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1 जनवरी 2022 : भीमा कोरेगांव की 204 वीं वर्षगांठ

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1 जनवरी 2022 : भीमा कोरेगांव की 204 वीं वर्षगांठ

भीमा कोरेगांव के युद्ध में पेशवाई राज्य पर महार रेजिमेंट का विजय एक ओर जहां देश भर के दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और प्रगतिशील ताकतों के विजय का प्रतीक बनकर उभरा है, वहीं भीमा कोरेगांव के युद्ध में पेशवाई राज्य का पतन देश के ब्राह्मणवादी, सामंती मिजाज वाले प्रतिक्रियावादी ताकतों के लिए शर्म का प्रतीक बन गया है.

आज जब देश की सत्ता पर इन प्रतिक्रियावादी ब्राह्मणवादी सामंती मिजाज वाली ताकतों ने कब्जा जमा लिया है, तब वह भीमा कोरेगांव के विजय उत्सव को हिंसा, आतंक के बूटों तले रौंद कर देश के तमाम प्रगतिशील ताकातों को खत्म करने, बदनाम करने और आतंकित करने का प्रयास कर रही है.

इसी क्रम में भारत सरकार ने देश भर के विद्धानों, लेखकों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं, प्रचारकों को जेलों में डाल रखा है, जिसमें से एक 84 वर्षीय बुजुर्ग फादर स्टेन स्वामी की भारत सरकार ने जेल में ही हत्या कर दी.

वर्ष 2022 में जब एक बार फिर भीमा कोरेगांव की 204 वीं वर्षगांठ मनाने देश भर के दलित, पिछड़े, प्रगतिशील ताकतें एक बार फिर भीमा कोरेगांव पहुंच रही है तब महाराष्ट्र की पुणे प्रशासन ने भीमा कोरेगांव में धारा 144 लगा दी है. जिससे यहां पोस्टर, बैनर या होर्डिंग लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है.

धारा 144 यहां पर 30 दिसंबर की रात 12 बजे से 2 जनवरी की सुबह 6 बजे तक लागू कर दिया है. इसके बाद भी देश भर के लाखों की तादाद में लोगों ने अपनी भागीदारी सुनिश्चित की है. इसी को याद करते हुए मनीष आजाद ने एक आलेख लिखा था, जिसे हम यहां पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.

इस साल जब लोग नये साल का जश्न आदतन मना रहे होंगे तो समाज का एक हिस्सा 1 जनवरी को एक ऐसी घटना की 204वीं बरसी मना रहा होगा जिसने दलितों के आत्मसम्मान की लड़ाई को एक नयी दिशा दी.

1 जनवरी, 1818 को महाराष्ट्र में पूना के नजदीक ‘भीमा कोरेगांव’ में अंग्रेजों की फौज के साथ मिलकर लड़ते हुए महारों की 500 की सेना ने मराठा पेशवाओं की 20,000 से भी ज्यादा की फौज को शिकस्त देते हुए उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया था. बाद में 1851 में इस युद्ध में मारे गये सैनिकों की याद में अंग्रेजों ने यहां एक ‘स्तम्भ’ का निर्माण करवाया, जिसके ऊपर ज्यादातर महार सैनिकों के ही नाम खुदे हैं. ‘मुख्यधारा’ का इतिहास आज भी इस महत्वपूर्ण घटना की ओर आंखे मूंदे हुए है.

1 जनवरी, 1927 को डॉ. अम्बेडकर ने यहां अपने साथियों के साथ आकर उन महार सैनिकों को याद किया जिन्होंने भयंकर जातिवादी और प्रतिक्रियावादी पेशवाओं की सेना को शिकस्त देते हुए कई सारे जातिगत मिथकों को तोड़ डाला था और दलितों के आत्मसम्मान को ऊंचा उठाया था. (शायद यहीं से प्रेरणा लेते हुए डॉ. अम्बेडकर ने 1926 में ‘समता सैनिक दल’ की स्थापना की थी). तब से हर साल यहां लाखों की भीड़ उमड़ती है और दलित आन्दोलन व जनवाद की लड़ाई से जुड़े लोग यहां आकर अनेकों कार्यक्रम पेश करते हैं और जाति व्यवस्था के खात्मे की शपथ लेते हैं.

महारों की सेना द्वारा पेशवाओं की सेना पर इस विजय के महत्व को हम तभी अच्छी तरह समझ सकते हैं जब हम पेशवाओं के राज्य में महारों की क्या स्थिति थी यह जाने. पेशवाओं के राज्य में महारों को सार्वजनिक स्थलों पर निकलने से पहले अनिवार्य रुप से अपने गले में घड़ा और कमर में पीछे झाड़ू बांधनी पड़ती थी, जिससे उनके पैरों के निशान खुद ब खुद मिटते रहें और उनकी थूक सार्वजनिक स्थलों पर ना गिरे ताकि सार्वजनिक स्थल ‘अपवित्र’ ना हो.

अपनी इसी स्थिति के कारण महारों के दिलो-दिमाग में ब्राहमणों और तथाकथित ऊंची जातियों के प्रति सदियों से जो नफरत बैठी होगी, उसी नफरत ने उन्हें वह ताकत दी जिससे वे अपने से संख्या में कहीं ज्यादा पेशवाओं की सेना को वापस भागने पर मजबूर कर दिया. इस युद्ध ने वर्णव्यवस्था के उस मिथक को भी चूर-चूर कर दिया कि एक ही जाति में लड़ने की काबिलियत है.

सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त ‘इतिहासकारों’ ने इस घटना को नजरअंदाज किया, यह बात तो समझ आती है, लेकिन ‘मार्क्सवादी’ कहे जाने वाले इतिहासकारों ने भी इसे क्यों नजरअंदाज किया, इसे समझने की जरुरत है.

‘मुख्यधारा’ के इतिहासकारों के अनुसार महारों ने भीमा कोरेगांव की यह लड़ाई अग्रेजों के नेतृत्व में अंग्रेजों के साथ मिलकर लड़ी थी तो इतिहास में इसे प्रगतिशील कदम कैसे कहा जा सकता है ? अपने इसी रुख के कारण आजादी के आन्दोलन के दौरान डॉ. अम्बेडकर की भूमिका पर भी उन्होंने (विशेषकर ‘मार्क्सवादी’ इतिहासकारों ने) प्रश्न चिन्ह खड़े किये. मुख्य धारा के वाम में अन्दरुनी हलकों में तो उन्हें अंग्रेजों का दलाल तक माना जाता रहा है. इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर लौटने से पहले चलिए विश्व इतिहास की कुछ अन्य इससे मिलती जुलती घटना पर एक नज़र डाल लेते हैं.

भीमा कोरेगांव की घटना के ठीक 42 साल पहले 4 जुलाई, 1776 को अमेरिका, इंग्लैंड के खिलाफ लड़कर स्वतंत्र हुआ. ‘जार्ज वाशिंगटन’ और ‘जेफरसन’ के नेतृत्व में लड़े गये इस ‘अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम’ में वहां के काले गुलाम अफ्रीकी लोग और वहां के मूल निवासी किसके पक्ष में लड़े थे ? आपको शायद आश्चर्य हो लेकिन यह सच है कि इनका अधिकांश हिस्सा इंग्लैंड के पक्ष में जार्ज वाशिंगटन की सेना के खिलाफ लड़ रहा था.

4 जुलाई, 1776 के बाद का इतिहास यह दिखाता है कि उनका निर्णय सही था क्योंकि इसी दिन घोषित तौर पर दुनिया का पहला नस्ल-भेदी देश अस्तित्व में आया, जहां स्वतंत्रता सिर्फ गोरे लोगों के लिए थी और काले लोगों के लिए गुलामी करना नियम था. (‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ काले लोगों की गुलामी से जगमगा रही थी.) स्वयं जार्ज वाशिंगटन और जेफरसन के पास सैकड़ों की संख्या में काले गुलाम उनकी निजी सम्पत्ति के रुप में मौजूद थे.

2014 में अमरीका के मशहूर इतिहासकार ‘गेराल्ड होने’ (ळमतंसक भ्वतदम) ने इसी विषय पर एक विचारोत्तेजक किताब लिखी- ज्ीम ब्वनदजमत-त्मअवसनजपवद वि 1776। इसमें उन्होंने विस्तार से अमरीकी स्वतंत्रता सग्राम के दौरान वहां के काले गुलामों और गोरे अमरीकियों के बीच के ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोधों’ की चर्चा की, जिससे वहां के मुख्यधारा के गोरे इतिहासकार नज़र चुराते रहे हैं.

इसे एक रुपक मानकर यदि हम इसे तत्कालीन भारत पर लागू करे तो कुछ आश्चर्यजनक समानताएं दिखती हैं. यहां के दलितों (विशेषकर ‘अछूतों’) का ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध’ यहां के ब्राह्मणवादी उच्च वर्ण के साथ होगा या बाहर से आये उन अंग्रेजों के प्रति होगा, जो कम से कम छूआछूत का प्रयोग तो नहीं ही करते थे, और जिन्होंने शिवाजी के बाद पहली बार महारों को अपनी सेना में प्रवेश का अवसर दिया. इतिहास कुछ सेट फार्मूलों से नहीं बल्कि अपने वस्तुगत अन्तरविरोधों से आगे बढ़ता है. ‘देशी’ पेशवाआें और ‘बाहरी’ अंग्रेजों के बीच लड़ाई में वे किस तर्क से पेशवाओं का साथ देते ?

इसे और बेहतर तरीके से समझने के लिए इतिहास की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना को ले लेते हैं. 410 ईसवी में जब जर्मन कबीलों ने रोम पर भयानक हमला बोला तो रोम के गुलामों ने क्या अपने दास स्वामियों का साथ दिया ? नहीं ! उन्होंने जर्मन कबीलों के साथ मिलकर रोम की नींव हिला दी. क्या यह रोम के साथ गुलामों की गद्दारी थी ? इसे आप खुद ही तय कर लीजिए. इस वक्त गुलामों की क्या स्थिति थी, इसे जानने के लिए हावर्ड फास्ट की मशहूर कृति ‘स्पार्टकस’ पढ़ा जा सकता है.

1688 की ‘गौरवपूर्ण क्रान्ति’ ने गुलामों के व्यापार को अंग्रेज व्यापारियों के लिए मुक्त कर दिया. इसके पहले गुलाम व्यापार पर सिर्फ राजा का अधिकार होता था और यह सीमित था. इसके फलस्वरुप अफ्रीका से गुलामों का व्यापार सैकड़ों गुना बढ़ गया और उन्हें जहाजों में ठूस-ठूस कर अटलान्टिक सागर के दोनों ओर गुलामी के लिए भेजा जाने लगा. उन गुलामों की नज़र से देखिये तो उनके लिए इस ‘गौरवपूर्ण क्रान्ति’ में गौरवपूर्ण क्या था ?

पुनः भारत पर लौटते हैं. यहां जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म का अनिवार्य हिस्सा है. दरअसल उस अर्थ में हिन्दू धर्म, धर्म भी नहीं है जिस अर्थ में ईसाई या मुस्लिम धर्म हैं. इसमें ना कोई एक ईश्वर है, ना बाइबिल या कुरान की तरह कोई एक किताब है. और जैसा कि अम्बेडकर इसे सटीक तरीके से बताते है कि हिन्दू धर्म में एक ही चीज ऐसी है जो सभी हिन्दुओं को आपस में बांधती है, और वह है उसकी जाति व्यवस्था, जिसे सभी हिन्दू अनिवार्य रुप से मानते हैं.

इस जाति व्यवस्था में सबसे निचली पायदान पर हैं ‘अछूत’, शेष जातियां जिनकी छाया से भी बचती हैं. वर्ण व्यवस्था से भी ये बाहर हैं. हिन्दू मन्दिरों और हिन्दू अनुष्ठानों में इनका प्रवेश वर्जित है. इस रुप में यह दुनिया का पहला और निश्चित रुप से आखिरी धर्म है जो अपने ही एक समुदाय की ईश्वर तक पहुंच को सचेत तरीके से रोक देता है.

ज्योति बा फुले की शिष्या ‘मुक्ता साल्वे’ ने 1855 में लिखे अपने एक लेख में इस तर्क को बहुत असरदार तरीके से रखा है –

‘यदि वेद पर सिर्फ ब्राह्मणों का अधिकार है, तब यह साफ है कि वेद हमारी किताब नहीं है. हमारी कोई किताब नहीं है-हमारा कोई धर्म नहीं है. यदि वेद सिर्फ ब्राह्मणों के लिए है तो हम कतई बाध्य नहीं हैं कि हम वेदों के हिसाब से चले. यदि वेदों की तरफ महज देखने भर से हमें भयानक पाप लगता है (जैसा कि ब्राह्मण कहते हैं) तब क्या इसका अनुसरण करना हद दर्जे की मूर्खता नहीं है ?

मुसलमान कुरान के हिसाब से अपना जीवन जीते हैं, अंग्रेज बाइबिल का अनुसरण करते हैं और ब्राहमणों के पास उनके वेद हैं. चूंकि उनके पास अपना अच्छा या बुरा धर्म है, इसलिए वे लोग हमारी तुलना में कुछ हद तक खुश हैं. हमारे पास तो अपना धर्म ही नहीं है. हे भगवान ! कृपया हमें बताइये कि हमारा धर्म क्या है ?’

इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए डॉ अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को अमानवीय धर्म कहा है.

यदि हम इसकी तुलना ईसाई धर्म या मुस्लिम धर्म से करते हैं तो पाते हैं कि वे जहां भी जाते थे, वहां के निवासियों को अपने धर्म से जोड़ने का प्रयास करते थे. अपने सभी धार्मिक अनुष्ठानों, अपने पूजा स्थलों में उन्हें शामिल करते थे और अपने ईश्वर के साथ उनका नाता जोड़ते थे. हालांकि यह कहने की जरुरत नहीं है कि इसमें उनके अपने राजनीतिक व आर्थिक हित जुड़े होते थे. (इस प्रक्रिया को क्यूबा में 1975 में बनी मशहूर फिल्म ‘दि लास्ट सपर’ में बहुत शानदार तरीके से दिखाया गया है) लेकिन इसके बावजूद हिन्दू धर्म से उनका रणनीतिक अन्तर बहुत साफ है.

यदि हम ‘अछूतों’ की आर्थिक हैसियत की बात करें तो यह बात साफ है कि उनके पास अपनी व्यक्तिगत चीजों के अलावा कोई सम्पत्ति नहीं होती थी. वास्तव में ‘अछूतों’ के लिए सम्पत्ति रखना धार्मिक तौर पर मना था. यानी हिन्दू धर्म में ही ऐसा सम्भव है जहां समाज के एक समुदाय ‘अछूत’ को ना सिर्फ आर्थिक तौर पर गरीब रखा जाता है, वरन् धर्म व ईश्वर से वंचित रखकर उसकी ‘आध्यात्मिक सम्पत्ति’ भी छीन ली जाती है.

धर्म पर इतनी बात इसलिए जरुरी है क्योंकि हम समाज में मौजूद वर्गीय अन्तरविरोधों को तो पकड़ लेते हैं, लेकिन धर्म के अन्दर या धर्म के आवरण में मौजूद अन्तरविरोधों को नहीं देख पाते या उसे नजरअंदाज कर देते हैं. जाति उन्मूलन पर लिखे अपने क्रान्तिकारी दस्तावेज ‘जातिभेद का उच्छेद’ में अम्बेडकर हिन्दू धर्म की तमाम कुटिलताओं-शब्दाडम्बरों को भेदकर उसके भीतर या उसके आवरण में मौजूद उस शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध को सामने लाते है, जिस पर अब तक पर्दा पड़ा हुआ था.

इस अति महत्वपूर्ण किताब के माध्यम से अम्बेडकर ने समूचे दलित समुदाय को हिन्दू धर्म से बाहर खींचकर उन्हें मानसिक गुलामी से आजाद कर दिया और उन्हें स्वतंत्र वैचारिक जमीन मुहैया करायी, जिस पर भावी दलित आन्दोलन की नींव रखी जानी थी. इसी किताब में निष्कर्ष के रुप में अम्बेडकर ने यह साफ कर दिया कि इस शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध (अम्बेडकर ने ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है, लेकिन उनका मतलब यही है) को बनाये रखते हुए समाज का जनवादीकरण करना या/और राष्ट्र निर्माण करना असम्भव है.

डॉ. अम्बेडकर के शब्दो में – ‘जातिप्रथा की नींव पर किसी भी प्रकार का निर्माण संभव नही है’ इसीलिए कांग्रेस द्वारा चलाये जा रहे ‘आजादी’ के आन्दोलन को वे उचित ही शक की निगाह से देख रहे थे. उन्होंने साफ-साफ कहा – ‘प्रत्येक कांग्रेसी को जो बराबरी का यह सिद्धान्त बार-बार दुहराता है कि एक देश को दूसरे देश पर राज करने का अधिकार नहीं है, उन्हें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर राज करने के योग्य नहीं है.’

कांग्रेस और गांधी को राष्ट्रीय आन्दोलन का पर्याय बताने वाले इतिहासकार यह बताना भूल जाते हैं कि गांधी आजीवन वर्णव्यवस्था और प्रकारान्तर से जाति व्यवस्था के समर्थक बने रहे. यही कारण है कि गांधी ने खुलेआम ऐलान किया कि अम्बेडकर हिन्दुत्व के लिए चुनौती हैं. दरअसल कांग्रेस में तिलक के आने के बाद से ही कांग्रेसी नेतृत्व निरन्तर रुढ़िवादी और साम्प्रदायिक होता गया है. ‘पंडित’ नेहरु इसके अपवाद नहीं वरन इस पर पड़ा वह झीना पर्दा था जो अक्सर ही फट जाया करता था और कांग्रेस का असली चेहरा सामने आ जाया करता था.

इस बात पर भी चर्चा होनी चाहिए कि आज हम जिस फासीवाद को अपने नंगे रुप में देख रहे हैं, उसका कितना सम्बन्ध आजादी के आन्दोलन के दौरान और उसके बाद के कांग्रेस और उसके नेतृत्व से रहा है, खैर इस पर चर्चा फिर कभी.

अन्त में – देखिये, नामदेव धसाल की एक शानदार कविता –

सूरज की ओर पीठ किये, वे शताब्दियों तक यात्रा करते रहे,
अब-अब, अंधियारे की ओर यह यात्रा हमें बन्द करनी चाहिए,
और यह कि इस अंधेरे को ढोते-ढोते हमारे पिता अब झुक गये हैं,
अब-अब, हमें उस बोझ को उनकी पीठ से हटाना होगा,
इस वैभवशाली शहर को बनाने में हमारा खून बहा है,
इसके बदले में हमें केवल पत्थर खाने को मिले हैं,
अब-अब, इस गगनचुम्बी इमारत को हमें उड़ाना होगा,
हजारों सालों के बाद हमें एक सूरजमुखी फूल देने वाला फकीर मिला है,
अब-अब, सूरजमुखी के फूल की तरह हमें अपना चेहरा,
सूरज की ओर कर लेना चाहिए.

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