एनडीए के प्रथम दौर में राष्ट्रपति मुस्लिम थे डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम. दूसरे कार्यकाल में दलित थे श्री रामनाथ कोविंद. तीसरे दौर में अदिवासी महिला होगी श्रीमती द्रौपदी मुर्मू. समर्थन-विरोध से अलग की बात सुनो. मनमोहन सिंह जी बेवजह बदनाम थे न बोलने हेतु. दलित राष्ट्रपति होते हुए हमें 5 वर्षों में कभी लगा नहीं कि इस देश में राष्ट्रपति जैसी भी कोई चीज होती है. उनको किसी गलत चीज़ पर बोलते हुए नहीं सुना. वैसे तो यहां प्रचार, प्रसार के अनुसार सब कुछ अच्छा है.
यह एक सदियों से चली आ रही दुर्दशा है जो वर्तमान की सबसे बड़ी योग्यता बन गयी है. भाजपा के पूर्व कार्यकाल में हमारे राज्य का एक शिक्षामंत्री हुआ करता था. उनकी जाति ढोल बजाने वालों में से थी, जिन्हें बदले में कुछ अनुदान नहीं मिलता था. वह शिक्षामंत्री जब भी गांव या मन्दिर जाते थे, ढोल बजाने लगते थे.
उनकी तमाम जाति के युवाओं पर अन्य जातियां फब्तियां कसती थी कि एक शिक्षा मंत्री यदि ढोल बजा सकता है तो तुम क्यों नहीं ? शिक्षा मंत्री 5 वीं पास थे, बस उनकी काबिलियत यही थी कि वो जाति के बंधन में बंधे थे. इस बंधन में बंधे रहने से कितने लोग अर्थात कितनी ही जातियां खुश होती हैं, आप यह भावना समझ नहीं सकेंगे.
हमारे पूर्व विधायक तो सवर्णों के घरों में अपने झूठे बर्तन तक धोते थे. मन्दिर से 10 फीट दूर से नतमस्तक होकर नमन करते और जाति से उनका बंधना तो पूछो ही मत. उनके इस स्वभाव की मिसाल ऐसे दी जाती है मानों उन्होंने कोई अप्रतिम कार्य किया हो. हम जानते हैं कि उन्होंने न केवल माहौल ख़राब किया बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए गड्ढे भी खोद कर गये.
उत्तराखंड में भी थी एकाध महिला और दो-चार पुरुष जो पूजा, पाठ, भजन, कीर्तन में अपना जीवन खपा चुके थे और लालसा थी कि राज्यसभा टिकट मिले या राष्ट्रपति की उम्मीदवारी. लगता है उनकी तपस्या में भी कोई कमी रह गयी ! पता नहीं कब यह दिन आयेगा, जब मनुष्य को आगे बढ़ने, बढ़ाने के लिए शिक्षा, विचार, कर्त्तव्य और साहस को वरीयता मिलेगी ? बाक़ी यह सब तो सदा सभी करते रहे हैं.
यह जो हर रविवार आरएसएस की शाखा लगती है, निरंकारी और राधा स्वामी सत्संग तथा जगह-जगह पर जो धाम, मन्दिर, जागरण, भंडारे इत्यादि में भीड़ है, फिर वह किसकी होती है ? क्या यह भीड़ एकत्रित नहीं है ? क्या हिन्दू कभी मुस्लिम, सिख, ईसाइयों की भांति एकत्रित नहीं होते हैं ? क्या वे कट्टर नहीं होते ? हिंसक नहीं होते ? या फिर बात यह है कि वैदिक हिंसा, हिंसा न भवति ?
आप किसी भी शहर के मन्दिर में जाओ, दर्शन हेतु नम्बर आना ही एक महाभारत है. बड़े-बड़े धामों की तो बात ही क्या करूं ? क्या इतनी भीड़ दूसरे धार्मिक स्थलों में होती है ? मुकेश खन्ना या ऐसे असंख्य लोग भ्रमित क्यों है कि वे कमतर अथवा कमजोर हैं ? शायद वे मुख्य समस्या तक कभी पहुंचे ही नहीं है ? मुख्य समस्या यह है कि धर्म, संगठन, संस्था इत्यादि केवल भीड़ से नहीं बल्कि भावना से चलते हैं.
आर्य समाज ने बहुत पहले नारा दिया – वेदों की ओर चलो. उन्होंने अवतारवाद को दरकिनार किया. आज उनमें ही हर जगह अवतारवाद हावी है. दूसरा पहलू, उन्होंने वर्णव्यवस्था पर प्रहार करने की कोशिश की मगर निचले पायदान का व्यक्ति धर्माचार्य, कथाकार, पुरोहित वर्ग में सम्मिलित नहीं हो सका. आखिर क्यों ? यानि निचला तबका आज भी भीड़ का हिस्सा है, व्यवस्था के प्रंबधन का हिस्सा नहीं है.
मुकेश खन्ना जैसे लोगों को जानना चाहिए कि दूसरे धर्मों में भीड़ में से भी कोई इच्छुक व्यक्ति को एक दिन इतना तैयार किया जाता है कि वह पीछे खड़ी पूरी भीड़ का प्रतिनिधित्व कर सकता है जबकि हिन्दू धर्म में प्रतिनिधित्व करने के लिए ब्राह्मण के घर जन्म होना जरूरी है. दूसरे धर्मों में धार्मिक स्थल धन बल के केंद्र नहीं है. वहां जातियों का मकड़जाल नहीं है. कम से कम खाने, पीने, उठने, बैठने में समानता तो है.
आप खुद बदनाम करते हो अपने धर्म को कि दूसरे धर्मों में लालच के लिए धर्म परिवर्तन किया. जितनी सम्पत्ति हिन्दू धर्म के पास है, यदि सचमुच मामला लालच का है तो वे पूरी दुनिया को हिन्दू बना सकते हैं ! बात यह है कि हिन्दू धर्माधिकारी समस्या की जड़ पर विमर्श ही नहीं चाहते हैं, अन्यथा उनकी ऐशो-आराम पर इस कुप्रभाव पड़ेगा. उनका जातिगत पेशे में कम्पटीशन और हिस्सा बढ़ेगा.
अन्य धर्मों में एक समय में, एक विधि से, एकसाथ, एक ही जगह पर लोग सम्मिलित हो सकते हैं लेकिन हिन्दू धर्म में यह असंभव है. कुछ देर के लिए कोई बाहरी व्यक्ति आकर इस व्यवस्था का हिस्सा बन सकता है लेकिन जैसे ही वह पूरे सिस्टम को समझने लगता है, वह कटने लगता है. प्रत्येक व्यक्ति के आत्मसम्मान से बढ़कर और क्या होगा ? मेरे इर्द-गिर्द जो भी देवी-देवताओं को मानते हैं, वे अस्था से कम, डर से ज्यादा मानते हैं.
हम जैसे लोगों को नास्तिक बनाने का पूरा श्रेय ही समाज के उन उच्च वर्गों के आस्तिकों का तथा उन देवताओं का है, जिन्होंने हमारी भावनाओं को ठेस पहुंचाई. हम भी कभी धार्मिक और आस्तिक थे. सब कुछ समझने के बाद लगा देवता तो है ही नहीं वरना इतनी धांधली, इतनी अव्यवस्था पर भी ईश्वर की खामोशी ? यह अपने वर्चस्व की व्यवस्था है अन्यथा ईश्वर के लिए छूत, अछूत जैसा कुछ क्यों होगा ? यदि उसको छूने से वह अपवित्र हो रहा तो वह मेरा कभी भला नहीं कर सकता है.
दूसरे धर्मों में भी कोई खास बड़ी बातें नहीं है लेकिन सांगठनिक व्यवस्था पारदर्शी तथा सुगम है. यहां ऐसा बिल्कुल नहीं है कि कोई तुम्हारे पास आने पर भी पिट जाये. अपने धर्म के लोगों के लिए तो वे एकमत हैं. बाक़ी सच्चाई तो यह है कि धर्म तो सभी राजनीतिक अखाड़े हैं बस. पर बात यहां जब हिन्दू धर्म की हो रही, इसमें आंतरिक सुधार की बेहद आवश्यकता है. सुधार करोगे तो लंबे चलोगे, नहीं करोगे धर्म विरोधी जिसे मर्जी कहो, सत्य से तुम खुद ही दूर हो.
शहीद भगतसिंह, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और बाबा साहेब अंबेडकर इन तीनों की एक बात जो सबसे महत्वपूर्ण है कि ‘जब तक धर्म और राजनीति को अलग-अलग न रखा जाय, देश में असली लोकतंत्र नहीं आ सकता है.’ इस बात को हर लोकतांत्रिक व्यक्ति को जरूर हमेशा याद रखना होगा क्योंकि बाक़ी जो मर्जी बातें कर लीजिए मगर धर्म और राजनीतिक का गठजोड़ देश की प्रगति, उन्नति और समृद्धि के लिए सबसे बड़े अवरोधक हैं.
अब इस यह कार्टून को ही देख लीजिए, जो सन 1953 का है. जब भारत के राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी काशी गये और वहां 200 ब्राह्मणों के चरण धोकर, चरणामृत पी गये थे. व्यंग्य के रूप में किसी अखबार में यह छपा था. स्पष्ट दिखाया गया कि नेहरू जी को ऐसा न करने पीछे कारण उनकी ब्राह्मण जाति को बताया गया है जबकि राष्ट्रपति कायस्थ जाति से थे. उस वक्त उस पर देश भर के लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दी थी.
हुआ यह कि बनारस में उन्हें 200 ब्राह्मणों ने दीक्षित किया और राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उन 200 ब्राह्मणों के पैर धोए. पैर धोकर एक पात्र में चरणामृत एकत्रित किया और महामहिम उसे पी गये. यह सब देखकर पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर डॉ. अम्बेडकर तक सबने तीखी प्रतिक्रिया दी. प्रतिक्रिया की वजह यह थी कि एक लोकतांत्रिक देश के राष्ट्रपति को यह सब नहीं करना चाहिए. धर्म को निजी रखना चाहिए उसका ऐसा प्रदर्शन ठीक नहीं है.
एक वर्ग ऐसा भी था जो इसे उपलब्धि मान रहा था. आज़ादी के बाद पहली बार यह हो रहा तो यही तो चाहिए था.हालांकि यह सिलसिला कभी रुका नहीं. लोकतांत्रिक पद पर बैठे लोगों में इंदिरा गांधी ने भी ऐसा किया था, जब उन्होंने 9 कन्याओं के पैर धोए और चरनामृत पी गई थी. बात यहीं नहीं रुकी. कुछ तो इससे भी आगे निकल गए थे जैसे मोरारजी देसाई. श्री मोरारजी देसाई स्वमूत्र यानि अपनी ही पेशाब पीते थे और उसको स्वास्थ्यवर्धक भी बताते थे. गनीमत है ऐसा इतना आजकल नहीं होता.
लेकिन पैर धोने का सिलसिला भी रुका नहीं. मोदीजी ने ब्राह्मणों की बजाय कुम्भ में सफाई कर्मचारियों के पैर धोए यानी थोड़ा अलग कर दिया मगर आलोचना तो तब भी होनी ही थी क्योंकि पैर किसी के भी धोकर देखिए व्यवस्था नहीं बदलेंगी. व्यवस्था बदलने के लिए जिस उद्देश्य हेतु पदों पर हों उसके प्रति कर्तव्यनिष्ठ होना जरूरी है. आस्था होती अगर तो पैर धोने चुपचाप भी जा सकते थे ? जितने सफाईकर्मी इस देश में हैं, यदि उन्हें आधुनिक मशीनें और बढ़िया सुरक्षा, सैलरी मिलती, असली पुण्य वह था.
डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी का विरोध करने वालों में सबसे प्रमुख व्यक्ति थे लोहिया. डॉ. राम मनोहर लोहिया जी ने ‘जाति और योनि के दो कटघरे’ शीर्षक लेख में इस विषय पर सटीक लिखा था कि –
‘इस आधार पर कि कोई ब्राह्मण है, किसी के पैर धोने का मतलब होता है – जातिप्रथा, गरीबी और दुखदर्द को बनाये रखने की गारंटी करना. इससे नेपाल बाबा और गंगाजली की सौगंध दिलाकर वोट लेना सब एक जंजीर है. उस देश में जिसका राष्ट्रपति ब्राह्मणों के पैर धोता है, एक भयंकर उदासी छा जाती है, क्योंकि वहां कोई नवीनता नहीं होती; पुजारिन और मोची, अध्यापक और धोबिन के बीच खुलकर बातचीत नहीं हो पाती. जिसके हाथ सार्वजानिक रूप से ब्राह्मणों के पैर धो सकते हैं, उसके पैर शूद्र और हरिजन को ठोकर भी तो मार सकते हैं.’
इतना ही नही डॉ लोहिया की किताब the caste system में उन्होंने लिखा है कि –
भारतीय लोग इस पृथ्वी के सब से अधिक उदास लोग हैं. भारत गणराज्य के राष्ट्रपति ने बनारस शहर में सरेआम दो सौ ब्राह्मणों के चरण धोये. सरेआम दुसरे के चरण धोना भोंडापन है, इसे केवल ब्राह्मणों तक ही सीमित रखना एक दंडनीय अपराध होना चाहिए. इस विशेषाधिकार प्राप्त जाति में केवल ब्राह्मणों को बिना विद्वता और चरित्र का भेदभाव किये शामिल करना पूरी तरह से विवेकहीनता है और यह जाति व्यवस्था और पागलपन का पोषक है. राष्ट्रपति का ऐसे भद्दे प्रदर्शन में शामिल होना मेरे जैसे लोगों के लिए निर्मम अभ्यारोपण है जो केवल दांत पीसने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते.’ ( The Caste System- Lohia, page 1 & 2)
बाक़ी रामनाथ कोविंद जी हो या प्रधानमंत्री मोदीजी हों या उनसे कोई आगे, पीछे – यह जो जंजीरें हैं इनसे निकल पाना मुश्किल है बशर्ते आप हिन्दू जातियों के विषय से सोचें या फिर तमाम धर्मों के रवैये से समझें. सांप्रदायिकता का वर्चस्व तथा अवैज्ञानिक बर्ताव देश को अलोकतांत्रिक तथा असंवैधानिक प्रक्रिया को ही बढ़ावा देगा. समस्या यह हो गयी कि हिन्दू धर्म की बातों के लिए मुस्लिम धर्म को खड़ा कर दिया जाता है ताकि विषय ही डायवर्ट हो जाये जबकि विषय यह है कि धर्म और राजनीति यदि अलग-अलग होते तो किसी के भी धर्म को प्रदर्शन या प्रमोशन की आवश्यकता नहीं होती.
संसद में ओवैसी भी ड्रेसकोड में आते और सदन में योगी भी ड्रेसकोड में होते. स्कूल, ऑफिस में ड्रेसकोड होता, शिक्षा, स्वास्थ्य सुदृढ होता. धर्म, जाति की लड़ाई न होती, उल जलूल बातें न होती, किसी का धर्म खतरे में न होता, बच्चों का भविष्य अंधेरे में न होता. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति कैमरे लेकर पूजा पाठ नहीं करते बल्कि देश को ऊंचाइयों पर कैसे लेकर जाया जाय, इसकी खुले मंच से चर्चा होती. जो बेहतर होता, उसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत चुना जाता और वह अपने मेनिफेस्टो पर कार्य करता. देश में जो असीमित संभावनाएं हैं, उनपर कार्य करके देश बहुत आगे होता, जहां नहीं है.
- आर. पी. विशाल
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]