विष्णु नागर
देखिए नेताओं ने ही अवसरवादी होने का ठेका नहीं ले रखा है, हम पत्रकारों-टिप्पणीकार भी कम नहीं. पत्रकारों ने भी इन लगभग आठ सालों में पार्टी, विचारधारा, कपड़े सब बदले हैं. कुछ दाढ़ी तक रखने लगी हैं. कई अपनी कार या स्कूटर में अब काली टोपी, खाकी हाफपैंट (भूरी फुलपैंट भी) और केसरिया पटका रखने लगे हैं. क्या पता, कब, कहां काम आ जाए ! जो बहुत सेकुलर थे, उनमें से कई इतने अधिक ‘राष्ट्रवादी’ हो चुके हैं कि जैसे यह पूर्व जन्मों के पुण्यों का फल हो ! भला हो राजनीति का कि वह आपको पत्रकारों के अवसरवाद को अधिक याद रखने नहीं देती, हालांकि गोदी मीडिया एक अलग ही प्रजाति है.
कल्पना कीजिए कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में जो नतीजे आए, उसके ठीक अलग आते. मोदी -योगी की जोड़ी हार जाती, अखिलेश यादव को स्पष्ट से भी स्पष्ट बहुमत मिल जाता. इस स्थिति में आज जो पत्रकार और विद्वान विश्लेषक खासतौर से अखिलेश को बड़ी- बड़ी सीखें दे रहे हैं, ज्ञान की तोपें दाग रहे हैं, उनका चाल, चरित्र और चेहरा कुछ और हुआ होता. उनके सुर बदले हुए होते. आज तो ऐसा लगता है कि चुनाव कैसे लड़ा जाए, इसकी समझ या तो मोदी-योगी-शाह को है या उन जैसे पत्रकारों-विश्लेषकों को. विपक्ष तो नालायक था, है और रहेगा. और यह अखिलेश तो कल का बच्चा है, वह क्या जाने मोदी-योगी का गेमप्लान !
तब उनके बदले हुए सुर की एक छोटी-सी मिसाल यहां पेश कर रहा हूं. तब लगभग एक स्वर से ये कहते कि ‘पश्चिम बंगाल के चुनाव से ही यह स्पष्ट हो चुका था कि हवा का रुख बदल चुका है. आज उत्तर प्रदेश के मतदाता ने भी यह साबित कर दिखाया है. मोदी-योगी सत्ता के नशे में इतने मस्त रहे कि इतनी-सी बात समझ नहीं पाए. यही कारण है कि अखिलेश की मात्र तीन महीने की कैंपेनिंग के आगे मोदी-योगी की सारी कूटिल चालें धरी रह गईं.
‘आज मतदाता काफी परिपक्व हो चुका है, वह पांच किलो मुफ्त अनाज के झांसे में नहीं आनेवाला. वह विकास के लंबे-चौड़े खोखले दावों की हकीकत को भी जानता है. पिछली बार मतदाता पर सांप्रदायिकता का जो नशा छाया हुआ था, वह अब पूरी तरह उतर चुका है. उसे सत्य अब साफ-साफ नजर आने लगा है.
‘न प्रदेश के अस्पतालों की हालत सुधरी है, न स्कूलों की बल्कि और बदतर हुई है. सब जगह भ्रष्टाचार और अराजकता का राज है. सत्ता की गुंडागर्दी है. कानून-व्यवस्था जीरो है. मतदाता यह भी देख चुका है कि अखिलेश ने किस तरह राज्य का वास्तविक विकास किया था, इसलिए मतदाताओं पर यादव राज की कथित गुंडागर्दी का खौफ बेअसर रहा.
‘यही कारण है कि मोदी बनारस में तीन दिन तक जमे रहे मगर आधी सीटें भी निकाल नहीं पाए. योगी ने गोरखपुर में अपनी सीट तो बचा ली मगर सपा उम्मीदवार से इस बार वोटों का अंतर इतना कम रहा कि सपा थोड़ी और मेहनत करती तो योगी अपने गढ़ में भी हार सकते थे.
‘काशी विश्वनाथ मंदिर का परिसर चमकाने और अयोध्या में दीपावली पर लाखों दीप जलाने की चोंचलेबाजी से अब कुछ नहीं होता. बनारस और अयोध्या की हालत आज भी पहले की तरह खराब है. अब मोदी जी की कुर्सी खतरे में है. अब भी वे नहीं संभले तो 2024 में इनकी गुजरात विदाई निश्चित है. वे चाहे तो वहां का मुख्यमंत्री पद संभाल सकते हैं.’
यानी, तब पत्रकारों-टिप्पणीकारों के ज्ञान की गंगा उल्टी बह रही होती. ये अपनी ज्ञान गंगा में मोदी-योगी को इतनी डुबकी लगवाते कि इन दोनों बेचारों को जुकाम हो जाता. गंगा के ठंडे पानी से इस मौसम में भी ये ठंड से ठिठुर रहे होते. इन्हें बुखार आ जाता. सब जगह अखिलेश का डंका बज रहा होता. जो देखो अखिलेश में भावी प्रधानमंत्री देख रहा होता. उनके इंटरव्यूज की ऐसी बाढ़ आती कि खुद अखिलेश से नहीं संभलती. गोदी चैनल भी उसमें बह चुके होते.
अंजना ओम कश्यप तक कह रही होतीं कि मुझे तो डे वन से मालूम था कि यही होनेवाला है मगर एक ‘तटस्थ’ पत्रकार के नाते मैंने मन के भाव मन में रखे. अखिलेश जी को याद हो न हो लेकिन मैंने उन्हें प्राइवेटली बता दिया था कि आप भारी बहुमत से जीत रहे हैं. मेरी अग्रिम बधाई स्वीकार कीजिए. अखिलेश जी ने तब कहा था कि अच्छा जब आप भी कह रही हैं तो मुझे अब विश्वास हो चला है. बाकी कुछ कल्पनाएं आप भी कर लीजिए, काफी मजा आएगा.
तो निष्कर्ष यह कि हम पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक बहुत ज्ञानी होते हैं. इतने ज्ञानी कि हमारा अधिकतर ज्ञान चुनाव नतीजों पर आधारित होता है. इसके पहले हम अगर-मगर की डगर पर सीधे चल रहे होते हैं. इस स्थिति में भी गोदी मीडिया अस्सी फीसदी मोदी के साथ होता मगर बीस प्रतिशत अखिलेश की ओर भी झुका होता.
कभी मोदी सरकार की गोद में खेलता, कभी अखिलेश की गोद में जगह पाने को आतुर रहता. अखिलेश से बड़े आदर से बात करना सीख जाता. निष्पक्ष-निष्पक्ष रहने का खेल सारे पत्रकार खेल रहे होते..फिलहाल इसकी जरूरत नहीं पड़ी. गोदी चैनल की ‘इज्ज़त’ भी बच गई, इससे अधिक प्रसन्नता की बात और क्या हो सकती है !
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