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बात 21वीं सदी के शुरूआती दिनों की है

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बात इक्कीसवीं सदी की
पहली दहाई के शुरूआती दिनों की है
जब बर्बरता और पागलपन का
एक नया अध्याय शुरू हो रहा था
कई रियासतों और कई क़िस्म की
सियासतों वाले एक मुल्क में
गुजरात नाम का एक सूबा था
जहां अपने हिन्दू होने के गर्व और
मूर्खता में डूबे हुए क्रूर लोगों ने
जो सूबे की सरकार और
नरेन्द्र मोदी नामक उसके मुख्यमन्त्री के
पूरे संरक्षण में हज़ारों लोगों की हत्याएं कर चुके थे
और बलात्कार की संख्याएं
जिनकी याददाश्त की सीमा पार कर चुकी थीं
एक शायर जिसका नाम वली दकनी था
का मज़ार तोड़ डाला !

वह हिन्दी-उर्दू की साझी विरासत का कवि था
जो लगभग चार सदी पहले हुआ था और
प्यार से जिसे
बाबा आदम भी कहा जाता था

हालांकि इस कारनामे का
एक दिलचस्प परिणाम सामने आया
कि वह कवि जो बरसों से चुपचाप
अपनी मज़ार में सो रहा था
मज़ार से बाहर आ गया
और हवा में फ़ैल गया !

इक्कीसवीं सदी के उस
शुरूआती साल में एक दूसरे कवि ने
जो मज़ार को तोड़ने वालों के सख्त ख़िलाफ़ था
किसी तीसरे कवि से कहा कि
मैं दंगाइयों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं
कि उन्होंने वली की मज़ार की मिट्टी को
सारे मुल्क की मिट्टी, हवा और पानी का
हिस्सा बना दिया !

अपने हिन्दू होने के गर्व और
मूर्खता में डूबे उन लोगों को
जब अपने इस कारनामे से भी सुकून नहीं मिला
तो उन्होंने रात-दिन मेहनत-मशक़्क़त करके
गेंदालाल पुरबिया या छज्जूलाल अढाऊ जैसे ही
किसी नाम का कोई एक कवि और
उसकी कविताएं ढूंढ़ निकलीं

और उन्होंने दावा किया कि वह
वली दकनी से भी अगले वक़्त का कवि है
और छद्म धर्मनिरपेक्ष लोगों के चलते
उसकी उपेक्षा की गई
वरना वह वली से पहले का
और ज़्यादा बड़ा कवि था !
फिर उन लोगों ने जिनका ज़िक्र
ऊपर कई बार किया जा चुका है
कोर्स की किताबों से वो सारे सबक़
जो वली दकनी के बारे में लिखे गए थे
चुन-चुनकर निकाल दिए

यह क़िस्सा क्योंकि इक्कीसवीं सदी की भी
पहली दहाई के शुरूआती दिनों का है
इसलिए बहुत मुमकिन है कि
कुछ बातें सिलसिलेवार न हों
फिर आदमी की याददाश्त की भी एक हद होती है !

और कई बातें इतनी तकलीफ़देह
होती है कि उन्हें याद रखना
और दोहराना भी तकलीफ़देह होता है
इसलिए उन्हें यहां जान-बूझकर भी
कुछ नामालूम-सी बातों को छोड़ दिया गया है
लेकिन एक बात जो बहुत अहम है
और सौ टके सच है
उसका बयान कर देना मुनासिब होगा
कि वली की मज़ार को
जिन लोगों ने नेस्तनाबूत किया
या यह कहना ज्यादा सही होगा कि करवाया
वे हमारी आपकी नसल के
कोई साधारण लोग नहीं थे
वे कमाल के लोग थे
उनके सिर्फ़ शरीर ही शरीर थे
आत्माएं उनके पास नहीं थीं
वे बिना आत्मा के शरीर का
इस्तेमाल करना जानते थे
उस दौर के क़िस्सों में
कहीं-कहीं इसका उल्लेख मिलता है
कि उनकी आत्माएं उन लोगों के पास गिरवी रखी थी,
जो विचारों में बर्बरों को मात दे चुके थे
पर जो मसखरों की तरह दिखते थे
और अगर उनका बस चलता तो प्लास्टिक सर्जरी से
वे अपनी शक्लें हिटलर और मुसोलिनी की तरह बनवा लेते !

मुझे माफ़ करें मैं बार-बार बहक जाता हूं
असल बात से भटक जाता हूं
मैं अच्छा क़िस्सागो नहीं हूं
पर अब वापस मुद्दे की बात पर आता हूं

कोर्स की किताबों से वली दकनी वाला सबक़
निकाल दिए जाने से भी
जब उन्हें सुकून नहीं मिला
तो उन्होंने अपने पुरातत्वविदों और
इतिहासकारों को तलब किया
और कहा कि कुछ करो,
कुछ भी करो
पर ऐसा करो
कि इस वली नाम के शायर को
इतिहास से बाहर करो !

यक़ीन करें मुझे आपकी
मसरूफ़ियतों का ख़्याल है
इसलिए उस तवील वाकिए को मैं नहीं दोहराऊंगा
मुख़्तसर यह कि
एक दिन….!

ओह ! मेरा मतलब यह कि
इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के
शुरूआती दिनों में एक दिन
उन्होंने वली दकनी का हर निशान
पूरी तरह मिटा दिया
मुहावरे में कहे तो कह सकते हैं
नामोनिशान मिटा दिया !

उन्ही दिनों की बात है कि एक दिन

जब वली दकनी की हर याद को
मिटा दिए जाने का
उन्हें पूरा इत्मीनान हो चुका था
और वे पूरे सुकून से
अपने-अपने बैठकखानों में बैठे थे
तभी उनकी छोटी-छोटी बेटियां
उनके पास से गुज़री
गुनगुनाती हुई

वली तू कहे अगर यक वचन
रकीबां के दिल में कटारी लगे !

  • राजेश जोशी

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