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पूंजीवादी व्यवस्था में न्यायपालिका एक मुखौटा होता है

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Subrato Chatterjeeसुब्रतो चटर्जी

तीस्ता शीतलवाड ने अहमद पटेल से तीस लाख रुपये लेकर मोदी को गुजरात दंगों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया – SIT.

एक मर गया है और दूसरे की सुनवाई नहीं होती. यह है क्रिमिनल लोगों का न्याय. सभी जानते हैं कि SIT का गठन किसे बचाने के लिए और किसे फंसाने के लिए किया गया है. सुप्रीम कोर्ट भी इस travesty of justice का एक महत्वपूर्ण पक्ष है. हिमांशु कुमार के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट का यही रुख़ है. इसके अलावे और भी अनगिनत मामले हैं.

सरकारें अच्छी या बुरी होतीं हैं. विभिन्न राजनीतिक दलों की अपनी मजबूरियां होतीं है. जब तक सरकार नाम की संस्था है तब तक दमन भी एक सत्य है. इन सबके वावजूद न्यायपालिका की स्थापना सरकार की निरंकुशता को संविधान के अनुसार लगाम लगाने के लिए की गई है. अगर अदालतें ग़ैरक़ानूनी फ़ैसले देने लगे तो नागरिक कहां जाएंगे !

आज जिस विकृत फासीवाद के दौर से देश गुजर रहा है, उस दौर में न्यायपालिका की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है. हमारे माननीय मुख्य न्यायाधीश के सेमिनार में भाषण देने से चीजें नहीं सुधरेंगी. दूसरी तरफ़, ज़ुबैर को बेल देते हुए निचली अदालत ने कहा कि लोकतंत्र की आत्मा विरोध के स्वर में बसती है, यही बात सुप्रीम कोर्ट नहीं कह पाती, कैसी विडंबना है !

सबको मालूम है कि पूंजीवादी व्यवस्था में न्यायपालिका एक मुखौटा होता है. वर्ग स्वार्थ पर जब चोट पहुंचेगी तब वह शोषकों के साथ ही खड़ी होगी, शोषितों के साथ नहीं. हिमांशु कुमार के मामले में यही हो रहा है. यहां तक तो न्यायपालिका अपने वर्ग चरित्र के अनुरूप काम कर रही है और इस पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं है.

अब आते हैं इसके दूसरे पहलू पर. आज़ादी के बाद से आज तक भारत के श्रेणी विभाजित समाज में न्यायपालिका का हरेक फ़ैसला मजलूम लोगों के खिलाफ ही हुआ है, चाहे वो तथाकथित नक्सली हो या जाकिया जाफ़री.

2014 के बाद से एक फ़र्क़ आ गया है. अब अदालतें, विशेष कर सुप्रीम कोर्ट, बस एक व्यक्ति के जघन्यतम अपराधों को छुपाने का मंच बन गया है. नोटबंदी, राफाएल चोरी जैसे दर्जनों मामले हैं जिसमें एक व्यक्ति विशेष की राजनीतिक साख को बचाए रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रीय हित, क़ानून और संविधान सब की बलि दे रहा है.

वह आदमी तो कुछ दिनों तक बच जाएगा, लेकिन नतीजा क्या होगा ? आम जनता में न्यायपालिका पर विश्वास उठ जाएगा, ठीक जैसे आम जनता को पुलिस पर विश्वास नहीं है. यह सिस्टम के प्रति disillusion एक ख़तरनाक संकेत है. ये लोगों को क़ानून अपने हाथों में लेने के लिए बाध्य करेगा. आज जहां श्रीलंका खड़ा है, कल हम वहीं पर खड़े होंगे.

निरंकुश सरकारें लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल देतीं हैं. बहुसंख्यकवाद इसका एक नमूना भर है. मी लॉर्ड, इस भीड़तंत्र के हाथों एक दिन न सिर्फ़ वे मारे जाएंगे जिन्होंने इसे बनाया, बल्कि वे भी मारे जाएंगे, जिन्होंने इसे बनाने वालों को बचाए रखा और आप वही हैं.

क्रांति के नाम पर अराजकता वाद का समर्थक कोई कम्युनिस्ट नहीं होता और न ही मैं हूं. मुझे बास्तील से लेकर राजपक्षे के महल पर क़ब्ज़ा की हुई लुंपेन लोगों की भीड़ से विशेष हमदर्दी नहीं है, लेकिन जार के पतन का मुरीद ज़रूर हूं. अराजकता में एक दिशाहीन रुमानियत है और क्रांति में एक ज़िम्मेदार पहल है. फ़िलहाल भारत अराजकता की तरफ़ बढ़ता दिख रहा है, जो कि अच्छे संकेत नहीं हैं.

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