जन सरोकार, अस्पताल-स्कूल के मुद्दे वोट नहीं दिला सकते
हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
यह हमारा ही पुण्य क्षेत्र था जहां कन्हैया कुमार को संसदीय चुनाव में 4 लाख से अधिक वोटों से पराजय मिली थी. और, यह हमारे गांव के आसपास का ही कोई गांव था जहां बतौर प्रत्याशी जन सम्पर्क करने आए कन्हैया कुमार को राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत एक उत्साही व्यक्ति ने चुनौती भरे स्वरों में पूछा था, ‘धारा 370 पर आपको क्या कहना है ?’
‘…आपके अस्पताल विहीन इलाके में एक बेहतर अस्पताल खुलना चाहिये, इस पर आपको क्या कहना है ?’ कन्हैया का प्रतिप्रश्न था.
‘आप मुद्दे को भटका रहे हैं…’ गर्दन में लपेटे गमछे को हाथों में लेकर लहराते, फिर नए सिरे से गर्दन में लपेटते उस आदमी ने यह कहते हुए भीड़ की ओर देखा, इस प्रत्याशा में कि लोग उसका साथ देंगे. कुछ लोग हे-हे कर हंसने लगे, कुछ अपनी मुंडियां हिलाने लगे. पता नहीं, धारा 370 के समर्थन में या अस्पताल के समर्थन में. अगले ही पल माहौल का मिज़ाज़ बदल गया, क्योंकि तब तक कन्हैया भीड़ में कुछ दूर खड़े एक बुजुर्ग की तरफ बढ़ गए.
आज वीडियो वायरल हो रहे हैं जिनमें हमारे इलाके के कोरोना संक्रमित लोग अपनी व्यथा बता रहे हैं कि उन्हें बिस्तर नहीं दिया जा रहा, कितने लोग अस्पताल के बरामदे पर दो दिन से पड़े हैं, कोई सपोर्ट स्टाफ नजर नहीं आ रहा, भर-भर दिन भूखे रह जा रहे हैं क्योंकि खाना ठीक से नहीं दिया जा रहा, ऑक्सीजन सिलिंडर का घोर अभाव है, डॉक्टर का पता नहीं चल पा रहा आदि…आदि.
जब सपोर्ट स्टाफ और डॉक्टर्स के आधे से अधिक पद खाली हों, जीवन रक्षक उपकरणों का घोर अभाव हो, अधिकतर अस्पताल खुद ही बुरी तरह बीमार और गंदे हों … तो वहां संक्रमण के बढ़ते मामलों पर कोई डीएम, कोई सिविल सर्जन, कोई बीडीओ क्या करे ! जिससे जहां तक बन पा रहा लोग कर रहे हैं, लेकिन जब हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर ही ध्वस्तप्राय हो तो सिस्टम की लाचारी और बीमारों की फ़ज़ीहत स्वाभाविक है.
अभी परसों हमारे एक पत्रकार मित्र ने हमारे अनुमंडल मुख्यालय में अवस्थित रेफरल अस्पताल का फोटो फेसबुक पर डालते हुए उसकी दुर्दशा का मार्मिक विवरण साझा किया. फोटो देख कर लग रहा था कि लार्ड डलहौजी कालीन कोई जीर्ण-शीर्ण मकान है जिसकी बदरंग दीवारों पर पेड़-पौधे उग आए हैं. वाकई, अखबारी भाषा में कहें तो – ‘खुद की दुर्दशा पर आंसू बहाता अस्पताल…’.
नहीं, यह अस्पताल अधिक पुराना नहीं. हमारे गांव के एक सम्पन्न व्यक्ति ने निजी संपत्ति दान कर इसकी स्थापना 30-40 वर्ष पहले की थी, जिसे सरकार ने अंगीकृत कर लिया. फिर, जैसा कि अक्सर सरकारी अस्पतालों का हाल होता है, इसका भी वही हुआ.
नहीं, यह इकलौता अस्पताल नहीं. 1990-91 में हमारे बड़े गांव को अनुमंडल मुख्यालय का दर्जा मिला. 12-14 वर्ष पहले अलग से एक अनुमंडलस्तरीय अस्पताल का शिलान्यास हुआ. कुछ बरसों में विशालकाय बिल्डिंग बन कर तैयार भी हो गई. फिर…, पता नहीं, क्या हुआ, सबकुछ ठप. बरसों-बरस गुजर चुके, नवनिर्मित बिल्डिंग की दीवारें बदरंग होने लगीं, जनशून्य परिसर में गंदगी का अंबार लगने लगा. अस्पताल शुरू नहीं ही हुआ. आज तक नहीं हुआ. अब तो दिन में भी उधर देखने में डर लगता है.
बीते संसदीय चुनाव में हमारे क्षेत्र के अधिकतर युवाओं के मानसलोक पर पाकिस्तान, कश्मीर, जेएनयू का देशद्रोही चरित्र, घुस कर मारने वाला नेता आदि मुद्दे हावी थे. कन्हैया कुमार के गांव से ही ऐसे वीडियो वायरल करवाए जा रहे थे जिनमें उनके रिश्ते के चाचा, ताऊ, भाई आदि टाइप के लोग भी उन्हें देशद्रोही ठहराते हुए किसी भी हालत में उन्हें वोट नहीं देने का संकल्प दर्शा रहे थे. यह इतिहास का एक चौराहा था, जिस पर हमारा क्षेत्र खड़ा था.
महत्व इसका नहीं कि कन्हैया कैसे नेता हैं या सीपीआई की राजनीति आज की तारीख में कितनी प्रासंगिक है. महत्व इसका था कि कोई युवा नेता आम लोगों को समझा रहा था कि उन्हें जन सरोकार के मुद्दों पर ध्यान देना चाहिये. बेहद सामान्य पृष्ठभूमि से आया कोई अच्छा पढा-लिखा नेता लोगों को समझाने की कोशिश कर रहा था कि कारपोरेट संचालित राजनीति उनके और उनके बच्चों के लिये अंततः कितनी घातक साबित होने वाली है.
मुद्दा अस्पताल और स्कूल बनाम पाकिस्तान, तीन तलाक, कश्मीर आदि का था. मुद्दा देशभक्ति और राष्ट्र की परिभाषाओं का था जिन्हें विकृत करने की तमाम कोशिशें हुईं. मुद्दा जन सरोकार बनाम आम जन के दिलोदिमाग को बेवजह के मुद्दों में उलझा कर दिग्भ्रमित करने का था. कभी क्रांति की धरती कहे जाने वाले हमारे क्षेत्र ने इतिहास के उस चौराहे से जिस रास्ते पर आगे बढ़ना चुना, यह भी एक इतिहास ही है.
हमारे जागरूक क्षेत्र ने भी साबित किया कि जन सरोकार के मुद्दे वोट नहीं दिला सकते और चीख-चीख कर लोगों को उन्मादित कर देने, भरमा देने की राजनीति वोटों से झोलियां भर डालती है.
आज के अखबारों में खबर है कि बिहार सरकार ने निर्देश दिये हैं कि अब अनुमंडलीय अस्पतालों में भी कोरोना जांच के सैम्पल लिए जाएंगे. लेकिन, 30 वर्ष पुराने हमारे अनुमंडल मुख्यालय में क्या होगा ? यहां तो ऐसा कोई अस्पताल है ही नहीं. अस्पताल के नाम पर जो बिल्डिंग कब की बनी अब ढहने के कगार पर है, उसके परिसर में बकरियां चरती हैं, कुत्ते टहलते हैं.
वैसे, आजकल हमलोग इस बात से अत्यंत मुदित हैं कि थरथर कांपते पाकिस्तान के बाद आखिर चीन की सिट्टी-पिट्टी भी गुम हो ही गई.
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