1947 का मशहूर किस्सा है…
पार्टीशन की बेला थी, भारत आजाद हो चुका था और नेहरू प्रधानमंत्री थे. दिल्ली सापेक्षिक रूप से शांत था, मगर अचानक से फिजां बदल गई.
किसी जगह मुसलमानों के द्वारा हिन्दुओं पर आक्रमण की अफवाह से गुस्सा हिन्दू टोलियां भी निकल आयी. कनॉट प्लेस में मुलसमानों की दुकानों को लूटा जाने लगा, भीड़ हिंसा पर उतारू थी.
जवाहरलाल, उसी तरफ मार्ग से गुजर रहे थे. इसी समय किसी युवक को भीड़ ने घेर लिया, और हमला करने को थी, की मोटर से कूदकर जवाहरलाल बीच में आ गए.
भीड़ को ललकारा. भीड़ नेहरू को पहचान कर सहम गई और भागना शुरू कर दिया. तब तक पुलिस भी आ गयी. नेहरू ने खुद एक लाठी ली और दंगाइयों को दौड़ा लिया.
इस घटना का विवरण अकबर पटेल ने ‘मेनी फेसेस ऑफ नेहरू’ में लिखा. अमेरिकन जर्नलिस्ट नॉर्मन कजिन्स ने भी इस घटना पर आर्टिकल लिखा था. गूगल पर नेहरू के और भी इस तरह के घटनाक्रम हैं.
गांधी फ़िल्म का वह सीन कैसे भूल सकते है, जिसमे बंगाल में एक मुस्लिम के घर अनशन पर पड़े गांधी के सामने भीड़ में कोई उन्हें मारने का नारा उछालता है. नेहरू कूदकर आगे आते हैं – ‘किसने कहा, आओ, पहले मुझे मारो.’ और भीड़ में सन्नाटा पसर जाता है.
असाधारण नेतृत्व के उभरने के लिए असाधारण दौर भी होना चाहिए. नेहरू को वह दौर मिला. राहुल भी आजादी के बाद के सबसे कठिन दौर में अपनी भुजाओं का बल तोल रहे हैं. अपनी हिम्मत की गहराई नाप रहे हैं.
एक ओर सबसे ऊंची मीनार पर बैठा छुटभैया है, जो सुख के समय सीना फुलाता है, कठिनाइयों में मुंह छुपा लेता है. पद से उसका कद नहीं बन सका, और बिना पद राहुल का कद बढ़ता जा रहा है.
इन कदमों की आहट से डरा हुआ राजा, प्रभु राम की मूरत के पीछे छुपकर गोलियां चला रहा है. बौने कद के सहमे मुख्यमंत्री उसके कदमों में बेड़ियां बांधने की योजनाएं बना रहे हैं. एफआईआर के हथौड़े बजाये जा रहे हैं. लेकिन राहुल थम नहीं रहा.
घायल उत्तरपूर्व को उनकी यात्रा ने एक विश्वास दिया है. राहुल को छूकर गुजरती हुई हवा ही मरहम होती जा रही है. महीनों तक हौलनाक खबरों के बाद अब जाकर वहां से कुछ मुस्काने दिखी है.
ये बड़ा आश्वस्त करने वाली मुस्कानें है. देखकर दिल आल्हादित है. राहुल को शुक्रिया…! जवाहर का खून, उनकी रगों में अपना रंग दिखा रहा है. जियो राहुल, जवाहरलाल बनो !
- मनीष सिंह
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चूज योर हीरोज, केयरफुली…
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