
31 मार्च को दक्षिण छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में पुलिस ने ठंडे दिमाग़ से पकड़ कर हत्या दिया. उनके शव को देखकर लगता है कि उनकी हत्या करने के पहले उन्हें बर्बर यातना दी गई थी. पुलिस ने उनका हाथ काट दिया था. यातना की नृशंसता देखकर ही पता लगता है कि ब्राह्मणवादी सत्ता देश की गरीब मेहनतकश आदिवासी पिछड़े समुदायों के प्रति कैसी नृशंस नफ़रत से भरा हुआ है, ख़ासकर उन वर्गों की महिलाओं के खिलाफ.
ब्राह्मणवादी फासीवादी आरएसएस जब से देश की सत्ता पर क़ाबिज़ हुआ है, तब से उसने उन तमाम मध्यमार्गियों की पार्टीयों को एक एक कर ठिकाने लगा दिया है. जिस किसी ने भी उसके अनैतिक नीतियों का विरोध किया है, सीबीआई, ईडी और सुप्रीम कोर्ट का इस्तेमाल कर उसे खड़ा होने लायक़ नहीं छोड़ा है. रही सही कसर चुनाव आयोग में अपना एजेंट नियुक्त कर सम्पूर्ण चुनाव प्रक्रिया से ही विपक्षी दलों को लगभग निस्तेज कर दिया है.
अपनी विपदाओं से पीड़ित लोगों के किसी भी विरोध प्रदर्शन पर हमलावर होकर पुलिस द्वारा कुचल रही है. सबसे अहिंसक माने जाने वाले भूखहड़ताल तक पर कोई सुनवाई नहीं हो रही. ऐसे में एकमात्र विकल्प सशस्त्र विद्रोह ही शेष बचता है, जो माओवादियों के नेतृत्व में देश की जनता कर रही है. यानी, देश की जनता के सामने अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए हथियारबंद आंदोलन ही एकमात्र रास्ता है.
किसानों के दिल्ली बॉर्डर पर पूर्णतः शांतिपूर्ण तरीक़े से एक साल तक चले आंदोलन में 723 किसानों की जान चली गई. न तो नरेन्द्र मोदी को कोई फ़र्क़ पड़ा और न ही किसानों की समस्या ही किसी भी तरह हल हो पाई. लेकिन माओवादियों के सशस्त्र आंदोलन के एक साल के दौरान नरेन्द्र मोदी के खूब ज़ोर लगाने, लाखों की तादाद में भाड़े के गुंडों, ग़द्दारों, पुलिस और सेना को झोंकने और कई लाख करोड़ रुपये फूंकने के बाद भी एक साल में महज़ 400 माओवादी और जनता को मार पाया. यानी, शांतिपूर्ण आंदोलन की तुलना में सशस्त्र आंदोलन कम नुक़सान में बेहतर रिज़ल्ट हासिल करता है.
छत्तीसगढ़ के एक पत्रकार लिखते हैं कि माओवादी प्रभावित इलाक़ों के युवा ग़ैर माओवादी इलाक़े की तुलना में ज़्यादा साहसी और तेज़तर्रार होते हैं. वे पुलिस और उसके गुंडों से नहीं डरते. जबकि शांतिपूर्ण आंदोलन के इलाक़े के लोग डरपोक और पुलिस के सामने थर-थर कांपते हैं. बहरहाल, यहां हम 54 वर्षीय रेणुका की शहादत पर बात करेंगे, जिन्होंने आख़िरी सांस तक जनता के लिए लड़ाई लड़ी और पुलिसिया गुंडों के बर्बर यातना के कारण शहादत दी.

गुमुदावेली रेणुका की बहादुराना शहादत 31 मार्च को हुई थी. इनसे जुड़ी जानकारी हम ‘द वायर’ नामक अंग्रेज़ी वेबसाइट से लिया है, जिसका हिन्दी अनुवाद हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, जो इस प्रकार है.
1980 के दशक में, आंध्र प्रदेश के वारंगल जिले के कडवेंडी गांव के युवाओं का स्कूल और कॉलेज छोड़कर रातों-रात गायब हो जाना और सशस्त्र संघर्ष में शामिल हो जाना कोई असामान्य बात नहीं थी. हर घर की कोई न कोई कहानी होती थी.
तेलंगाना संघर्ष का दूसरा चरण, जो 1980 के दशक की शुरुआत में फिर से शुरू हुआ, अपने चरम पर था और कडवेंडी ‘अलग तेलंगाना’ और माओवादी दोनों आंदोलनों का केंद्र बन गया था. लेकिन गुमुदावेली रेणुका ने अपने लिए यह रास्ता नहीं चुना था. रेणुका मुश्किल से कॉलेज में थी जब उसके माता-पिता ने उसकी शादी करने का फैसला किया – संभवतः इस डर से कि वह अपने भाई जी.वी.के. प्रसाद की तरह सशस्त्र संघर्ष की ओर रुख की थी.
जल्द ही शादी टूट गई. रेणुका, जिसने कुछ समय तक अपने पति की लगातार हिंसा को सहन किया था, अंततः घर छोड़ कर चली गई. प्रसाद, जो अब एक आत्मसमर्पण कर चुके माओवादी हैं और एक तेलुगु चैनल में पत्रकार हैं, कहते हैं, ‘यह पहली बार था जब उन्होंने पितृसत्ता पर सवाल उठाया था.’
31 मार्च को दक्षिण छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में पुलिस की गोलीबारी में रेणुका की मौत हो गई थी. ऑपरेशन का नेतृत्व करने वाले दंतेवाड़ा पुलिस ने दावा किया कि वह एक ‘मुठभेड़ में मर गई’ – ऐसा दावा सभी ऐसी हत्याओं में लगातार किया जाता है, जिससे इसकी सत्यता पर संदेह होता है.
प्रसाद याद करते हैं कि चौवन वर्षीय रेणुका, जिन्होंने नक्सल आंदोलन में एक ओवरग्राउंड वर्कर और एक भूमिगत गुरिल्ला दोनों के रूप में लगभग तीन दशक बिताए, एक ‘महान लघु कथाकार’ और ‘शानदार पत्रकार’ भी थीं. जब उनकी मृत्यु हुई, रेणुका दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी की सदस्य थीं और उन पर 45 लाख रुपये का इनाम था – छत्तीसगढ़ राज्य सरकार द्वारा घोषित 25 लाख रुपये और तेलंगाना सरकार द्वारा 20 लाख रुपये.
गुमुदावेली पद्मशाली या बुनकर समुदाय से आते हैं, जिन्हें तेलंगाना और आंध्र प्रदेश दोनों में पिछड़ा समुदाय के रूप में वर्गीकृत किया गया है. एक मिश्रित जाति का गांव, कदावेंडी में ज़्यादातर भूमिहीन परिवार या कम ज़मीन वाले परिवार थे. प्रसाद कहते हैं, ‘यहां तक कि गांव में रेड्डी (आमतौर पर एक ज़मीन वाला समुदाय) भी ज़्यादातर भूमिहीन थे.’
प्रसाद 1980 के दशक के मध्य में स्कूल में ही आंदोलन में शामिल हो गए थे. उनसे दो साल छोटी रेणुका ने उस समय ऐसा कोई झुकाव नहीं दिखाया. ‘लेकिन जब उनकी शादी टूट गई, तो उन्होंने पारिवारिक ढांचे पर सवाल उठाना शुरू कर दिया. उन्होंने एक बार मुझे एक लंबा पत्र लिखा था जिसमें पूछा गया था कि मार्क्सवादी पितृसत्ता को कैसे देखते हैं और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के भीतर महिलाओं के दैनिक संघर्षों को कैसे संबोधित करते हैं. मैं देख सकता था कि उनके भीतर एक मंथन शुरू हो गया था.’ उन्होंने ‘द वायर’ को बताया.
वे कहते हैं कि टूटी हुई शादी ने एक तरह से उन्हें आज़ाद कर दिया. वह जल्द ही कानून की पढ़ाई करने के लिए चित्तूर के एक दूर के जिले में चली गईं.
रेणुका अभी भी कानून की छात्रा थीं, लेकिन वे महिला शक्ति नामक महिला समूह का हिस्सा बन गईं, जो दहेज हत्या और स्वच्छता जैसे मुद्दों पर काम करने वाला समूह था. जल्द ही उन्होंने क्रांतिकारी मासिक पत्रिका ‘महिला मार्गम’ के लिए लिखना शुरू कर दिया.
अपनी कानून की शिक्षा पूरी करने के बाद, वे विशाखापत्तनम चली गईं, जहां उन्होंने एक वकील के रूप में काम किया. 1996 तक, रेणुका ने पहले ही एक भूमिगत नक्सल नेता के रूप में काम करना शुरू कर दिया था, लघु कथाएं लिखना, बैठकें आयोजित करना और भूमिगत लोगों के परिवारों को कानूनी सहायता प्रदान करना.
रेणुका ने कई उपनाम रखे. 2003 की शुरुआत में, जब उनके छोटे भाई, अपने माता-पिता के साथ, प्रसाद से मिलने जंगल में जा रहे थे, जो उस समय एक भूमिगत थे, पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और उनके भाई को प्रताड़ित किया. रेणुका ने अपनी कानूनी शिक्षा का इस्तेमाल अवैध हिरासत से अपने भाई की रिहाई के लिए लड़ने के लिए किया. उस घटना में, दमयंती नाम की एक युवा लड़की पुलिस की गोलीबारी में मारी गई थी, और जल्द ही रेणुका ने बी.डी. दमयंती नाम से लिखना शुरू कर दिया.
प्रसाद कहते हैं, ‘उनका अधिकांश पत्रकारिता कार्य (पार्टी के मुखपत्र में प्रकाशित) इसी बायलाइन के तहत था.’ प्रसाद कहते हैं कि उनके कुछ बेहतरीन लेखन कार्यों में से एक वह है जो उन्होंने राज्य प्रायोजित मिलिशिया समूह सलवा जुडूम द्वारा बस्तर के आदिवासियों पर की गई हिंसा पर लिखा था. उन्होंने भूमि विस्थापन और आदिवासी समुदायों के घटते संसाधनों के बारे में भी लिखा.
उन्होंने अपनी छोटी कहानियों को लिखने के लिए ‘मिडको’ नाम का भी इस्तेमाल किया, जो जुगनू के लिए गोंडी शब्द है. बाद में, पार्टी में, उन्हें भानु या चैते के नाम से भी जाना जाने लगा. 2003 के अंत में, उनके छोटे भाई को आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू की ‘हत्या’ करने की कोशिश के बाद राज्य में व्यापक गिरफ्तारियों के एक हिस्से के रूप में गिरफ्तार किया गया था.
उन्हें हिरासत में प्रताड़ित किया गया लेकिन अंततः सभी आरोपों से बरी कर दिया गया. जबकि भाई एक वकील बन गया और क्षेत्र में विभिन्न मानवाधिकार संगठनों के साथ काम किया. रेणुका ने भूमिगत होने का फैसला किया. 2004 में, वह गुरिल्ला आंदोलन में शामिल हो गई थी.

छोटे कद की महिला होने के कारण उन्होंने जल्द ही हथियार चलाने की ट्रेनिंग ले ली. प्रसाद के अनुसार, जब वे दोनों भूमिगत थे, तो उनकी मुलाक़ात बहुत कम होती थी. वे याद करते हैं, ‘हम अलग-अलग इकाइयों का हिस्सा थे और बहुत अलग-अलग क्षेत्रों में घूमते थे.’
आंदोलन में शामिल होने के बाद भी रेणुका की प्रेम की तलाश जारी रही. 1997 के आसपास, जब वह अभी भी भूमिगत थी, पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने रेणुका और संतोष रेड्डी, जो उस समय पार्टी के आंध्र प्रदेश राज्य समिति के सचिव और केंद्रीय समिति के सदस्य थे, दोनों को अलग-अलग शादी पर विचार करने का सुझाव दिया.
हालांकि रेड्डी उसी कदावेंडी गांव से थे, लेकिन कई साल पहले आंदोलन में शामिल होने के लिए चले गए थे. वे एक-दूसरे को मुश्किल से जानते थे. एक अवसर पर, 1997 में किसी समय, रेणुका रेड्डी से मिलने और तिरुपति इकाई में पार्टी द्वारा सामना की जा रही समस्याओं से निपटने के लिए उनके सुझाव लेने के लिए आंध्र प्रदेश के नल्लमाला के जंगलों में चली गईं. वे जल्द ही प्यार में पड़ गए.
चूंकि रेड्डी पार्टी के वरिष्ठ नेता थे और रेणुका अभी भी एक ओवरग्राउंड कार्यकर्ता थीं, इसलिए उन्हें अपनी शादी को गुप्त रखना पड़ा. 2 दिसंबर, 1999 को रेड्डी की पुलिस फायरिंग में मौत हो गई. प्रसाद कहते हैं, ‘रेणुका अपनी शादी का खुलकर दावा भी नहीं कर सकती थीं और न ही दिल खोलकर रो सकती थीं. उनके प्रेम जीवन का अंत हमेशा दुखद होता था. वह संतोष से सच्चा प्यार करती थीं.’
2005 में रेणुका ने एक अन्य पार्टी कमांडर से दोबारा शादी की और 2010 में पुलिस की गोलीबारी में वह भी मारा गया. आम धारणा के विपरीत, प्रसाद कहते हैं कि रेणुका का सशस्त्र आंदोलन में प्रवेश उनके कारण नहीं हुआ. वह इसके लिए कई चीजों को जिम्मेदार मानते हैं – क्षेत्र के राजनीतिक माहौल से लेकर रेणुका की धीरे-धीरे विकसित हो रही आलोचनात्मक क्षमता तक. वह याद करते हैं, ‘वह अपनी मर्जी की इंसान थीं, जो अपने आस-पास हो रही चीजों से बहुत परेशान रहती थीं और सवाल करती थीं.’
जब रेणुका की मौत की खबर आई और तेलंगाना के एक स्थानीय पुलिस अधीक्षक ने उन्हें इसकी जानकारी दी, तो प्रसाद काम पर थे. उन्होंने कहा कि उनकी हत्या की खबर ने उन्हें झकझोर कर रख दिया, लेकिन उन्हें पता था कि उनकी ज़िंदगी ऐसे ही खत्म होगी.
वे कहते हैं, ‘हर सुबह मेरी पत्नी (जिन्होंने 2014 में प्रसाद के साथ आत्मसमर्पण किया था) सभी अख़बारों और चैनलों को देखती थीं कि (बस्तर) क्षेत्र में कोई नई हत्या तो नहीं हुई है. हैदराबाद में मेरी मां भी यही करती थीं. पिछले एक साल में सरकार ने माओवादी आंदोलन से निपटने के नाम पर सैकड़ों लोगों की बेरहमी से हत्या की है. कोई बातचीत नहीं हुई, सिर्फ़ निर्मम हत्या की गई है.’
प्रसाद रेनूका का शव दांतेवाड़े ने ले लिया, जिसे पुलिस ने एक पॉलिथीन बैग में लपेटकर प्रदर्शन के लिए रख दिया था. ‘इस क्षण तक, मैंने मान लिया था कि रेनूका के अन्य साथियों के साथ विवाह हो गया है.’ एक दिन पहले ही पड़ोसी सुकमा जिले में 17 वीरगति को प्राप्त हुए थे. प्रसाद का कहना है कि तभी उन्हें संदेह हुआ.
‘रेणुका, जिसने कभी बालियां या बिंदी नहीं पहनी थी, अचानक उसे पहने हुए देखा गया. इसका मतलब सिर्फ़ यही हो सकता है कि वह गांव में घूम रही थी और यहां के गांव में सामान्य जीवन जी रही थी. फिर पुलिस ने उसे क्यों नहीं पकड़ा ?’ वे पूछते हैं.
पुलिस ने दावा किया है कि रेणुका की हत्या इंद्रावती नदी के किनारे दंतेवाड़ा-बीजापुर सीमा पर हुई गोलीबारी में हुई थी. परिवार का कहना है कि उसके हाथ कटे हुए थे, जिससे पता चलता है कि या तो पुलिस बल ने उसे प्रताड़ित किया या फिर उसे मारने के बाद किसी भी फोरेंसिक सबूत को मिटाने की जानबूझकर की गई चाल थी.
कथित तौर पर उसके पास गोला-बारूद का जखीरा मिला था. पुलिस ने उसके शव का पोस्टमार्टम तो करवा दिया, लेकिन रिपोर्ट परिवार को उपलब्ध नहीं कराई.
2 अप्रैल को प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) संगठन की दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी ने एक प्रेस नोट जारी किया, जिसमें उन्होंने दावा किया है कि रेणुका को बीजापुर जिले के भैरमगढ़ ब्लॉक के बेलनार गांव के एक छोटे से घर से पकड़ा गया था. प्रेस नोट में कहा गया है कि रेणुका तब से रह रही थी, जब उसकी तबीयत खराब थी.
प्रेस नोट में माओवादियों ने दावा किया है, ‘31 मार्च को सुबह 4 बजे के करीब पुलिस ने उसके घर को घेर लिया. सुबह 9-10 बजे के करीब वे चैते (प्रतिबंधित पार्टी में वह इसी नाम से जानी जाती थी) को इंद्रावती नदी की ओर ले गए और उसकी हत्या कर दी.’ प्रेस नोट में प्रतिबंधित माओवादी संगठन ने बताया है कि इस क्षेत्र में 400 से ज़्यादा हत्याएं हो चुकी हैं, जिनमें सशस्त्र आंदोलनकारी और कई नागरिक शामिल हैं.
जब प्रसाद और उनकी पत्नी रेणुका के शव को उनके पैतृक गांव कदावेंडी ले गए, तो पूरे क्षेत्र से हज़ारों लोग इकट्ठा हुए थे. प्रसाद कहते हैं कि उन्हें शहीद की तरह विदाई दी गई.
लेख यही पर समाप्त होता है. मृत्यु हर किसी का होता है, चाहे रितिका हो या अमित शाह या नरेन्द्र मोदी. लेकिन मृत्यु किस लिए हुआ है, यह याद रखा जाता है. इतिहास रितिका जैसे हज़ारों माओवादी गुरिल्लों को जहां स्वर्णाक्षरों में याद रखेगा, वही आततायी बहसी दरिंदों के रुप में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को घृणास्पद रुप से जाना जायेगा, जिसने कॉरपोरेट घरानों और अड़ानी जैसे धन्नासेठों के लिए देश की मेहनतकश लोगों के साथ ग़द्दारी किया था.
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