महान कथाकार प्रेमचंद की जयंती के मौके पर इस बार महान कथाकार प्रेमचंद संघियों के निशाने पर रहे. संघियों ने प्रेमचंद पर तथ्यहीन ऐसे आरोपों की बौछारें कर रखी है कि दिमाग चौंधिया जाये. मसलन, प्रेमचंद उस वक्त जब 20 रुपये में एक तोला सोना आता था तब उनका वेतन 150 रुपये से अधिक था. कि प्रेमचंद अपनी पत्नी को हीरे जड़े अंगूठी गिफ्ट में देते थे. कि प्रेमचंद नोटों की गड्डियों पर सोते थे … ब्लां … ब्लां …
उबकाई आ जाने की सीमा तक प्रेमचंद के खिलाफ अनर्गल प्रलाप करते संघियों के दिमाग में मानो यह बैठा दिया गया है कि दुनिया की सारी संपदा का उपभोग करने का अधिकार बस चंद लोगों के ही पास होना चाहिए, अन्य लोग अगर इसका उपभोग करते हैं तो मानो वे कोई अपराध करते हैं. प्रेमचंद भारत के इतिहास में वह मील का पत्थर हैं, जिसके आधार पर खड़े होकर हमें इतिहास देखना चाहिए. कलकत्ता विश्वविद्यालय, कोलकाता के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी प्रेमचंद जयन्ती पर इतिहास को इसी दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया है – सम्पादक
प्रेमचंद जयन्ती पर जरूरी सवाल
प्रेमचंद को उनके जन्मदिन पर याद करते समय यह ध्यान रखें कि यह अतियथार्थ का दौर है. अतिय़थार्थ हमें जगत को ठीक से देखने नहीं देता. जगत इतना करीब होता है कि हम उसे ठीक से देख भी नहीं पाते. फेसबुक-इंटरनेट इस अतिय़थार्थ के तकनीकी रूप हैं. आज संकट और भी गहरा है क्योंकि समय और दूरी का भी लोप हो गया है. तकनीकी तरक्की ने हमें विलक्षण प्रदूषण में फेंक दिया है और इस प्रदूषण का नाम है – अतियथार्थ का प्रदूषण.
आज साहित्य से लेकर जीवन तक सारवान भौतिक तत्व घट रहे हैं. साहित्यकार के समूह निर्मित बहसें, निर्मित यथार्थ और निर्मित प्रशंसा में मगन हैं. इनमें कहीं पर भी सबस्टेंस नहीं नजर आ रहा. जो लेखक भूमंडलीकरण पर बहस कर रहे हैं वे उसका क-ख-ग तक नहीं जानते, जो बाजारवाद को कोस रहे हैं वे कभी बाजार नहीं गए. सवाल यह है कि सारवान भौतिक जीवन के बिना यह कैसा साहित्य और साहित्यकार हमारे बीच में आया है, इसकी पड़ताल करने की जरूरत है.
हमें अब परेशानी नहीं होती कि हमारे सामने के वस्तुगत यथार्थ को कैमरों के खेल ने हमसे छीन लिया है. हम निर्मित यथार्थ को ही यथार्थ समझने लगे हैं. अब हम जिस यथार्थ को देखते हैं उसे वास्तविकता से जोड़ नहीं पाते. हमें इससे कोई टेंशन नहीं होती. बहुत सारी चीजें हमारी आंखों के सामने से हटा ली गयी हैं लेकिन हमें उनकी अनुपस्थिति परेशानी पैदा नहीं करती.
हम फेसबुक पर निस्सार बहसों पर सबसे ज्यादा ऊर्जा खर्च करते हैं. किसी लेखक या संपादक की झूठी प्रशंसा (लाइक) में शक्ति व्यय कर रहे हैं और मगन हैं कि हमने बौद्धिक तीर मार लिए. यह सब निस्सार का खेल है जो हमें यथार्थ को देखने नहीं देता. प्रेमचंद की महत्ता है कि वे भौतिक तौर पर सारवान के सर्जक हैं.
प्रेमचंद पर हमला करने वाले हमेशा से सक्रिय रहे हैं और इन दिनों भी सक्रिय हैं. वे साहित्य को राजनीति से अलग करने की मांग कर रहे हैं, साहित्य को विचारधारा से अलग करने की मांग कर रहे हैं. साहित्य को यथार्थ से अलग करने के प्रयास कर रहे हैं. ऐसे लेखकों के लिए वाल्टर बेंजामिन का कथन याद आ रहा है. उन्होंने कहा था कि – बच्चों को राजनीति की जरूरत नहीं होती. हम उनके बचपन के खेल में ही आनंद लेते हैं. वस्तुओं के साथ बच्चों के संबंध में आनंद लेते हैं.
जो लोग साहित्य में राजनीति और विचारधारा का निषेध कर रहे हैं वे साहित्य को बच्चों का खेल बनाना चाहते हैं. साहित्य बच्चों का खेल न बने इसलिए प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है.
साहित्य और साहित्यकार को वस्तुओं के प्रेम और प्रदर्शन से बचना चाहिए. हमारे चारों ओर वस्तुओं की बाढ़ आई हुई है और इसने हमें भी वस्तु बना दिया है. हम वस्तुओं में ही सोचने लगे हैं, जीने लगे हैं, यहां तक कि सामाजिक संबंध भी वस्तुओं में देखने लगे हैं. पतन की हद तो यह है कि हमारे नवोदित हिन्दी लेखक अपनी वस्तुओं जैसे मेरा मकान, मेरी गाड़ी, मेरा फर्नीचर, मेरी दीवार, मेरी पेंटिंग, मेरी घड़ी, मेरा बैग आदि जिस तरह बोलते हैं, उससे यही लगता है कि अब वस्तुएं जीत रही हैं, मनुष्य हार रहा है. वस्तु से बड़ा है मनुष्य और सिर्फ मनुष्य, यह बात हमारे जंगीलेखक क्यों भूल गए हैं ?
आज साहित्य से लेकर जीवन तक सारवान भौतिक तत्व घट रहा है. साहित्यकार निर्मित बहसें, निर्मित यथार्थ और निर्मित प्रशंसा में मगन हैं. इनमें कहीं पर भी सबस्टेंस नहीं नजर आ रहा. जो लेखक भूमंडलीकरण पर बहस कर रहे हैं वे उसका क-ख-ग तक नहीं जानते, जो बाजारवाद को कोस रहे हैं वे कभी बाजार नहीं गए. सवाल यह है कि सारवान भौतिक जीवन के बिना यह कैसा साहित्य और साहित्यकार हमारे बीच में आया है, इसकी पड़ताल करने की जरूरत है.
इतिहास का आधार प्रेमचंद क्यों नहीं ?
हिन्दी साहित्य के दो महत्वपूर्ण इतिहास ग्रंथ रामचन्द्र शुक्ल का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखित ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ का प्रकाशन एक दशक के दौरान होता है. यह दशक प्रेमचंद के साहित्य का चरमोत्कर्ष भी है. शुक्लजी और द्विवेदीजी ने प्रेमचंद की उपेक्षा करके क्रमश: तुलसीदास और कबीर को इतिहासदृष्टि का आधार क्यों बनाया ?
शुक्लजी ने छायावाद से ‘कल्पना’ और द्विवेदीजी ने प्रगतिशील आंदोलन से ‘विचारधारा’ को ग्रहण करते हुए अपनी इतिहासदृष्टि का निर्माण किया, आज ये दोनों ही तत्व अप्रासंगिक हैं. मजेदार बात यह है कि उस समय भी ये दोनों तत्व प्रेमचंद के सामने बौने थे. ऐसी अवस्था में प्रेमचंद को इतिहासदृष्टि का आधार न बनाकर तुलसी और कबीर के आधार पर हिंदी को कैसी इतिहासदृष्टि मिली ? क्या इससे मध्यकालीनबोध पुख्ता हुआ या कमजोर हुआ ? छायावाद और प्रगतिशील आंदोलन अब इतिहास की चीज हैं, किंतु प्रेमचंद नहीं हैं ?
हिंदी के आलोचकगण प्रेमचंद को अपनी इतिहासदृष्टि का आधार बनाने से कन्नी क्यों काट रहे हैं ? प्रेमचंद के नजरिए के बुनियादी तत्वों को आत्मसात करके साहित्येतिहास लिखा जाएगा तो ज्यादा बेहतर इतिहास बनेगा. बुनियादी सवाल है क्या प्रेमचंद को आधार बनाकर साहित्येतिहास दृष्टि का निर्माण संभव है ? जी हां संभव है. प्रेमचंद पूरी तरह आधुनिक लेखक हैं. कम्पलीट आधुनिक लेखक के उपलब्ध रहते हुए आखिरकार इतिहासकारों को मध्ययुगीन साहित्यकार को अपनी इतिहासदृष्टि का आधार बनाने की जरूरत क्यों पड़ी ?
तुलसी या कबीर के नजरिए से प्रभावित इतिहास दृष्टि मौजूदा युग के लिहाज से एकदम अप्रासंगिक है. इसमें मध्यकालीनता के दबाव चले आए हैं. इनका तमाम किस्म की प्रतिक्रियावादी ताकतें और निहित स्वार्थी तत्व सांस्थानिक तौर पर दुरूपयोग कर रहे हैं. आज भी अधिकांश हिंदी विभागों में मध्यकालीनता का वर्चस्व है. इतिहास आधुनिक अनुशासन है. इसके निर्माण का नजरिया भी आधुनिकयुग से ही लिया जाना चाहिए.
सम्प्रति इतिहासदृष्टि के अनिवार्य तत्व हैं बहुभाषिकता, बहुस्तरीय यथार्थ ,संपर्क और संवाद. इन चारों तत्वों के आधार पर साहित्येतिहास पर विचार किया जाना चाहिए. ये चारों तत्व प्रेमचंद के यहां व्यापक रूप में मिलते हैं. इन तत्वों को लागू करने से मौजूदा दौर में इतिहास के सामने जो चुनौतियां आ रही हैं, उनके सटीक समाधान खोजने में मदद मिलेगी. खासकर साहित्येतिहास को लेकर जो रूढिवाद पैदा हुआ है उससे मुक्ति मिलेगी. साथ ही उन तमाम विवादास्पद क्षेत्रों को भी साहित्य का अंग बनाने में मदद मिलेगी जिन्हें हम दलित साहित्य, स्त्री साहित्य, शीतयुद्धीय साहित्य, जनवादी साहित्य आदि कहते हैं.
प्रेमचंद ने खुले पाठ की हिमायत की है. पारदर्शिता को पाठ का अनिवार्य हिस्सा बनाया है. इस परिप्रेक्ष्य में हमें प्रत्येक को पाठ खोलना चाहिए. पाठ के खुलेपन की बात करनी चाहिए. व्याख्याकार हमेशा पाठ से संवाद के दौरान बाहर होता है. अर्थ के बाहर होता है. पाठ का अर्थ संदर्भ हमेशा दृश्य अर्थ संदर्भ से जुड़ता है. वक्तृता में अनेक अर्थ होते हैं. पाठ अनेक ध्वनियों से भरा होता है. भाषिक अर्थ अमूमन गुप्त होता है. संबंधित युग का भाषिक अर्थ सांस्कृतिक संदर्भ के उद्धाटन से ही बाहर आता है. पाठ को पाठक केन्द्रित नजरिए से पढ़ा जाना चाहिए. पाठक केन्द्रित रणनीति के कारण डाटा को आप भिन्न नजरिए से देखते हैं.
प्रेमचंद जिस समय उपन्यास लिख रहे थे वह समय बहुस्तरीय यथार्थ के रूपायन का युग है. उस युग में अनेक आवाजें हैं. ये आवाजें उनके विभिन्न उपन्यासों में देखी जा सकती हैं. वहां एक ही विचारधारा का चित्रण नहीं है, एक ही वर्ग अथवा सिर्फ पसंदीदा वर्ग का चित्रण नहीं है. वह एक ही साथ विषय और चेतना के विभिन्न रूपों को चित्रित करते हैं. उनमें ‘सहस्थिति’ और ‘संपर्क’ का चित्रण करते हैं. सामाजिक जीवन की अनेक ध्वनियों को अभिव्यंजित करते हैं. बहुस्तरीय अन्तर्विरोधी चीजों में शिरकत करते हैं. उनके यहां विभिन्न वर्गों के बीच ‘तनाव’, ‘अन्तर्विरोध’ और ‘संपर्क’ एक ही साथ देख सकते हैं. उनके उपन्यासों की बहुस्तरीय चेतना एक-दूसरे के साथ संपर्क करती है. पूंजीवादी वातावरण की अनछुई चीजों, विभिन्न लोगों और सामाजिक समूहों को पहली बार साहित्य में अभिव्यक्ति मिलती है. उनके इस तरह के चित्रण से व्यक्तिगत अलगाव कम होता है.
प्रेमचंद पहले बड़े लेखक हैं जिन्होंने सामाजिक जीवन में बहुस्तरीय यथार्थ को स्वीकृति दी है, उसकी तमाम संभावनाओं को समानता के धरातल पर खोला है. वह यथार्थ के किसी भी रूप के साथ भेदभाव नहीं करते. वह इस तथ्य को भी चित्रित करते हैं कि विभिन्न वर्गों में ‘सहस्थिति’ और ‘संपर्क’ है. इस तरह की प्रस्तुतियों के आधार पर हमें साहित्येतिहास के अंतरालों और अन्तर्क्रियाओं को खोलने में मदद मिल सकती है.
प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में ‘टाइम’ की बजाय ‘स्पेस’ के संदर्भ में चीजों को प्रस्तुत किया है. इस परिप्रेक्ष्य के कारण ‘प्रत्येक चीज सह-अवस्थान’ में दिखाई देती है. अनेक चीजों को एक ही साथ देखते हैं. जो चीजें ‘टाइम’ में अवस्थित हैं उनके स्पेस का नाटकीय रूपायन करते हैं. स्पेस में प्रस्तुति के कारण आंतरिक अन्तर्विरोधों और व्यक्ति के विकास के आंतरिक चरणों का चित्रण करते हैं.
प्रेमचंद के पाठ में एकल और बहुअर्थी आवाजें एक ही साथ देखी जा सकती हैं. एक ही वातावरण और एक ही वर्ग में विभिन्न रंगत के चरित्रों की बजाय बहुरंगी और बहुवर्गीय चरित्रों का चित्रण किया है. प्रेमचंद जितनी गहराई में जाकर किसान का चित्रण करते हैं, उतनी ही गहराई में जाकर जमींदार का भी चित्रण करते हैं. इस तरह की सहस्थिति प्रेमचंद को बहुलतावादी बनाती है. तुलसी और कबीर का नजरिया इस अर्थ में आज बहुलतावाद के संदर्भ में हमारी वैसी मदद नहीं करता जैसा प्रेमचंद करते हैं.
प्रेमचंद अन्य प्रगतिशील लेखकों से भी इसलिए भिन्न हैं क्योंकि प्रगतिशील लेखकों की दृष्टि एकल आवाज को अभिव्यक्त करने में लगी रही है, इसके विपरीत प्रेमचंद ने बहुअर्थी आवाजों को अभिव्यक्ति दी है. एकल आवाज का लेखक अपनी रचना को महज एक वस्तु में तब्दील कर देता है, जबकि बहुअर्थी आवाज रचना को जनप्रिय बना देती है. एकल अभिव्यक्ति में पात्र निष्पन्न रूप में आते हैं. वे लेखक की आवाज को व्यक्त करते हैं. कहानी के सभी स्तर लेखक के नजरिए का विस्तार हैं. इससे यह भी संदेश निकलता है कि लेखक पाठ के बाहर होता है, सृजन के बाहर होता है. फलत: विचार सुचिंतित, निष्पन्न और नियोजित एकल आवाज में व्यक्त होते हैं. बहुअर्थी रचना में दाखिल होते समय पाठक चाहे तो अपने लिए एकल अर्थ भी खोज सकता है और चाहे तो उसके बाहर बहुअर्थी आवाजों को भी सुन सकता है.
प्रेमचंद की दुनिया धार्मिक वैविध्य के साथ संपर्क करती है, उसके साथ सह-अवस्थान करती है, इससे वह एकीकृत स्प्रिट पैदा करने की कोशिश नहीं करते. इस तरह का वातावरण मानवीय चेतना के गहरे स्तरों को उद्धाटित करने में मददगार साबित होता है. उनके दृष्टिकोण का लक्ष्य चेतना को विकसित करके विचार के स्तर तक ले जाता है, ये विचार अन्य की चेतना के साथ संपर्क करते हैं. मानवीय यथार्थ के आंतरिक और बाहरी अनुभवों को एक साथ चित्रित करते हैं.
प्रेमचंद ने सृजन में कलात्मक रूपों का इस्तेमाल किया है. एक लेखक के नाते प्रेमचंद ने जिंदगी की चेतना और उसके जीवंत रूपों को जीवंत सह-अवस्थान के साथ प्रस्तुत किया है. उनकी रचनाओं में ऐसी भी सामग्री है जो समाजशास्त्रियों के भी काम आ सकती है.
लेखक कहानी संदर्भ बनाता है, जिसमें चरित्र और विभिन्न किस्म की आवाजें शामिल रहती हैं. उनके अंतिम वाक्य पर नियंत्रण रखता है, कालक्रम निर्धारित करता है. फलत: हम तक आवाजें पहुंचती हैं. इन आवाजों को वह हीरो के इर्द-गिर्द एकत्रित करते हुए सघन और प्रच्छन्न अभिव्यक्ति के वातावरण को निर्मित करता है.
कहानी का सत्य हीरो की चेतना का सत्य बनकर सामने आता है. इस तरह की प्रस्तुति में अनुपस्थित को खोजना मूलकार्य नहीं है बल्कि लेखक की पोजीशन में जो बुनियादी परिवर्तन आए हैं, उन्हें देखना चाहिए. जो लोग नजरिए को देखते हैं उन्हें जिंदगी के बहुरंगेपन और बहुअर्थीपन को ध्यान में रखना चाहिए. उपन्यास में सामाजिक जगत की बहुअर्थी दुनिया के साथ महान् संवाद भी रहते हैं, जिनका उपन्यासकार सृजन करता है.
प्रेमचंद की कहानियों में पाठक जब अपने नजरिए के आधार पर बाहर से भीतर की ओर प्रवेश करता है तब क्या होता है ? ऐसे में लेखक का एकल नजरिया और एकल चेतना गायब हो जाती है. वह कहानी के चरित्रों की विश्वचेतना से अपने को जोड़ता है. अपने निजी नजरिए के साथ तुलना करता है. इस क्रम में वह बदलता है. फलत: पाठक को पढ़ने का सुख और परिवर्तन का सुख ये दोनों ही किस्म के सुख पाठक को प्राप्त होते हैं.
प्रेमचंद की कहानियों की व्यापक व्याख्याएं हुई हैं. मूल्यांकन का यह वैविध्य एक ही संदेश देता है कि कहानी का अंतिम सत्य तय नहीं किया जा सकता. चरित्रों का अपने अंतिम वाक्य पर नियंत्रण नहीं रहता. पाठकों का बहुरंगी नजरिया कहानी के बहुअर्थीपन के साथ सामंजस्य बिठाकर नए अर्थ की सृष्टि करता है.
प्रेमचंद की सबसे बड़ी देन है कि हम उनके युग की आवाजें सुन रहे हैं. उनके युग के संवाद सुनना बहुत बड़ी उपलब्धि है. उनके लेखन में से एकल आवाज को खोज निकालना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना महत्वपूर्ण है विभिन्न आवाजों के बीच का संवाद. इस क्रम में युग का स्वर मुखर हो उठा है. इन आवाजों में प्रभुत्वशाली विचार हैं, साथ ही कमजोर आवाजें भी हैं. ऐसे विचार भी हैं जो अभी विकसित नहीं हुए हैं. ऐसी आवाजें हैं जिन्हें लेखक के अलावा कोई नहीं सुनता. ऐसे विचार भी हैं जिनका अभी श्रीगणेश हुआ है. इनमें भावी विश्वदृष्टि छिपी है.
उनके यहां तात्कालिक तौर पर यथार्थ खत्म नहीं होता बल्कि यथार्थ का व्यापक हिस्सा लटका रहता है, जिसमें भावी जगत नजर आता है. कहानी स्पेस और सामाजिक स्पेस के बीच संपर्क होता है, आदान-प्रदान होता है. इस प्रक्रिया के दौरान ही प्रेमचंद अपने साहित्य को सामाजिक-ऐतिहासिक पुनर्निर्माण के काम की सामग्री बना देते हैं. प्रेमचंद का समग्र लेखन संवाद है. जीवन भी संवाद है. यही संवादात्मक वैपरीत्य है. प्रेमचंद जब सभी चीजों को संवाद बनाते हैं तो उन्हें दार्शनिक भी बनाते हैं. प्रत्येक चीज को सरल बनाते हैं. सरल को संसार बनाते हैं. संसार को सरल बनाते हैं. संसार की जटिल और संश्लिष्ट संरचनाओं को सरल बनाते हैं.
उनकी प्रत्येक आवाज में दो आवाजें सुन सकते हैं. एक-दूसरे को चुनौती देने वाली आवाजें भी सुन सकते हैं. प्रत्येक अभिव्यक्ति का रूप तुरंत ही टूटता है और आगे जाकर अन्तर्विरोधी अभिव्यक्ति बन जाता है. प्रत्येक भाव-भंगिमा में आत्मविश्वास झलकता है साथ ही आत्मविश्वास का अभाव भी झलकता है. प्रत्येक फिनोमिना में प्रेमचंद दुविधा और अस्पष्टता चित्रित करते हैं. बहुस्तरीय दुविधा छोड़ते हैं.
प्रेमचंद एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिनकी संवादात्मक प्रकृति है. प्रेमचंद की भाषा ‘संवादात्मक संबंधों’ पर टिकी है, फलत: उससे सभी किस्म का मानवीय संप्रेषण होता है. प्रेमचंद का ‘संवादात्मक’ रूप व्यक्तिवाद विरोधी है. यह देखना बड़ा ही दिलचस्प होगा कि प्रेमचंद ने अपनी कहानी और उपन्यास में व्यापक पैमाने पर ‘संवाद’ का इस्तेमाल क्यों किया ?
लड़कियों की हिमायत में प्रेमचंद
प्रेमचंद का मानना था कि ‘लड़कियों को अच्छी शिक्षा दी जाय और उन्हें संसार में अपना रास्ता आप बनाने के लिए छोड़ दिया जाय, उसी तरह जैसे हम अपने लड़कों को छोड़ देते हैं. उनको विवाहित देखने का मोह हमें छोड़ देना चाहिए और जैसे युवकों के विषय में उनके पथभ्रष्ट होने की परवाह नहीं करते, उसी प्रकार हमें लड़कियों पर भी विश्वास करना चाहिए. तब यदि वह गृहिणी-जीवन बसर करना चाहेंगी, तो अपनी इच्छानुसार अपना विवाह कर लेंगी, अन्यथा अविवाहित रहेंगी.
‘और सच पूछो तो यही मुनासिब भी है. हमें कोई अधिकार नहीं है कि लड़कियों की इच्छा के विरूद्ध केवल रूढ़ियों के गुलाम बनकर, केवल भय से कि खानदान की नाक न कट जाये, लड़कियों को किसी न किसी के गले मढ़ दें. हमें विश्वास रखना चाहिए कि लड़के अपनी रक्षा कर सकते हैं तो लड़कियां भी अपनी रक्षा कर लेंगी.’
प्रेमचंद और ईश्वर
हमारे कई सोशल मीडिया मित्रों ने कहा है कि प्रेमचंद तो ईश्वर को मानते थे. हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं कि वे ईश्वर या ऐसे किसी तत्व की उपस्थिति मानने को तैयार नहीं थे जिसे देखा न हो. यह भी सवाल उठा है कि प्रेमचंद ने इस्लाम धर्म की आलोचना कहां की है ॽ हम इन दोनों सवालों के जवाब खोजने की कोशिश करेंगे.
हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव का विस्तार से जिक्र करने के बाद प्रेमचंद ने ‘मनुष्यता का अकाल’ (जमाना, फरवरी 1924) निबंध में लिखा -‘इतिहास में उत्तराधिकार में मिली हुई अदावतें मुश्किल से मरती हैं, लेकिन मरती हैं, अमर नहीं होतीं.’ उपरोक्त निष्कर्ष निकालने के पहले प्रेमचंद ने ‘मनुष्यता का अकाल’ में ही लिखा, ‘हमको यह मानने में संकोच नहीं है कि इन दोनों सम्प्रदायों में कशमकश और सन्देह की जड़ें इतिहास में हैं. मुसलमान विजेता थे, हिन्दू विजित. मुसलमानों की तरफ से हिन्दुओं पर अकसर ज्यादतियां हुईं और यद्यपि हिन्दुओं ने मौका हाथ आ जाने पर उनका जवाब देने में कोई कसर नहीं रखी, लेकिन कुल मिलाकर यह कहना ही होगा कि मुसलमान बादशाहों ने सख्त से सख्त जुल्म किये.
हम यह भी मानते हैं कि मौजूदा हालात में अज़ान और कुर्बानी के मौक़ों पर मुसलमानों की तरफ से ज्यादतियां होती हैं और दंगों में भी अक्सर मुसलमानों ही का पलड़ा भारी रहता है. ज्यादातर मुसलमान अब भी ‘मेरे दादा सुल्तान थे’ नारे लगाता है और हिन्दुओं पर हावी रहने की कोशिश करता रहता है.’ इसी निबंध में पहली बार धार्मिक प्रतिस्पर्धा को निशाना बनाते हुए उन्होंने तीखी आलोचना लिखी. उस तरह की आलोचना सिर्फ ऐसा ही लेखक लिख सकता है जिसकी ईश्वर की सत्ता में आस्था न हो.
उन्होंने लिखा, ‘दुनियावी मामलों में दबने से आबरू में बट्टा लगता है, दीन-धर्म के मामले में दबने से नहीं.’ आगे लिखा ‘यह किसी मज़हब के लिए शान की बात नहीं है कि वह दूसरों की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाये. गौकशी के मामले में हिन्दुओं ने शुरू से अब तक एक अन्यापूर्ण ढंग अख़्तियार किया है. हमको अधिकार है कि जिस जानवर को चाहें पवित्र समझें लेकिन यह उम्मीद रखना कि दूसरे धर्म को माननेवाले भी उसे वैसा ही पवित्र समझें, ख़ामख़ाह दूसरों से सर टकराना है. गाय सारी दुनिया में खायी जाती है, इसके लिए क्या आप सारी दुनिया को गर्दन मार देने क़ाबिल समझेंगे ॽ यह किसी खूं-खार मज़हब के लिए भी शान की बात नहीं हो सकती कि वह सारी दुनिया से दुश्मनी करना सिखाये.’
आगे लिखा ‘हिन्दुओं को अभी यह जानना बाक़ी है कि इन्सान किसी हैवान से कहीं ज्यादा पवित्र प्राणी है, चाहे वह गोपाल की गाय हो या ईसा का गधा, तो उन्होंने अभी सभ्यता की वर्णमाला भी नहीं समझी. हिन्दुस्तान जैसे कृषि-प्रधान देश के लिए गाय का होना एक वरदान है, मगर आर्थिक दृष्टि के अलावा उसका और कोई महत्व नहीं है लेकिन गोरक्षा का सारे हो-हल्ले के बावजूद हिन्दुओं ने गोरक्षा का ऐसा सामूहिक प्रयत्न नहीं किया जिससे उनके दावे का व्यावहारिक प्रमाण मिल सकता. गौरक्षिणी सभाएं कायम करके धार्मिक झगड़े पैदा करना गो रक्षा नहीं है.’
प्रेमचंद का मानना है ‘वर्तमान समय में धर्म विश्वासों के संस्कार का साधन नहीं, राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि का साधन बना लिया गया है. उसकी हैसियत पागलपन की-सी हो गयी है जिसका वसूल है कि सब कुछ अपने लिए और दूसरों के लिए कुछ नहीं. जिस दिन यह आपस की होड़ और दूसरे से आगे बढ़ जाने का ख़याल धर्म से दूर हो जायेगा, उस दिन धर्म-परिवर्तन पर किसी के कान नहीं खड़े होंगे.’
प्रेमचंद ने हिन्दू और मुसलमानों को धर्म के नाम पर भड़काने वालों और धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों की तीखी आलोचना की है. ‘मिर्जापुर कांफ्रेस में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव’ (अप्रैल1931) में लिखा ‘जब तक अपना हिन्दू या मुसलमान होना न भूल जायेंगे, जब तक हम अन्य धर्मावलम्बियों के साथ उतना ही प्रेम न करेंगे जितना निज धर्मवालों के साथ करते हैं, सारांश यह कि जब तक हम पंथजनित संकीर्णता से मुक्त न हो जायेंगे, इस बेड़ी को तोड़कर फेंक न देंगे, देश का उद्धार होना असंभव है.’ इसमें ही वे आगे कहते हैं ‘धर्म को राजनीति से गड़बड़ न कीजिए.’
एक अन्य निबंध ‘गोलमेज़ परिषद में गोलमाल’ (अक्टूबर, 1931) में लिखा – ‘भारत का उद्धार अब इसी में है कि हम राष्ट्र-धर्म के उपासक बनें, विशेष अधिकारों के लिए न लड़कर, समान अधिकारों के लिए लड़ें. हिन्दू या मुसलमान, अछूत या ईसाई बनकर नहीं, भारतीय बनकर संयुक्त उन्नति की ओर अग्रसर हों, अन्यथा हिन्दू मुसलमान, अछूत और सिक्ख सब रसातल को चले जायेंगे.’
उन्होंने यह भी लिखा – ‘धर्म का सम्बन्ध मनुष्य से और ईश्वर से है. उसके बीच में देश, जाति और राष्ट्र किसी को भी दखल देने का अधिकार नहीं. हम इस विषय में स्वाधीन हैं.’ शिवरानी देवी से बातचीत करते हुए प्रेमचंद ने ईश्वर के बारे में कहा – ‘ईश्वर पर विश्वास नहीं होता कि अगर वह सचमुच ईश्वर है तो क्या दु:खियों को दु:ख देने में ही उसे मजा आता है ? फिर भी लोग उसे दयालु कहते हैं. वह सबका पिता है. फला-फूला बाग उजाड़कर वह देखता है और खुश होता है. दया तो उसे आती नहीं. लोगों को रोते देखकर शायद से खुशी ही होती है. जो अपने आश्रितों के दु:ख पर दु:खी न हो, वह कैसा ईश्वर है ?’
आगे वकौल शिवरानी देवी प्रेमचन्द पूछते हैं – ‘तब कैसे ईश्वर हमसे अन्याय कराता है ? जो अच्छा समझे वही हमसे कराये. हम जिससे दु:खी न हो सकें. कुछ नहीं. यह सब धोखे में डालने वाली भावनायें हैं, बस अपने को धोखे में डालने के लिए यह सब प्रपंच रचे गए हैं. और नहीं तो हम प्रत्यक्षतः कोई बुरा काम नहीं करते तो लोग कहते हैं अगले जन्म में बुरा काम किया होगा, उसी का फल है और मैं कहता हूं – यह सब गोरखधंधा है.’ प्रेमचंद मानते थे – ‘भगवान मन का भूत है, जो इन्सान को कमजोर कर देता है. ईश्वर का आधार अन्धविश्वास है और इस अंधविश्वास में पड़ने से तो रही सही अक्ल भी मारी जाती है.’
प्रेमचंद का जैनेन्द्र के साथ लगातार पत्र-व्यवहार होता था. दोनों गहरे मित्र थे. प्रेमचन्द ने 9 दिसम्बर 1935 को जैनेन्द्र कुमार को लिखा – ‘ईश्वर पर विश्वास नहीं आता. कैसे श्रद्धा होती ? तुम आस्तिकता की ओर जा रहे हो, जा ही नहीं रहे हो बल्कि भगत बन गये हो. मैं संदेह से पक्का नास्तिक होता जा रहा हूं.’ और एक दिन जैनेन्द्र कुमार को दो-टूक उत्तर दे दिया, – ‘जब तक संसार में यह व्यवस्था है, मुझे ईश्वर पर विश्वास नहीं आने का. अगर मेरे झूठ बोलने से किसी की जान बचती है तो मुझे कोई संकोच नहीं होगा. मैं प्रत्येक कार्य को उसके मूल कारण से परखता हूं. जिससे दूसरों का भला न हो, जिससे दूसरों का नुकसान हो वही झूठ है.’
मृत्यु से कुछ दिन पहले रोग-शैय्या पर पड़े हुए प्रेमचंद ने जैनेन्द्र कुमार से कहा – ‘जैनेन्द्र, लोग इस समय ईश्वर को याद किया करते हैं. मुझे भी याद दिलाई जाती है. पर अभी तक मुझे ईश्वर को कष्ट देने की जरूरत नहीं मालूम हुई’, ‘जैनेन्द्र ! मैं कह चुका हूं. मैं परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता. मैं उतना उत्साह नहीं कर सकता. कैसे करूं जब देखता हूं बच्चा बिलख रहा है, रोगी तड़प रहा है. यहां भूख है, क्लेश है, ताप है, वह ताप इस दुनिया में कम नहीं है. तब उस दुनिया में मुझे ईश्वर का साम्राज्य नहीं दीखे तो मेरा क्या कसूर है ॽ मुश्किल तो है कि ईश्वर को मानकर उसको दयालु भी मानना होगा. मुझे वह दयालुता नहीं दीखती, तब उस दया सागर में विश्वास कैसे हो ?’
ईश्वरतंत्र पर प्रहार करते हुए प्रेमचंद ने लिखा – ‘ईश्वर के नाम पर उनके उपासकों ने भूमण्डल पर जो अनर्थ किये हैं, और कर रहे हैं, उनके देखते इस विद्रोह को बहुत पहले उठ खड़ा होना चाहिए था. आदमियों के रहने के लिये शहरों में स्थान नहीं है. मगर ईश्वर और उनके मित्रों और कर्मचारियों के लिए बड़े-बड़े मंदिर चाहिए. आदमी भूखों मर रहे है मगर ईश्वर अच्छे से अच्छा खायेगा, अच्छे से अच्छा पहनेगा और खूब विहार करेगा.’
‘कर्मभूमि’ में गजनवी के मुंह से प्रेमचंद कहलवाते हैं – ‘मज़हब का दौर खत्म हो रहा है बल्कि यों कहो कि खत्म हो गया है. सिर्फ हिन्दुस्तान में इसकी कुछ जान बाकी है. यह मुआशयात का दौर है. अब कौम में दार ब नदार, मालिक और मजदूर अपनी-अपनी जमातें बनायेंगे.’
शिवरानी देवी से बातचीत के दौरान प्रेमचंद ने नास्तिकता के सम्बन्ध में साफ कहा – ‘नास्तिकता का तब तक प्रचार संभव नहीं जब तक जनता सचेत नहीं हो जाती.’ लिखा – ‘और फिर जो जनता सदियों से भगवान पर विश्वास किये चली आ रही है, वह यकायक अपने विचार बदल सकती है ॽ अगर एकाएक जनता को कोई भगवान से अलग करना चाहे तो संभव नहीं है.’
आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने ‘इस्लाम का विष वृक्ष’ किताब लिखी. इस किताब पर प्रेमचंद ने विरोध करते हुए जैनेन्द्र कुमार को लिखा – ‘और इन को क्या हो गया है कि ‘इस्लाम का विष-वृक्ष’ ही लिख डाला. इसकी एक आलोचना तुम लिखो, वह पुस्तक मेरे पास भेजो. इस कम्युनल प्रोपेगेण्डा का जोरों से मुकाबला करना होगा.’
प्रेमचन्द का किसी भी परम्परागत धर्म में विश्वास नहीं था. इस सम्बन्ध में उर्दू के प्रसिद्ध विद्वान मुहम्मद आकिल साहब ने लिखा है ‘प्रेमचन्दजी ने मुझसे कहा कि मुझे रस्मी मज़हब पर कोई एतबार (विश्वास) नहीं है, पूजा-पाठ और मन्दिरों में जाने का मुझे शौक नहीं. शुरू से मेरी तबियत का यही रंग है. बाज़ लोगों की तबियत मज़हबी होती है. बाज़ लोगों की ला मज़हबी. मैं मज़हबी तबियत रखने वालों को बुरा नहीं कहता, लेकिन मेरी तबियत रस्मी मजहब की पाबन्दी को बिल्कुल गवारा नहीं करती.’
शिवरानी देवी से मज़हबी सवाल के जवाब में प्रेमचंद ने कहा – ‘अवश्य मेरे लिए कोई मज़हब नहीं है. मेरा कोई खास मज़हब नहीं है.’ इसका कारण क्या है ॽ इसका कारण है – ‘धर्म से ज्यादा द्वेष पैदा करने वाली वस्तु संसार में नहीं है’, ‘आज दौलत जिस तरह आदमियों का खून बहा रही है, उसी तरह उससे ज्यादा बेदर्दी धर्म ने आदमियों का खून बहाकर की. दौलत कम से कम इतनी निर्दयी नहीं होती, इतनी कठोर नहीं होती. दौलत वही कर रही है जिसकी उससे आशा थी, लेकिन धर्म तो प्रेम का संदेश लेकर आता है और काटता है आदमियों के गले. वह मनुष्य के बीच ऐसी दीवार खड़ी कर देता है, जिसे पार नहीं किया जा सकता.’
शिवरानी जी ने प्रेमचंद से सवाल किया आप मुसलमानों की ओर हैं या हिन्दुओं की ओर ? जवाब दिया – ‘मैं एक इन्सान हूं और जो इन्सानियत रखता हो, इन्सान का काम करता हो, मैं वही हूं और मैं उन्हीं लोगों को चाहता हूं. मेरे दोस्त अगर हिन्दू हैं तो मेरे कम दोस्त मुसलमान भी नहीं हैं और इन दोनों में मेरे नजदीक कोई खास फ़र्क नहीं है. मेरे लिए दोनों बराबर हैं.’
कॉकटेल के बिना प्रेमचंद का जन्मदिन !
कल्पना करें प्रेमचंद यदि भारत के इन दिनों प्रधानमंत्री होते तो देश में किस तरह उनका जन्मदिन मनता ? क्या कोई भी मुख्यमंत्री और विश्वविद्यालय उनके जन्मदिन की उपेक्षा करता ? सोशल मीडिया पर बातें करते समय हमें इन दिनों लेखकों के खान-पान की कहानियां बहुत सुनने को मिलती हैं. मसलन फलां लेखक वहां पीते मिला, वहां चुस्की ले रहा था. वहां पार्टी में फलां बड़े लेखक की बगल में बैठकर बतियाने का मौका मिला.
पुस्तक लोकार्पण अब बिना कॉकटेल पार्टी के नहीं होता. शाम को दिल्ली में हर नामी लेखक फ्री की बोतल की तलाश में सुबह से ही लग जाता है. इस तरह के लेखक क्या कभी प्रेमचंद की परंपरा का विकास करेंगे ? यह तो गुलशन नंदा की परंपरा है. आप चाहें तो इसे दूसरी परंपरा भी कह सकते हैं. प्रेमचंद की परंपरा बिना कॉकटेल की है और यह पहली परंपरा है.
साम्प्रदायिकता अंधविश्वास और प्रेमचंद
प्रेमचंद की महानता इस बात में है कि वे साम्प्रदायिकता के जहर को अच्छी तरह पहचानते थे. उन्होंने उस धारणा का खण्डन किया जिसके तहत अच्छी और बुरी साम्प्रदायिकता का वर्गीकरण करके अनेक लोग काम चलाते हैं. दुर्भाग्य यह है भारत में अनेक लोगों को साम्प्रदायिक दल में अपने हित, समाज के हित भी सुरक्षित नजर आने लगे हैं. इस तरह के लोगों को ध्यान में रखकर प्रेमचंद ने लिखा-
‘इंडियन सोशल रिफ़ार्मर अंग्रेजी का समाज सुधारक पत्र है और अपने विचारों की उदारता के लिए मशहूर है. डाक्टर आलम के ऐंटी – कम्युनल लीग की आलोचना करते हुए, उसने कहा है कि साम्प्रदायिकता अच्छी भी है बुरी भी. बुरी साम्प्रदायिकता को उखाड़ फेंकना चाहिए. मगर अच्छी साम्प्रदायिकता वह है जो अपने क्षेत्र में बड़ा उपयोगी काम कर सकती है, उनकी क्यों अवहेलना की जाय.
‘अगर साम्प्रदायिकता अच्छी हो सकती है तो पराधीनता भी अच्छी हो सकती है, मक्कारी भी अच्छी हो सकती है, झूठ भी अच्छा हो सकता है क्योंकि पराधीनता में जिम्मेदारी से बचत होती है, मक्कारी से अपना उल्लू सीधा किया जाता है और झूठ से दुनिया को ठगा जाता है. हम तो साम्प्रदायिकता को समाज का कोढ़ समझते हैं, जो हर एक संस्था में दलबन्दी कराती है और अपना छोटा -सा दायरा बना सभी को उससे बाहर निकाल देती है.’
प्रेमचंद ने भेड़चाल पर लिखा था – ‘हममें मस्तिष्क से काम लेने की मानों शक्ति ही नहीं रही. दिमाग को तकलीफ नहीं देना चाहते. भेड़ों की तरह एक दूसरे के पीछे दौड़े चले जाते हैं, कुएं में गिरें या खन्दक में, इसका गम नहीं. जिस समाज में विचार मंदता का ऐसा प्रकोप हो, उसको संभलते बहुत दिन लगेंगे.’ – ‘देश में जब ऐसी आर्थिक दशा फैली हुई है कि करोड़ों मनुष्यों को एक वक्त सूखा चना भी मयस्सर नहीं, दस हजार का घी और सुगन्ध जला डालना न धर्म है, न न्याय है. हम तो कहेंगे ,यह सामाजिक अपराध है.’
प्रेमचंद लिखते हैं – ‘ग्रहण स्नान और सोमवती स्नान और लाखों तरह के स्नानों की बला हिन्दुस्तान के सिर से कभी टलेगी भी या नहीं, समझ में नहीं आता. आज भी संसार में ऐसे अन्धविश्वास की गुंजाइश है तो भारत में. अब भी करोड़ों आदमी यही समझते हैं कि सूरज भगवान और चन्द्र भगवान पर संकट आता है और उस संकट पर गंगा स्नान करना प्रत्येक प्राणी का धर्म है. कितने अच्छे खासे पढ़े-लिखे लोग भी इतनी आस्था में गंगा में डुबकियां लगाते हैं, मानो यही स्वर्ग द्वार हो. लाखों आदमी अपनी गाढ़े पसीने की कमायी खर्च करके, धक्के खाकर, पशुओं की भांति रेल में लादे जाकर, रेले में जानें गंवाकर, नदी में डूबकर स्नान करते हैं, केवल अन्धविश्वास में पड़कर.’
प्रेमचंद और भाषा समस्या
एक है मीडिया की भाषा और दूसरी जनता की भाषा. मीडिया की भाषा और जनता की भाषा के संप्रेषण को एकमेक करने से बचना चाहिए. प्रेमचंद ने भाषा के प्रसंग में एक बहुत ही रोचक उपमा देकर भाषा को समझाने की कोशिश की है, उन्होंने लिखा है – ‘यदि कोई बंगाली तोता पालता है तो उसकी राष्ट्रभाषा बंगला होती है. उसी तोते की सन्तान किसी हिन्दी बोलनेवाले के यहां पलकर हिन्दी को ही अपनी मादरी-जबान बना लेता है. बाज़ तोते तो अपनी असली भाषा यहां तक भूल जाते हैं कि ‘टें-टें’ भी कभी नहीं कहते.
‘ठीक इसी प्रकार कुछ नये रंग के भारतीय हिन्दी इतनी भूल जाते हैं कि अपने मां-बाप को भी वे अंग्रेजी में खत लिखा करते हैं. विलायत से लौटकर ‘तुम’ को ‘टुम’ कहना मामूली बात है. हम भारतीय भाषा के विचार में भी अंग्रेजों के इतने दास हो गए हैं कि अन्य अति धनी तथा सुन्दर भाषाओं का भी हमें कभी ध्यान नहीं आता.’
प्रेमचन्द ने ‘शान्ति तथा व्यवस्था’ की भाषा के प्रसंग में अंग्रेजी मीडिया के अखबारों पर जो बात कही है, वह आज के बहुत सारे अंग्रेजी मीडिया पर शत-प्रतिशत लागू होती है. प्रेमचंद ने लिखा है ‘विलायती समाचार-पत्र डेली टेलीग्राफ या डेली मिरर या डेली न्यूज (तीनों ही लन्दन के हैं तथा अनुदापदल के प्रमुख पत्र हैं) जो अंग्रेजी में ही छपते हैं, पर इंग्लैंड की राजनीति के अधिकांश सूत्र प्रायः इन्हीं के हाथ में हैं और इनकी भाषा प्रायः सबसे अधिक कटु, दुष्ट, जहरीली और निंद्य होती है.’
अंग्रेजी मीडिया की भाषा को जिस रूप में यहां विश्लेषित किया गया है वह बात आज भी अनेक मीडिया के संदर्भ में अक्षरशः सच है. भारत में टाइम्स नाउ टीवी चैनल इसका आदर्श नमूना है. उत्तर-आधुनिक विमर्श की शुरूआत संस्कृति के क्षेत्र से हुई. यही वजह है इसकी शैतानियों का जन्म भी यहीं हुआ. आज भी विवाद का क्षेत्र यही है. प्रश्न उठता है संस्कृति के क्षेत्र में ही यह उत्पात शुरू क्यों हुआ ?
असल में संस्कृति का क्षेत्र आम जीवन की हलचलों का क्षेत्र है और साम्राज्यवादी विस्तार की अनन्त संभावनाओं से भरा है. पूंजी, मुनाफा और प्रभुत्व के विस्तार की लड़ाईयां इसी क्षेत्र में लड़ी जा रही हैं. भाषा व्यक्तिगत तथा ऐतिहासिक स्मरण की वस्तु है. यह न केवल वर्षों के स्थायी आत्म-अनुभव को संजोने में सक्षम बनाती है बल्कि भविष्य में अपने आपको अवस्थित करने में, ऐतिहासिक स्मरण का उपयोग करने में सहायता करती है. भाषा हमें भविष्य की ओर उन्मुख रहते हुए अतीत में जाने में सक्षम बनाती है.
अतीत के अनुभव लाभ-हानि, जय-पराजय, खुशी-गम, वर्तमान की परिस्थिति के बारे में कुछ कह सकते हैं; वे प्रेरणा, सबक तथा वर्तमान के लिए उम्मीद की किरण दे सकते हैं. भविष्य में पहुंचने के क्रम में हम अतीत में वापस आ सकते हैं, और ऐसा करने में भाषा हमारी मदद करती है. भाषा हमें उन अर्थों के निर्माण के लिए संसाधन प्रदान करती है, जो भविष्य की ओर अग्रसर होते हैं. ये उन संभावनाओं की ओर इशारा करते हैं जो वर्तमान में हमारे अनुभव से परे होती है और कई संसाधन जो भाषा हमें उपलब्ध कराती है, अतीत के उन अर्थों से व्युत्पन्न होते हैं जो हमारे लिए समाप्त हुए नहीं रहते, बल्कि वे हमारी भाषा में, हमारी संस्कृति में, हमारे अनुभव में जीवित रहते हैं. भारत में अधिकांश प्रतिष्ठित समाजविज्ञानी बुद्धिजीवी अपनी भाषा में नहीं लिखते, यह किस बात का सबूत है ?
एक जमाने में मध्यवर्ग बंगाली मातृभाषा में बोलना-लिखना गौरव की बात समझता था. महान वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु और सत्येन्द्र बसु जैसे लोग बंगला में विज्ञान की नई खोजों पर लिखते थे, लेकिन इन दिनों अनेक बड़े बंगाली बुद्धिजीवी हैं जो बंगला में नहीं लिखते, यह हम सबके लिए चिन्ता की बात है. एक अन्य समस्या है वह है संचार क्रांति की मूलभाषा अंग्रेजी है.
अंग्रेजी कम्प्यूटर की मूलभाषा है, इसमें जनभाषाओं की देर से शुरूआत हुई है. इसका कु-फल है कि कम्प्यूटर में जनभाषाएं हैं लेकिन भारतवासी उनका न्यूनतम इस्तेमाल करते हैं. सिर्फ किताब-पत्र-पत्रिका प्रकाशन में जनभाषाओं की मदद लेते हैं, बाकी सब काम अंग्रेजी में कर रहे हैं. यह स्थिति बदलनी चाहिए. प्रतिष्ठित लेखक-प्रोफेसर-पत्रकार-एम.ए, बी.ए. लोग अभी तक इंटरनेट पर यूनीकोड हिन्दी या भारतीय भाषा के फॉण्ट में नहीं लिखते, यह स्थिति जितनी जल्दी बदले उतना ही अच्छा है. कहीं यह मातृभाषा की विदाई की सूचना तो नहीं है ?
प्रेमचंद महान क्यों हैं ?
कुछ लोग हैं जिनको प्रेमचंद की जन्मदिन पर प्रेमचंद याद आते हैं और फिर भूल जाते हैं, लेकिन इस तरह के लेखक-पाठक भी हैं जो हमेशा याद करते हैं. प्रेमचंद हिन्दी के सदाबहार लेखक हैं, उनको सारा देश ही नहीं सारी दुनिया जानती है. वे किसी सरकार के प्रमोशन के जरिए, विश्वविद्यालय में प्रोफेसरी के जरिए, चेलों की जमात के जरिए महान नहीं बने, बल्कि कलम के बलबूते पर जनप्रिय बने. सवाल यह है कि प्रेमचंद को कौन सी चीज है जो महान बनाती है ?
प्रेमचंद को महान बनाया उनकी भारतीय समाज की गहरी समझ और यथार्थ चित्रण के प्रति गहरी आस्था ने. हिन्दी में अनेक लेखक हैं जो चित्रण करना जानते हैं लेकिन समाज की गहरी समझ का अभाव है, इसके कारण उनके चित्रण में वह गहराई नहीं दिखती जो प्रेमचंद के यहां दिखती है. प्रेमचंद की महानता का दूसरा बड़ा कारण है उनका गरीबों, किसानों और धर्मनिरपेक्ष समाज के प्रति गहरा लगाव. वे साहित्य के जरिए प्रचार करने से डरते नहीं थे.
उन्होंने लिखा – ‘सभी लेखक कोई न कोई प्रोपेगेंडा करते हैं- सामाजिक, नैतिक या बौद्धिक. अगर प्रोपेगेंडा न हो तो संसार में साहित्य की जरूरत न रहे. जो प्रोपेगेंडा नहीं कर सकता वह विचारशून्य है और उसे कलम हाथ में लेने का कोई अधिकार नहीं. मैं उस प्रोपेगेंडा को गर्व से स्वीकार करता हूं.’
उनका यह कथन फेसबुक लेखन के संदर्भ में आज और भी प्रासंगिक हो उठा है. आज समाज के सामने साम्प्रदायिकता का खतरा सबसे बड़ी चुनौती है. कल तक साम्प्रदायिक ताकतें सत्ता के बाहर थीं आज वे सत्ता पर काबिज हैं, ऐसी स्थिति में उनके वैचारिक चरित्र को समझने में प्रेमचंद हमारे मददगार हो सकते हैं. प्रेमचंद ने लिखा है – ‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है. उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खाल ओढ़कर आती है.’
हमारे समाज में ऐसे लोग भी हैं जो अच्छी और बुरी साम्प्रदायिकता का विभाजन करते हैं. इस नजरिए की आलोचना में प्रेमचंद ने लिखा ‘हम तो साम्प्रदायिकता को समाज का कोढ़ समझते हैं, जो हर एक संस्था में दलबंदी कराती है और अपना छोटा-सा दायरा बना सभी को उससे बाहर निकाल देती है.’ भारत के आधुनिक समाज की सबसे कठिन समस्या है अंधविश्वास. क्या हमारे पास अंधविश्वासों से लड़ने का कोई मार्ग है ? अंधविश्वासों के प्रति सामाजिक आस्थाएं कमजोर होने की बजाय और भी पुख्ता बनी हैं ?
मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है – ‘हममें मस्तिष्क से काम लेने की मानों शक्ति ही नहीं रही. दिमाग को तकलीफ नहीं देना चाहते. भेड़ों की तरह एक-दूसरे के पीछे दौड़े चले जाते हैं, कुएं में गिरें या खन्दक में, इसका गम नहीं. जिस समाज में विचार मंदता का ऐसा प्रकोप हो, उसको संभलते बहुत दिन लगेंगे.’
समाज में इन दिनों अतीत के महिमामंडन पर बहुत जोर दिया जा रहा है. इस पर कथाकार प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है – ‘बन्धनों के सिवा और ग्रंथों के सिवा हमारे पास क्या था ? पंडित लोग पढ़ते थे और योद्धा लोग लड़ते थे और एक-दूसरे की बेइज्जती करते थे और लड़ाई से फुरसत मिलती थी तो व्यभिचार करते थे. यह हमारी व्यावहारिक संस्कृति थी. पुस्तकों में वह जितनी ही ऊंची और पवित्र थी, व्यवहार में उतनी ही निन्द्य और निकृष्ट.’
यह हिन्दू भारत नहीं प्रेमचंद का भारत है. हिन्दू भारत में मौत का भय अधिक है, प्रेमचंद के भारत में आजादी का सुख है. हिन्दू भारत में धार्मिकता का शोरगुल है, प्रेमचन्द के भारत में प्रेम का साम्राज्य है. हिन्दू भारत हृदयशून्य लोगों का देश है, प्रेमचन्द का भारत कल्पना, संवेदना और हार्दिकता के लोगों का समाज है. हिन्दू भारत भोगी और बाबाओं का देश है, प्रेमचंद का भारत कमाऊ, श्रम और श्रमिक को प्यार करने वालों का देश है. हिन्दू भारत भिखारियों, खैरात पर जीने वालों, ढोंगी बाबाओं का भारत है जबकि प्रेमचंद का भारत आत्मनिर्भर, विवेकवान लोगों का देश है. हिन्दू भारत परलोक प्रेम और अंधविश्वासों पर टिका है, प्रेमचंद का भारत विज्ञान और इहलोक से प्रेम पर टिका है. तय करो कौन सा भारत बनाना चाहते हो ?
अंत में, प्रेमचंद को अकबर का एक शेर पसंद था – दिल मेरा जिससे बहलता कोई ऐसा न मिला. बुत के बंदे मिले अल्लाह का बंदा न मिला.’
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