हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
जिस सैद्धांतिकी पर पब्लिक सेक्टर का वजूद टिका था, खुद उसके कर्मचारियों के बड़े हिस्से की आस्था ही उस पर नहीं रह गई थी. उदारीकृत होते अर्थतंत्र में मध्य वर्ग की आर्थिक समृद्धि बढ़ी तो पब्लिक सेक्टर के कर्मी भी उसके लाभान्वितों में थे. सेवा की सुरक्षा, आकर्षक वेतन, काम की अच्छी परिस्थितियों ने उनकी क्रय क्षमता में अभूतपूर्व विस्तार किया और वे बाजार के प्रभावशाली उपभोक्ता समाज की अग्रणी पंक्ति में शामिल हो गए. अब वे सार्वजनिक सेवाओं की जगह निजी क्षेत्र की सेवाओं के सक्षम क्रेता थे और जाने-अनजाने उसके मुखर प्रवक्ता भी.
मसलन, अब वे बड़े शान से अपने बच्चों की पढ़ाई महंगे निजी स्कूलों में करवा सकते थे, बैंक लोन से कार खरीद कर खस्ताहाल होते सार्वजनिक परिवहन की भीड़-भाड़ से बच सकते थे, सरकारी अस्पतालों के दुर्गंध भरे गलियारों में नाक पर रुमाल रख रोगियों की लाइन में लगने की कोई जरूरत नहीं रह गई थी क्योंकि अब वे निजी अस्पतालों की सेवा लेने में सक्षम थे, बीएसएनएल को गलियाते हुए अपेक्षाकृत महंगे स्मार्ट प्रीपेड की सेवा लेने में उन्हें कोई संकोच नहीं रह गया था. जाहिर है, जब बाजार में निजी और सुविधाजनक सेवाएं उपलब्ध हैं तो निरन्तर लचर होती जा रही सार्वजनिक सेवाओं में उनकी रुचि क्यों होती ?
नतीजा, उन्होंने सरकारी शिक्षण तंत्र की बदहाल होती जाती व्यवस्था पर कान देना बंद कर दिया, सुनियोजित तरीके से खस्ताहाल की जा रही सार्वजनिक परिवहन सेवाएं उनके मतलब की नहीं रह गई थीं, देश की बढ़ती समृद्धि के बावजूद हेल्थ बजट में सरकारी कटौतियां पर संज्ञान लेने की उन्हें कोई जरूरत नहीं रह गई थी, जानबूझ कर बर्बाद की जा रही सरकारी दूरसंचार सेवाओं को तो उन्होंने कब का त्याग दिया था, इसलिये इन खबरों से उनका कोई वास्ता नहीं रह गया था.
हालांकि, उन्हें अपने संस्थान, जो पब्लिक सेक्टर में था, के निजी क्षेत्र में जाने से गहरा विरोध था. आखिर बात उनकी सेवा सुरक्षा, वेतन संरचना और काम की परिस्तितियों से जुड़ी थी. वे अपने संस्थान का निजीकरण कैसे होने दे सकते थे ? जब भी कोई सरकार उनके संस्थानों के निजीकरण या विनिवेशीकरण की बातें उठाती, वे आंकड़े ले कर बैठ जाते कि उनका संस्थान तो मुनाफे में चल रहा है, कि अगर घाटे में भी है तो इसमें न संस्थान की संरचना दोषी है, न इसके कर्मचारी, बल्कि इसके लिये सरकारी नीतियां और लाल फीताशाही जिम्मेदार हैं.
उन्होंने इस तथ्य को मानने से इन्कार कर दिया कि अगर किसी देश का उपभोक्ता समाज अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर निजी स्कूलों को अंगीकृत कर चुका है, अपने परिजनों के इलाज को लेकर निजी अस्पतालों को अपना चुका है, पर्व त्योहार में सपरिवार गांव जाने के लिये सार्वजनिक परिवहन के खस्ताहाल तंत्र को छोड़ निजी कार से जाने की सुविधा हासिल कर चुका है, उसने सार्वजनिक हित से जुड़े इन क्षेत्रों के निजीकरण का विरोध करना तो दूर, बल्कि इसका अप्रत्यक्ष स्वागत ही किया है, तो, देर सबेर उसे अपने संस्थान के निजीकरण के लिये भी तैयार रहना चाहिये, क्योंकि बाजार के नियामक हर उस शै पर कब्जा करने को उतावले हैं जो उनके मुनाफे का स्रोत बन सकती हो.
किसी देश का मध्य वर्ग अगर सरकारी शिक्षण तंत्र की कब्र पर फलते-फूलते निजी शिक्षण तंत्र का उत्सुक ग्राहक बन सकता है, सरकारी अस्पतालों की घटिया व्यवस्था को कोसते हुए निजी अस्पतालों में भर्त्ती हो उसके अनाप-शनाप बिल भरने को तैयार हो सकता है तो सरकारी हवाई अड्डे, सरकारी रेल, सरकारी बीमा कंपनियां, सरकारी बैंक, अन्य सरकारी उत्पादन इकाइयों के निजी क्षेत्र में जाने का विरोध करने का नैतिक बल कैसे हासिल कर सकता है ?
नहीं, इन विरोधों के पीछे नैतिक बल का अभाव है जो सरकारी रेल या सरकारी हवाई अड्डे आदि के निजीकरण का विरोध में किया जा रहा है. आखिर क्यों हो विरोध ? क्या सिर्फ इसलिये कि संस्थान के निजी हो जाने पर उनके वेतन भत्ते सहित अन्य सुविधाओं पर असर पड़ सकता है ? उनके काम की परिस्थितियां खराब हो सकती हैं ? उनकी सेवा सुरक्षा पर सवालिया निशान लग सकते हैं ?
बाजारवादी शक्तियों के खिलाफ आप टुकड़ों में संघर्ष नहीं कर सकते, हितों के अलग-अलग द्वीपों पर रह कर उन शक्तियों का सामना नहीं कर सकते जो सब कुछ लीलने को तैयार हैं और राज सत्ता जिनकी चेरी बन चुकी है.
यह संभव नहीं है कि आप समाज के विशाल वंचित तबके के हित-अहित के मुद्दों से विलग रहें, उनके शोषण के लाभों का हिस्सा भी पाते रहें और उन शक्तियों का सामना भी कर लें जो सब कुछ अपनी मुट्ठियों में कैद करने पर आमादा हैं ? यह कैसे सम्भव है कि शिक्षा और चिकित्सा जैसी आधारभूत सेवाएं तो निजी हो जाएं लेकिन हवाई अड्डे, रेल गाड़ियां, बैंक और बीमा आदि सरकारी ही रह जाएं ?
उत्पादन का हर वह क्षेत्र, जो मुनाफा दे सकता है, निजी हाथों में जा रहा है और उससे जुड़े कर्मियों के विरोध के स्वर चाहे जितने ऊंचे हों, उसमें नैतिक बल का अभाव है. आंदोलनकारियों में नैतिक बल का अभाव उनकी जुझारू क्षमता को तो कम करता ही है, आंदोलन के चरित्र को भी प्रभावित करता है.
खबरें आ रही हैं कि पब्लिक सेक्टर के कुल 348 संस्थानों में से महज दो दर्जन ही सरकारी संरक्षण में रहेंगे और बाकी सबके निजीकरण/विनिवेशीकरण का प्रस्ताव है. सरकार इस कार्य योजना को मूर्त्त रूप देने में लगी है. चर्चा है कि किसान आंदोलन के विस्तार के साथ ही पब्लिक सेक्टर के कर्मियों का देशव्यापी आंदोलन भी शुरू होने वाला है.
लेकिन, किसानों के साथ नैतिक बल है. पब्लिक सेक्टर के कर्मी, जिनके शानदार ड्राइंग रूम्स हाल के वर्षों में ‘राष्ट्रवादी’ विमर्शों से गुंजायमान रहे हैं, जिनकी राजनीतिक प्राथमिकताएं खुद के वजूद की जड़ काटने वाली रही हैं, वे किस नैतिक बल से निजीकरण का विरोध करेंगे ?
हमारे संस्थान का निजीकरण न हो, बाकी संसार की हर शै बाजार की चीज हो जाए, कोई हर्ज नहीं, मनोविज्ञान और मानसिकता के इस धरातल पर क्या कोई प्रभावी आंदोलन भी पनप सकता है ? वैसे भी, उपभोक्ता समाज नैतिक रूप से इतना पतित हो चुका होता है कि उसमें व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलन का माद्दा शेष नहीं रह जाता. जब तक कि वह अपनी बन्द आंखें न खोले, जब तक कि वह उपभोक्ता समाज के दायरे से बाहर के हाशिये पर पड़े विशाल वंचित तबके के व्यापक हितों से अपने हितों के तार न जोड़े.
कोई उदाहरण नहीं है कि निर्धन बहुल देशों में अंध निजीकरण आम लोगों की आर्थिक मुक्ति का आधार बना हो. भारत आज भले ही निजीकरण की इस अंधी दौड़ में शामिल है, लेकिन, इसका मौलिक उद्देश्य कारपोरेट प्रभुओं के हितों से प्रेरित है, न कि देश की आम जनता के हितों से. यह तो दीवार पर साफ-साफ लिखी इबारत की तरह कोई भी पढ़ सकता है कि इतने बड़े पैमाने पर निजीकरण निर्धन तबके को ही नहीं, आत्ममुग्धता में पड़े मध्य वर्ग को भी एक दिन गुलामों की श्रेणी में ले आएगा.
सत्ता के प्रायोजित नैरेटिव्स के मुखर संवाहकों में शामिल रहे पब्लिक सेक्टर के अधिकतर कर्मी किस नैतिक बल से उसकी नीतियों का विरोध करेंगे… ? और अगर करेंगे तो उसका क्या प्रभाव पड़ेगा, यह सहज ही समझा जा सकता है.
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