, बेलौस और बेहिचक सामाजिक और धार्मिक जीवन की सच्चाईयों को रखा कि लोगों के लिए उन शब्दों का निषेध करना असंभव था.

सच बोलने वाला कितना साहसी और निर्भिक होता है, यह कबीर साहेब ने दिखा दिया. ब्राह्मणों, ब्राह्मणवादी व्यवस्था, मंदिरों और देवी-देवताओं तथा धार्मिक कर्मकांड पर वज्र प्रहार करने वाले कबीर सचमुच ही पूरे इंसान बन चुके थे. बिना इंसान बने कोई ऐसे और इतने कठोर शब्दों का प्रयोग कर ही नहीं सकता है. वे भगवान या राम को मानते थे या नहीं, इसमें संदेह हो सकता है, या बहस हो सकती है, पर इतना तो निर्विवाद है कि कबीर पूरे इंसान थे.

सच तो यह है कि वे इंसान और इंसानियत के सच्चे प्रतीक और प्रतिनिधि थे। उनके भगवान और राम भी इंसान और इंसानियत से ऊपर नहीं थे. मानवीय मूल्यों, आदर्शों, सिद्धांतों और संवेदनाओं को जिस प्रखरता, निपुणता और व्यापक रूप में उन्होंने प्रस्तुत किया है, वह निःसंदेह उन्हें न सिर्फ अपने समय का, बल्कि आजतक का सबसे प्रगतिशील, आधुनिक चेतनासंपन्न, तार्किक और विवेकशील मनुष्य के रूप में पहचान देता है.

बाह्य और अंतर्मन से एकात्म हो जाने वाले कबीर के लिए मनुष्य और मनुष्य के बीच कोई भेद कभी रहा ही नहीं, बल्कि मनुष्य के बीच भेद उत्पन्न करने वाले धर्म और जाति की उन्होंने बखिया उधेड़ दी. काशी के ब्राह्मणों को जिस लहजे और जिन शब्दों में उन्होंने ललकारा, वह उन्हें मनुष्य के रूप में सर्वोच्च पद पर आसीन करता है.

उनकी वैचारिक व्यापकता, मनोभावों और अनुभूतियों का सरल शब्दों में अभिव्यक्ति तथा अपने मत पर सदा कायम रहने वाले कबीर साहेब कभी भी वैचारिक द्वंद या विरोधाभास के शिकार नहीं हुए. कथनी और करनी में एकात्मकता के प्रतिनिधि कबीर साहेब हमारे भारतीय समाज के सबसे अग्रणी ऐसे संत थे, जिसके लिए मनुष्य होने के लिए मनुष्य होना ही एकमात्र कसौटी थी. मनुष्य की इस मानवीय पहचान में वे किसी भी तरह की मिलावट पसंद नहीं करते थे.

यही कारण है कि धर्म के छद्मावरण में अपनी रोजी-रोटी चलाने और सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले लोगों को वे फूटी आंख भी नहीं सुहाते थे. आलोचनाओं और आलोचकों से बेखबर वे अपनी धुन में जीवन भर रमते रहे. ऐसा व्यापक मानवीय दृष्टिकोण बहुत ही कम लोगों के पास होता है. वे मानवता के चरम बिंदु थे, और मानव और मानवता के लिए जीवनपर्यन्त समर्पित लठधर गृहस्थ बने रहे.

किसी भी दुनियादारी स्वार्थ, प्रलोभन और कामना से दूर उन्होंने मानवता के लिए सत्य को सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया और तर्क के उस मसाल को हमेशा जलाये रखा, जिससे भावी पीढ़ियों को सत्य की राह पर चलने में सुगमता हो, और वे जीवन की सार्थकता समझ सकें. काशी में मरकर पुण्य कमाने या स्वर्ग में अपने लिए सीट सुरक्षित कराने से बेहतर उन्होंने समझा मगहर जाकर अपनी अंतिम सांस लेने की. कबीर साहेब अपनी पूरी जिंदगी सामाजिक और धार्मिक पाखंड, कर्मकांड और अंधविश्वास को ध्वस्त करने वाले अगियाबैताल थे.

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