सुब्रतो चटर्जी
वक़्त बीतने के बाद भी इतिहास की आत्मा जीवित रहती है और हमें सताती है. जब इतिहास अपने को दुहराता है तब एक अजीब बात होती है. अतीत में जो प्रतिपक्षी थे वे सब सम्मिलित होकर एक ही चेहरे में समा जाते हैं क्योंकि अतृप्त आत्माएंं रक्त पिपासु होती हैं.
आम धारणा के अनुसार इतिहास का महत्व इसलिए है कि हम उससे सबक़ लेकर अपने पूर्वजों की ग़लतियों को दुहराने के से बाज आएंं और एक बेहतर दुनिया बनाने की कोशिश में लगे रहें. दूसरी मान्यता के अनुसार, इतिहास अपने को दुहराता है.
विरोधाभास यह है कि अगर पहला सही है तो दूसरा सही नहीं हो सकता. मतलब ये है कि अगर हम इतिहास से सबक सीखकर हमारे पूर्वजों द्वारा की गई ग़लतियों को न दुहराएंं तो इतिहास भी खुद को नहीं दुहराएगा.
इस दृष्टि से देखें तो सबसे बड़ी ज़रूरत इतिहास की सही समझ विकसित करने की है, क्योंकि बिना इसके आपको पता ही नहीं चलेगा कि ग़लतियांं कहांं हुई ? इतिहास के स्रोत अलग-अलग हैं, जैसे लिखित, अलिखित, श्रुति, काव्य या साहित्य इत्यादि.
दूसरे, काल खंडों के विभाजन के लिहाज़ से भी इतिहास विभाजित है, निकट अतीत और सुदूर अतीत में. सुदूर अतीत की निष्पक्ष व्याख्या करना ज़्यादा आसान है, निकट अतीत के बनिस्पत, क्योंकि ऐसा करने में हमारे पूर्वाग्रह और व्यक्तिगत अनुभव कम आड़े आते हैं.
यहांं पर मैं भारत के इतिहास के एक विशेष कालखंड और उसमें घटित हुई एक युगांतकारी घटना का विश्लेषण करूंंगा, जिससे शायद आज के भारत को बेहतर समझा जा सके.
वह साल है सन 1857 और घटना आप सभी जानते हैं. जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ के पहले इस घटना को अंग्रेजों की तर्ज़ पर सिपाही विद्रोह कहा जाता था. नेहरू जी ने इसे पहली बार आज़ादी की पहली लड़ाई के उन्वान से नवाज़ा. उनकी अपनी राजनीतिक ऐतिहासिक समझ थी, जिस पर बहस करना मेरा ध्येय नहीं है.
मैं इस घटना के पीछे की राजनीतिक सोच को लेकर हमेशा से ही असहज रहा हूंं. 1857 के ग़दर के पीछे एक अफ़वाह थी, नए कारतूस में गाय और सुअर की चर्बी का होना, जिसे न मंगल पांडेय जैसा ब्राह्मण बर्दाश्त कर पाता, न ही कोई भी मुस्लिम सिपाही. धर्म की रक्षा के सवाल पर दोनों क़ौमों ने मिलकर विद्रोह का बिगुल फूंक दिया.
अब यहांं दो सवाल है : पहला ये कि यह अफ़वाह किसने फैलाई ? और दूसरा यह कि धार्मिक मान्यताओं की रक्षा की लड़ाई आज़ादी की लड़ाई कैसे बन सकती है ?
जहां तक पहले प्रश्न का जवाब है, इतिहास इस पर चुप है. किसी ने अगर अफ़वाह फैलाई तो उसके पीछे कोई तो वजह रही होगी. ज़रूरत है उस वजह को ढूंंढ़ना ताकि यह पता चल सके कि इससे किसको कितना फ़ायदा पहुंंच रहा था. ज़ाहिर है, यह काम किसी अंग्रेज का तो हो नहीं सकता था. दूसरा सवाल ज़्यादा महत्वपूर्ण है. क्या 1857 का ग़दर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ एक धर्मयुद्ध था, जिसने राजनीतिक जामा पहन लिया ?
इतिहास गवाह है कि दुनिया भर में जितने भी धर्म युद्ध हुए उनमें राजाओं और साम्राज्यवादी ताक़तों की भागीदारी रही. ग़दर कोई अपवाद नहीं था. इसके पक्ष में खड़े होने वाले सभी राजा-रजवाड़े अपनी-अपनी जागीरें अंग्रेजों से बचाने की जुगाड़ में थे. बहादुर शाह ज़फ़र को हिंदुस्तान का सुल्तान घोषित करना भी उसी श्रृंखला की एक कड़ी थी.
1857 में भारत एक राष्ट्र था ही नहीं कि यह मान लिया जाए कि ग़दर भारत की स्वतंत्रता की पहली या कोई भी लड़ाई थी.
1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था, और कोई भी ब्रिटिश गवर्नर नहीं था जो कि हिंदू या मुस्लिम धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध जाकर कोई क़ानून बनाता. कुंवर सिंह से लेकर झांंसी की रानी तक सभी कंपनी के फ़ौज के विरुद्ध लड़ रहे थे और बहुतेरे भारतीय रजवाड़े कंपनी की ओर से भी लड़ रहे थे. अगर यह आज़ादी की लड़ाई होती तो परिदृश्य कुछ अलग होता.
मूल प्रश्न पर लौटने पर पता चलता है कि यह ग़दर धार्मिक भावनाओं पर चोट की प्रतिक्रियास्वरूप हुई थी. दूसरे शब्दों में, जड़ता की परिवर्तन के ख़िलाफ़ विद्रोह.
जड़ता सिर्फ़ प्रतिक्रिया में ही गतिशील होती है और यही प्रतिक्रियावाद है. पाश्चात्य ज्ञान और मान्यताओं से लबरेज़ अंग्रेजों को गाय या सुअर में कोई अंतर नहीं दिखता था, लेकिन हिंदू और मुसलमानों की हारी हुई क़ौमें इनके अंदर अपनी-अपनी पहचान ढूंंढ़ रहे थे. ये मान्यताएंं उनकी बाहरी दुनिया के विरुद्ध एक मानसिक क़िलेबंदी थी, जिसके आख़िरी दरवाज़े के ढ़हने पर संपूर्ण मानसिक विनाश तय था.
एक तरह से यह एक जाति की समाप्त होते पहचान की रक्षा की लड़ाई थी, जिसमें ज़्यादा ताकतवर जीत गए. आज हम इतिहास के इस पन्ने को देशभक्ति के रुमानियत भरे रंगों से भर कर फ़िल्में या कहानी कविताएंं बना सकते हैं, लेकिन सच नहीं बदलता .
आज वही इतिहास अपने को दुहरा रहा है. आप पूछेंगे कैसे ? पहली बात तो यह है कि इतिहास के अपने को दुहराने का मतलब उन्हीं विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों में लौटना नहीं होता है, जिनमें से बने थे या घटित हुए थे. यह असंभव है क्योंकि वो परिस्थितियांं वाह्य आवरण थे, जो समय के साथ क्षीण होकर लुप्त हो गए. मुझे नहीं पता कि मनुष्य के मरने के बाद आत्मा रह जाती है कि नहीं, लेकिन वक़्त बीतने के बाद भी इतिहास की आत्मा जीवित रहती है और हमें सताती है.
1857 के ग़दर के बाद, जैसा कि सबको पता है, अंग्रेज़ों ने हिंदू और मुसलमानों के बीच दरार पैदा करने की सफल कोशिश की, और विभिन्न रजवाड़ों के बीच भी ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति अपनाई. यह नीति कैसे देश के विभाजन के लिए ज़िम्मेदार रहा और कैसे संघ की सफलता का कारक बना, इस पर बहुत कुछ कहा लिखा गया है.
मेरा सवाल कुछ अलग है. अगर हम यह मान लें कि आज भी भारतीय समाज अगर धार्मिक या जातिय मान्यताओं को अपनी पहचान की संकट के आख़िरी क़िले के रूप में देखता है, तो हम मानसिक रूप से 1857 के समाज से कितना आगे निकले ? अगर नहीं तो क्यों, और अगर हांं तो आज ये सांप्रदायिक और जातिय वैमनस्य क्यों ?
1857 का सबसे बड़ा सबक यही है कि जब भी कोई क़ौम या क़ौमें अपनी धार्मिक मान्यताओं के लिए लड़ती है तो हार जाती है क्योंकि जंग के मैदान में फ़ैसला भावनाओं के पक्ष में नहीं होता.
समय कई करवटें ले चुका है. अब न कंपनी रही, न बक्सर की लड़ाई होगी और न चुनार का युद्ध लेकिन इतिहास की आत्मा जीवित है. यह तब तब बोलने लगती है जब जब हम ‘जय श्री राम’ और ‘अल्लाह हू अकबर’ कहते हैं. जब जब हम हिंदुत्व की रक्षा के लिए फ़ासिस्ट हत्यारों को अपना भाग्य विधाता चुनते हैं. जब-जब हम पूरे देश को लुटता पिटता मरता हारता देख कर गर्व से अपने को हिंदू कहते हैं. जब-जब हममें से कोई नव पूंंजीपतियों की ग़ुलाम सरकार और व्यवस्था को ढोने वालों की पालकी ढोते हैं कंपनी के वफ़ादारों की तरह.
जब इतिहास अपने को दुहराता है तब एक अजीब बात होती है. अतीत में जो प्रतिपक्षी थे वे सब सम्मिलित होकर एक ही चेहरे में समा जाते हैं क्योंकि अतृप्त आत्माएंं रक्त पिपासु होती हैं. ग़दर की सही समझ हमें बहुत कुछ समझा सकती है. इसी तरह और भी पन्ने हैं, अनगिनत.
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