चन्द्रयान 3 के लैंडर विक्रम के सफलतापूर्वक चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने की प्रक्रिया ने जहां विज्ञान के क्षेत्र में भारत के वैज्ञानिकों का सर गर्व से ऊंचा कर दिया, वहीं इसका श्रेय लेने के लिए अनपढ़ों, विरोधियों का सरगना एंड कंपनी ताबड़तोड़ कुचेष्टा में जुट गया. पनौती के रुप में कुख्यात भारत का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जहां विदेश में जाकर झंडा हिला रहा है, वहीं उसके भक्त ‘मोदी-मोदी’ का नारा लगा रहख है और उसके लिए कशीदे पढ़ रहा है. जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल उलट है.
इसरो की इस सफलता का श्रय अगर किसी किसी को दिया जा सकता है तो वे हैं भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की वैज्ञानिक नीतियां, जिसको अनपढ़ों और असमाजिक तत्वों का गिरोह संघ और भाजपा आये दिन कोसते नजर आते हैं और उन्हें देशद्रोही तक कहने में लज्जा तक का नहीं करते. आज भी अनपढ़ों और बलात्कारियों का सरगना नरेन्द्र मोदी इसरो को बंद करने या बेच डालने के लिए इसरो के फंड में लगातार कटौती कर रहा है, जिस कारण इसरो अपने वैज्ञानिकों को 17 महीनों से वेतन तक नहीं दे रहा है.
गौरतलब हो कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के विज्ञान के प्रति खास प्रेम ने भारत को अंतरिक्ष विज्ञान में आज सशक्त बना दिया है. स्वतंत्रता के बाद ही पंडित जवाहर नेहरू के निर्देश पर भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान की तरफ कदम बढ़ाना शुरू कर दिया था. आजादी के संघर्ष के दौरान पश्चिमी देशों और सोवियत संघ की यात्रा के दौरान पंडित नेहरू ने विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे कामों को ध्यान से देखा था.
आजाद भारत में भी विज्ञान उनकी प्राथमिकता में था. हालांकि इसरो की स्थापना तो 15 अगस्त 1969 को हुई थी, लेकिन आधुनिक भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान की नींव पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने जीते जी डाली थी, जो आज एक लंबे सफर के बाद आज दुनिया के तमाम उन मुल्कों में भारत को स्थान दिलवाया है, जो अपने अंतरिक्ष विज्ञान को लेकर गर्व करते हैं. पंडित नेहरू ने ही इंडियन नेशनल कमेटी फॉर रिसर्च नामक इकाई का गठन कर दिया था, जिसका नेतृत्व प्रसिद वैज्ञानिक विक्रम साराभाई कर रहे थे.
नेहरू ने इस इकाई का गठन अपने मृत्यु से दो साल पहले कर लिया था. इसरो की आधिकारिक वेबसाइट पर इसकी जानकारी देते हुए बताता है कि भारत ने अंतरिक्ष में जाने का फैसला 1962 में तब किया था जब इंडियन नेशनल कमेटी फॉर रिसर्च की स्थापना की गई थी. हालांकि यह एक दूसरी सच्चाई भी है कि 1969 में ही जब इसरो की स्थापना हुई तो उस समय देश की प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल की बेटी इंदिरा गांधी ही थी और इन तमाम प्रक्रिया के लिए नेहरू विक्रम साराभाई ने बतौर वैज्ञानिक जिम्मेदारी सौंपी थी.
आइये जानते हैं विक्रम साराभाई के बारे मजं, जिन्होंने भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के सपनों को साकार किया. विक्रम साराभाई (जन्म- 12 अगस्त, 1919, अहमदाबाद; मृत्यु- 30 दिसम्बर, 1971, तिरुवनंतपुरम) को भारत के ‘अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक’ माना जाता है. इनका पूरा नाम ‘डॉ. विक्रम अंबालाल साराभाई’ था. इन्होंने भारत को अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में नई ऊंचाईयों पर पहुंचाया और अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर देश की उपस्थिति दर्ज करा दी. विक्रम साराभाई ने अन्य क्षेत्रों में भी समान रूप से पुरोगामी योगदान दिया.
वे अंत तक वस्त्र, औषधीय, परमाणु ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिक्स और कई अन्य क्षेत्रों में लगातार काम करते रहे थे. डॉ. साराभाई एक रचनात्मक वैज्ञानिक, एक सफल और भविष्यदृष्टा उद्योगपति, सर्वोच्च स्तर के प्रर्वतक, एक महान् संस्थान निर्माता, एक भिन्न प्रकार के शिक्षाविद, कला के पारखी, सामाजिक परिवर्तन के उद्यमी, एक अग्रणी प्रबंधन शिक्षक तथा और बहुत कुछ थे.
डॉ. साराभाई का जन्म पश्चिमी भारत में गुजरात राज्य के अहमदाबाद शहर में 1919 को हुआ था. साराभाई परिवार एक महत्त्वपूर्ण और संपन्न जैन व्यापारी परिवार था. उनके पिता अंबालाल साराभाई एक संपन्न उद्योगपति थे तथा गुजरात में कई मिलों के स्वामी थे. विक्रम साराभाई, अंबालाल और सरला देवी के आठ बच्चों में से एक थे. अपनी इंटरमीडिएट विज्ञान की परीक्षा पास करने के बाद साराभाई ने अहमदाबाद में गुजरात कॉलेज से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की. उसके बाद वे इंग्लैंड चले गए और ‘केम्ब्रिज विश्वविद्यालय’ के सेंट जॉन कॉलेज में भर्ती हुए.
उन्होंने केम्ब्रिज से 1940 में प्राकृतिक विज्ञान में ट्राइपॉस हासिल किया. ‘द्वितीय विश्वयुद्ध’ के बढ़ने के साथ साराभाई भारत लौट आये और बेंगलोर के ‘भारतीय विज्ञान संस्थान’ में भर्ती हुए तथा नोबेल पुरस्कार विजेता सी. वी. रामन के मार्गदर्शन में ब्रह्मांडीय किरणों में अनुसंधान शुरू किया. विश्वयुद्ध के बाद 1945 में वे केम्ब्रिज लौटे और 1947 में उन्हें उष्णकटिबंधीय अक्षांश में कॉस्मिक किरणों की खोज शीर्षक वाले अपने शोध पर पी.एच.डी. की डिग्री से सम्मानित किया गया.
साराभाई को ‘भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक’ माना जाता है. वे महान् संस्थान निर्माता थे और उन्होंने विविध क्षेत्रों में अनेक संस्थाओं की स्थापना की या स्थापना में मदद की थी. अहमदाबाद में ‘भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला’ की स्थापना में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. केम्ब्रिज से 1947 में आज़ाद भारत में वापसी के बाद उन्होंने अपने परिवार और मित्रों द्वारा नियंत्रित धर्मार्थ न्यासों को अपने निवास के पास अहमदाबाद में अनुसंधान संस्थान को धन देने के लिए राज़ी किया.
इस प्रकार 11 नवम्बर, 1947 को अहमदाबाद में विक्रम साराभाई ने ‘भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला’ (पीआरएल) की स्थापना की. उस समय उनकी उम्र केवल 28 वर्ष थी. साराभाई संस्थानों के निर्माता और संवर्धक थे और पीआरएल इस दिशा में पहला क़दम था. विक्रम साराभाई ने 1966-1971 तक पीआरएल की सेवा की.
संस्थानों की स्थापना
‘परमाणु ऊर्जा आयोग’ के अध्यक्ष पद पर भी विक्रम साराभाई रह चुके थे. उन्होंने अहमदाबाद में स्थित अन्य उद्योगपतियों के साथ मिल कर ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट’, अहमदाबाद की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. डॉ. साराभाई द्वारा स्थापित कतिपय सुविख्यात संस्थान इस प्रकार हैं –
- भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल), अहमदाबाद
- इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट (आईआईएम), अहमदाबाद
- कम्यूनिटी साइंस सेंटर, अहमदाबाद
- दर्पण अकाडेमी फ़ॉर परफ़ार्मिंग आर्ट्स, अहमदाबाद
- विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र, तिरुवनंतपुरम
- स्पेस अप्लीकेशन्स सेंटर, अहमदाबाद
- फ़ास्टर ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर (एफ़बीटीआर), कल्पकम
- वेरिएबल एनर्जी साइक्लोट्रॉन प्रॉजेक्ट, कोलकाता
- इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड(ईसीआईएल), हैदराबाद
- यूरेनियम कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड(यूसीआईएल), जादूगुडा, बिहार
‘इसरो’ की स्थापना
‘भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन’ (इसरो) की स्थापना उनकी महान् उपलब्धियों में एक थी. रूसी स्पुतनिक के प्रमोचन के बाद उन्होंने भारत जैसे विकासशील देश के लिए अंतरिक्ष कार्यक्रम के महत्व के बारे में सरकार को राज़ी किया. डॉ. साराभाई ने अपने उद्धरण में अंतरिक्ष कार्यक्रम के महत्व पर ज़ोर दिया था –
‘ऐसे कुछ लोग हैं, जो विकासशील राष्ट्रों में अंतरिक्ष गतिविधियों की प्रासंगिकता पर सवाल उठाते हैं. हमारे सामने उद्देश्य की कोई अस्पष्टता नहीं है. हम चंद्रमा या ग्रहों की गवेषणा या मानव सहित अंतरिक्ष-उड़ानों में आर्थिक रूप से उन्नत राष्ट्रों के साथ प्रतिस्पर्धा की कोई कल्पना नहीं कर रहें हैं, लेकिन हम आश्वस्त हैं कि अगर हमें राष्ट्रीय स्तर पर और राष्ट्रों के समुदाय में कोई सार्थक भूमिका निभानी है, तो हमें मानव और समाज की वास्तविक समस्याओं के लिए उन्नत प्रौद्योगिकियों को लागू करने में किसी से पीछे नहीं रहना चाहिए.’
परमाणु विज्ञान कार्यक्रम
भारतीय परमाणु विज्ञान कार्यक्रम के जनक के रूप में व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त डॉ. होमी जहांगीर भाभा ने भारत में प्रथम राकेट प्रमोचन केंद्र की स्थापना में डॉ. साराभाई का समर्थन किया. यह केंद्र मुख्यतः भूमध्य रेखा से उसकी निकटता की दृष्टि से अरब महासागर के तट पर, तिरुवनंतपुरम के निकट थुम्बा में स्थापित किया गया. अवसंरचना, कार्मिक, संचार लिंक और प्रमोचन मंचों की स्थापना के उल्लेखनीय प्रयासों के बाद 21 नवम्बर, 1963 को सोडियम वाष्प नीतभार सहित उद्घाटन उड़ान प्रमोचित की गयी.
इसरो का आज का लॉंच पैड कभी मैरी मैग्डलेन चर्च था. आज भी उसका ऑल्टर सुरक्षित है. जी हां, इसरो के विकास के साथ जब लांचिंग पैड की ज़रूरत पड़ी तो विक्रम साराभाई ने उपयुक्त जगह की खोज शुरू की, सबसे बेहतर जगह थी थुंबा, जो पृथ्वी के मैग्नेटिक इक्वेटर के बहुत पास है.
पर उस में एक मुश्किल थी- वहां एक चर्च था, और सदियों पुराना गांव. चर्च की स्थापना 1544 में हुई थी और फ़्रांसिस ज़ेवियर ने की थी. बाद में समुद्र में बहकर मैरी मैग्डलेन की मूर्ति आ गई तो चर्च मैरी मैग्डलेन चर्च बन गया. ख़ैर, विक्रम साराभाई केरल के बिशप से मिले, उनसे चर्च की जगह विज्ञान के लिए देने का अनुरोध किया. बिशप बड़ी देर ख़ामोश रहे, फिर जवाब दिया – ‘संडे मास में आना.’
संडे मास हुई- उसमें विक्रम साराभाई के साथ ए. पी. जे. अबुल कलाम भी गये थे. अपनी किताब इग्नाइटेड माइंड्स में उन्होंने बड़े विस्तार से इस घटना का ज़िक्र किया है. कलाम साहब ने लिखा है कि बिशप ने चर्च की मास में आये लोगों को पूरी बात बताई. जोड़ा कि एक तरह से विज्ञान और उनका काम एक ही है- मानवता की भलाई. फिर पूछा – ‘क्या चर्च इसरो को दे दें ?’ कुछ देर खामोशी रही, फिर साझा जवाब आया- ‘आमीन !’
इस प्यारी घटना की एक बेहद खूबसूरत प्रतीकात्मकता पर गौर करें- नये-नये आज़ाद हुए भारत में विज्ञान की तरक़्क़ी के लिए एक हिंदू और एक मुस्लिम एक ईसाई पादरी से उसका चर्च मांगने गये और उन्होंने दे दिया. एक और खूबसूरत बात हुई- चर्च की इमारत को तोड़ा नहीं गया, आज का स्पेस म्यूजियम वही चर्च है. ऑल्टर (पवित्र स्थल) के साथ. इस घटना, और चर्च के बारे में और विस्तार से जानने के लिए आर अरवामुदन और गीता अरवामुदन की किताब इसरो- ए पर्सनल हिस्ट्री (ISRO: A Personal History by R. Aravamudan, Gita Aravamudan) पढ़ें. अरवामुदन लांचिंग पैड के डायरेक्टर से लेकर इसरो के डायरेक्टर तक रहे.
साराभाई का अन्य योगदान
डॉ. साराभाई विज्ञान की शिक्षा में अत्यधिक दिलचस्पी रखते थे इसीलिए उन्होंने 1966 में सामुदायिक विज्ञान केंद्र की स्थापना अहमदाबाद में की. आज यह केंद्र ‘विक्रम साराभाई सामुदायिक विज्ञान केंद्र’ कहलाता है. 1966 में नासा के साथ डॉ. साराभाई के संवाद के परिणामस्वरूप जुलाई, 1975 से जुलाई, 1976 के दौरान ‘उपग्रह अनुदेशात्मक दूरदर्शन परीक्षण’ (एसआईटीई) का प्रमोचन किया गया. डॉ. साराभाई ने भारतीय उपग्रहों के संविरचन और प्रमोचन के लिए परियोजनाएं प्रारंभ की. इसके परिणामस्वरूप प्रथम भारतीय उपग्रह आर्यभट्ट, रूसी कॉस्मोड्रोम से 1975 में कक्षा में स्थापित किया गया.
मृत्यु
अंतरिक्ष की दुनिया में भारत को बुलन्दियों पर पहुंचाने वाले और विज्ञान जगत में देश का परचम लहराने वाले इस महान् वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई की मृत्यु 30 दिसम्बर, 1971 को कोवलम, तिरुवनंतपुरम, केरल में हुई.
पुरस्कार
- शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार (1962)
- पद्मभूषण (1966)
- पद्मविभूषण, मरणोपरांत (1972)
महत्त्वपूर्ण पद
- भौतिक विज्ञान अनुभाग, भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष ([1962)
- आई.ए.ई.ए., वेरिना के महा सम्मलेनाध्यक्ष (1970)
- उपाध्यक्ष, ‘परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण उपयोग’ पर चौथा संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (1971)
सम्मान
रॉकेटों के लिए ठोस और द्रव नोदकों में विशेषज्ञता रखने वाले अनुसंधान संस्थान, विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र (वीएसएससी) का नामकरण उनकी स्मृति में किया गया, जो केरल राज्य की राजधानी तिरूवनंतपुरम में स्थित है. 1974 में सिडनी में अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ ने निर्णय लिया कि सी ऑफ़ सेरिनिटी में स्थित ‘चंद्रमा क्रेटर बेसेल’ (बीईएसएसईएल) डॉ. साराभाई क्रेटर के रूप में जाना जाएगा. चंद्रयान 2 और 3 के लैंडर का नाम ‘विक्रम’ है.
समापन
चन्द्रयान – 3 के सफलता के बारे में कहा तो यहां तक जा रहा है कि चंद्रयान से मिलने वाली जानकारी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल अमरीका अपने Artemis 3 मिशन को सफल बनाने के लिए करने वाला है, जहां 2025 में होने वाले इस मिशन के तहत एक महिला और एक काले व्यक्ति को चंद्रमा के दक्षिणी हिस्से में भेजा जाने वाला है. इसी साल जुलाई में भारत ने 27 वें देश के रूप में ‘Artemis Accord’ पर हस्ताक्षर किए हैं.
मनीष आजाद लिखते हैं – चंद्रयान 3 की सफल लैंडिंग से मुझे ‘सत्यजीत रे’ की एक फ़िल्म ‘प्रतिद्वंद्वी’ का दृश्य याद आ गया. नायक से एक इंटरव्यू में पूछा जाता है कि इस दशक की सबसे महत्वपूर्ण घटना बताओ. नायक का सीधा जवाब है- ‘वियतनाम युद्ध !’ इंटरव्यू लेने वाला आश्चर्य से पूछता है कि ‘इसी दशक में इंसान चन्द्रमा पर गया है, क्या वह महत्वपूर्ण नहीं है ?’ नायक का इस बार भी सधा हुआ जवाब है- ‘विज्ञान की निरंतर प्रगति के कारण चन्द्रमा पर इंसान का जाना प्रत्याशित था, लेकिन वियतनाम की जनता ने ताकतवर अमेरिका को जो धूल चटाई, वह अप्रत्याशित था.’
उपरोक्त दो कथन यह बताने के लिए पर्याप्त है कि भारत की जनता के लिए इस चन्द्रयान मिशन का कोई मायने मतलब नहीं है. एक तो इसका उपयोग अमेरिका अपने मिशन के लिए करने वाला है दूसरे भारत की मोदी सत्ता के फासिस्ट कारनामों से मणिपुर से लेकर नूंह तक, कश्मीर से लेकर बस्तर तक खून से सराबोर है.
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