यहां सवाल सत्ता के लिये बिक कर राजनीति करने वाले क्षत्रपों की कतार भी कितनी पाररदर्शी हो चुकी है और वोटर भी कैसे इस हकीकत को समझ चुका है, ये मायावती के सिमटते आधार तले मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में बाखूबी उभर गया. लेकिन आखिरी सवाल यही है कि क्या नये बरस में बीजेपी और संघ अपनी ही बिसात जो मोदी-शाह पर टिकी है, उसे बदल कर नई बिसात बिछाने की ताकत रखती है या नहीं.
गुजरात में कांग्रेस नाक के करीब पहुंच गई. कर्नाटक में बीजेपी जीत नहीं पाई. कांग्रेस को देवगौडा का साथ मिल गया. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पन्द्रह बरस की सत्ता बीजेपी ने गंवा दी. राजस्थान में बीजेपी हार गई. तेलंगाना में हिन्दुत्व की छतरी तले भी बीजेपी की कोई पहचान नहीं और नार्थ-ईस्ट में संघ की शाखाओं के विस्तार के बावजूद मिजोरम में बीजेपी की कोई राजनीतिक जमीन नहीं तो फिर पन्ने-पन्ने थमा कर पन्ना प्रमुख बनाना या बूथ-बूथ बांट कर रणनीति की सोचना या मोटरसाईकिल थमा कर कार्यकर्त्ताओं में रफ्तार ला देना या फिर संगठन के लिये अथाह पूंजी खर्च कर हर रैली को सफल बना देना और बेरोजगारी के दौर में नारों के शोर को ही रोजगार में बदलने का खेल कर देना. फिर भी जीत ना मिले तो क्या बीजेपी के चाणक्य फेल हो गये हैं या जिस रणनीति को साध कर लोकतंत्र को ही अपनी हथेलियां पर नचाने का सपना अपनों में बांटा, अब उसके दिन पूरे हो गये हैं.
अर्से बाद संघ के भीतर ही नहीं बीजेपी के अंदरखाने भी ये सवाल तेजी से पनप रहा है कि अमित शाह की अध्यक्ष के तौर पर नौकरी अब पूरी हो चली है और जनवरी में अमित साह को स्वतः ही अध्यक्ष की कुर्सी खाली कर देनी चाहिये ? यानी बीजेपी के संविधान में संशोधन कर अब जितने दिन अमित शाह अध्यक्ष बने रहे तो फिर बीजेपी में अनुशासन, संघ के राजनीतिक शुद्दिकरण की ही धज्जियां उडती चली जायेगी. यानी जो सवाल 2015 में बिहार के चुनाव में हार के बाद उठा था और तब अमित शाह ने तो हार पर ना बोलने की कसम खाकर खामोशी बरत ली थी, पर तब राजनाथ सिंह ने मोदी-शाह की उडान को देखते हुये कहा था कि अगले छह बरस तक शाह बीजेपी अध्यक्ष बने रहेगें.
लेकिन संयोग से 2014 में 22 सीटें जीतने वाली बीजेपी के पर उसकी अपनी रणनीति के तहत अमित शाह ने ही कतर कर 17 सीटों पर समझौता कर लिया. तो उससे संकेत साफ उभरे कि अमित शाह के ही वक्त रणनीति ही नहीं बिसात भी कमजोर हो चली है, जो रामविलास पासवान से कहीं ज्यादा बडा दांव खेल कर अमित शाह किसी तरह गंठबंधन के साथियों को साथ खडा रखना चाहते हैं. क्योंकि हार की ठीकरा समूह के बीच फूटेगा तो दोष किसे दिया जाये ? इस पर तर्क गढ़े जा सकते हैं लेकिन अपने बूते चुनाव लडना, अपने बूते चुनाव ल़डकर जीतने का दावा करना और हार होने पर खामोशी बरत कर अगली रणनीति में जुट जाना, ये सब 2014 की सबसे बडी मोदी जीत के साथ 2018 तक तो चलता रहा लेकिन 2019 में बेडा पार कैसे लगेगा ? इस पर अब संघ में चिंतन-मनन तो बीजेपी के भीतरी कंकडों की आवाज सुनाई देने लगी है. और साथी सहयोगी तो खुल कर बीजेपी के ही एंजेडे की बोली लगाने लगे हैं
शिवसेना को लगने लगा है कि जब बीजेपी की धार ही कुंद हो चली है तो फिर बीजेपी हिन्दुत्व का बोझ भी नहीं उठा पायेगी और राम मंदिर तो कंधों को ही झुका देगा. तो शिवसेना खुद को अयोध्या का द्वारपाल बताने से चुक नहीं रही है और खुद को ही राम मंदिर का सबसे बडा हिमायती बताते वक्त ये ध्यान दे रही है कि बीजेपी का बंटाधार हिन्दुत्व तले ही हो जाये, जिससे एक वक्त शिवसेना को वसूली पार्टी कहने वाले गुजरातियो को वह दो तरफा मार दे सके. यानी एक तरफ मुंबई में रहने वाले गुजरातियो को बता सके कि अब मोदी-शाह की जोडी चलेगी नहीं तो शिवसेना की छांव तले सभी को आना होगा.
और दूसरा धारा-370 से लेकर अयोध्या तक के मुद्दे को जब शिवसेना ज्यादा तेवर के साथ उठा सकने में सक्षम है तो फिर सरसंघचालक मोहन भागवत सिर्फ प्रणव मुखर्जी पर प्रेम दिखाकर अपना विस्तार क्यों कर रहे हैं ? उनसे तो बेहतर है कि शिवसेना के साथ संघ भी खडा हो जाये यानी अमित शाह का बोरिया-बिस्तरबांध कर उनकी जगह नितिन गडकरी को ले आये, जिनकी ना सिर्फ शिवसेना से बल्कि राजठाकरे से भी पटती है और भगोडे कारपोरेट को भी समेटने में गडकरी कहीं ज्यादा माहिर है. और गडकरी की चाल से फडनवीस को भी पटरी पर लाया जा सकता है, जो अभी भी मोदी-शाह की शह पर गडकरी को टिकने नहीं देते और लडाई मुबंई से नागपुर तक खुले तौर पर नजर आती है.
यूं ये सवाल संघ के भीतर ही नहीं बीजेपी के अंदरखाने भी कुलांचे मारने लगा है कि मोदी-शाह की जोडी चेहरे और आईने वाली है. यानी कभी सामाजिक-आर्थिक या राजनीतिक तौर पर भी बैलेंस करने की जरुरत आ पडी तो हालात संभलेगें नहीं. लेकिन अब अगर अमित शाह की जगह गडकरी को अध्यक्ष की कुर्सी सौप दी जाती है तो उससे एनडीए के पुराने साथियों में भी अच्छा मैसेज जायेगा क्योंकि जिस तरह कांग्रेस तीन राज्यों में जीत के बाद समूचे विपक्ष को समेट रही है और विपक्ष जो क्षत्रपों का समूह है, वह भी हर हाल में मोदी-शाह को हराने के लिये कांग्रेस से अपने अंतर्विरोधों को भी दरकिनार कर कांग्रेस के पीछ खडा हो रहा है.
उसे अगर साधा जा सकता है तो शाह की जगह गडकरी को लाने का वक्त यही है क्योंकि ममता बनर्जी हो या चन्द्रबाबू नायडू, डीएमके हो या टीआरएस या बीजू जनता दल, सभी वाजपेयी-आडवानी-जोशी के दौर में बीजेपी के साथ इसलिये गये क्योकि बीजेपी ने इन्हें साथ लिया और इन्होंने साथ इसलिये दिया क्योंकि सभी को कांग्रेस से अपनी राजनीतिक जमीन के छिनने का खतरा था लेकिन मोदी-शाह की राजनातिक सोच ने तो क्षत्रपों को ही खत्म करने की ठान ली. और पैसा, जांच एंजेसी, कानूनी कार्रवाई के जरिये क्षत्रपों का हुक्का-पानी तक बंद कर दिया. पासवान भी अपने अंतर्विरोधों की गठरी उठाये बीजेपी के साथ खडे हैं. सत्ता से हटते ही कानूनी कार्रवाई के खतरे उन्हें भी है. और सत्ता छोडने के बाद सत्ता में भागेदारी का हिस्सा सूई की नोंक से भी कम हो सकता है.
लेकिन यहां सवाल सत्ता के लिये बिक कर राजनीति करने वाले क्षत्रपों की कतार भी कितनी पाररदर्शी हो चुकी है और वोटर भी कैसे इस हकीकत को समझ चुका है, ये मायावती के सिमटते आधार तले मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में बाखूबी उभर गया. लेकिन आखिरी सवाल यही है कि क्या नये बरस में बीजेपी और संघ अपनी ही बिसात जो मोदी-शाह पर टिकी है, उसे बदल कर नई बिसात बिछाने की ताकत रखती है या नहीं. उहापोह इस बात को लेकर है कि शाह हटते तो नैतिक तौर पर बीजेपी कार्यकर्त्ता इसे बीजेपी की हार मान लेगा या रणनीति बदलने को जश्न के तौर पर लेगा. क्योंकि इसे तो हर कोई जान रहा है कि 2019 में जीत के लिये बिसात बदलने की जरुरत आ चुकी है अन्यथा मोदी की हार बीजेपी को बीस बरस पीछे ले जायेगी.
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