
देश में अचानक तिरुपति के मंदिर के लड्डू, जिसे ‘प्रसादम्’ कहा जाता है, में गाय की चर्बी और मछली का तेल मिले होने की बात प्रकाश में आई. भाजपाइयों और संघियों ने मुद्दा बनाने के लिए खूब तुरही बजाये, लेकिन अचानक से भाजपा-आरएसएस के तुरही बजने बंद हो गये. अचानक से ये तुरही बजने बंद क्यों हो गये ? कभी सोचा है आपने ? कभी मंगल पांडेय ने इसी चर्बी की बात पर बंदूक दाग दिया था, आज पटाखे भी नहीं फूटे. सवाल तो बनता है. हलांकि आज सभी को पता है कि भाजपा-आरएसएस के नेता न केवल गाय के मांस का उत्पादन ही नहीं करते हैं, अपितु उससे भारी भरकम चंदा भी लेते हैं.
आर. पी. विशाल बताते हैं – इंदिरा गांधीजी ने गाय की चर्बी की बिक्री पर पाबंदी लगा दी थी और इसके कारोबार करने वालों के लिए सीबीआई जांच बिठा दी थी और कारोबार लगभग खत्म ही कर दिया गया था सिवाय कुछ जो बाद में अवैध पनपे या पनपने दिए गए थे. मोदी सरकार ने सत्ता पर आते ही सबसे पहले बीफ चर्बी निर्यात से पाबंदी हटाई क्योंकि इससे कमाई अथवा मुनाफे के बहुत अधिक अवसर हैं. आज भारत विश्वभर में गोमांस निर्यात हेतु तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक है और असंख्य बूचड़खाने भी है.
बूचड़खाने सरकारी परमिशन से चलते हैं लेकिन पहले आप मांस के प्रकार को समझें. चिकन, ब्रॉयलर और कड़कनाथ इत्यादि मुर्गा, मुर्गी की वैरायटी को कहा जाता है. जबकि मटन केवल बकरा, बकरी, भेड़ और मेढ़े इत्यादि को ही कहा जाता है. बीफ गाय के मांस को कहते हैं जबकि भैंस, भैंसा, बैल इत्यादि के मांस को बोमाइन कहा जाता है. इसे रेड मीट भी कहते हैं. सुअर के मांस को पोर्क जबकि सुअर की चर्बी को लार्ड कहते हैं. जानवरों की चर्बी को पकाकर बने घी को बीफ टैलो कहते हैं.
यही बीफ टैलो, फिश ऑयल, लार्ड इत्यादि की मिलावट मिलावटखोरों द्वारा तेल, घी इत्यादि में की जाती है. इसी से मिठाई, प्रसाद आदि भी बनते हैं. जाहिर है यह बिना किसी संरक्षण के असंभव है. कई तेल और घी कंपनियां बड़े व्यापक ढंग से इसे अंजाम दे रही है. सरकारों की पॉलिसी भी ऐसी चीजों को बढ़ावा देती है.
आपको ज्ञात होगा कि गोवा में 1978 से ही गोवध बैन है जबकि बीजेपी मुख्यमंत्री दिवंगत श्री मनोहर पर्रिकर ने कहा था कि गोवा में हमें रोजाना ढाई हजार किलो बीफ की आवश्यकता है. उन्होंने यह भी कहा था कि हम पर्यटकों को अच्छा बीफ मुहैया करवाना चाहते हैं इसलिए हम कर्नाटक से सभी लाते हैं क्योंकि वहां अच्छा बीफ मिलता है. बाकी बीजेपी मंत्री किरण रिजिजू का बीफ पर बयान तो साथ में ही संलग्न हैं.
आरएसएस नेता राम माधव बीफ को लाइफस्टाइल का हिस्सा मानते हैं, इसमें धर्म न देखने की सलाह देते हैं तो मेघालय के भाजपा अध्यक्ष बीफ को यह कहकर खाते हैं कि हम न किसी को खाने से रोकते हैं और न पार्टी में हमें कोई बीफ खाने से रोकता है. कुल मिलाकर बात यहां खत्म होती है कि सत्ता में भाजपा है तो आप दोष किसे देंगे ? भाजपा को ढाई सौ करोड़ चंदा देने वाली भी यही बीफ एक्सपोर्ट करने वाली कंपनियां हैं और बीफ कम्पनियों के मालिक कौन हैं, इसके लिए अब गूगल करने की भी जरूरत नहीं है.
लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिर अचानक से गुजरात लैब में टेस्ट कर तिरुपति के ‘प्रसादम’ में गाय की चर्बी की पुष्टि क्यों की गई ? टेस्ट लैब गुजरात की ही क्यों थी ? इसका जवाब कुछ इस तरह दिया जाना चाहिए.
अमर उजाला की खबर है तिरुपति में श्री वेंकटेश्वर मंदिर का मौजूदा बजट 5000 करोड़ रुपये से भी अधिक का है। तिरुमला मंदिर में भगवान बालाजी की कुल संपत्ति देश की प्रमुख सूचीबद्ध कंपनियों के कीमत से भी ज्यादा है. मंदिर ने वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान ₹1,161 करोड़ जमा किए हैं, इससे विभिन्न राष्ट्रीयकृत बैंकों में टीटीडी की कुल सावधि जमा राशि 18,000 करोड़ रुपये से अधिक हो गई है. इस अवधि के दौरान मंदिर ने 1,031 किलोग्राम से अधिक सोना जमा करके इतिहास रच दिया.
पिछले तीन वर्षों के दौरान विभिन्न बैंकों में 4,000 किलोग्राम से अधिक सोना जमा किया गया, जिससे टीटीडी का कुल स्वर्ण भंडार 11,329 किलोग्राम हो गया. इसी साल जनवरी के अंत में मंदिर का प्रबंधन करने वाले टीटीडी के ट्रस्ट बोर्ड ने वर्ष 2024-25 के लिए 5,142 करोड़ रुपये के बजट अनुमान को मंजूरी दी थी. पीटीआई के साथ साझा किए गए बजट के मुख्य अंशों के अनुसार, इससे पहले 2023-24 में टीटीडी का बजट 5,123 करोड़ रुपये था.
अब सोचिए, देश और दुनिया भर में बड़ी से बड़ी सरकारी सम्पत्तियों पर लार टपकाता और कौड़ियों के मोल खरीदता फिरता अडानी अपने कंधे पर मोदी को लेकर घूमता रहता है तो भला उसकी नजर तिरुपति के इतनी बड़ी सम्पत्तियों और कारोबार पर न गई होगी, हो ही नहीं सकता. दरअसल, यह चर्बी-फर्बी का कोई मसला ही नहीं है, मसला इस बड़े व्यवसाय को भी अडानी के हवाले करने का है.
चूंकि अब हंगामा टल गया है, 1857 के मंगल पांडेय जैसा युद्ध भी नहीं हुआ, किसी ने गोली भी नहीं दागी तो जाहिर है अडानी का उसमें घुसपैठ सफलतापूर्वक हो गया होगा. जैसा कि जगदीश्वर चतुर्वेदी कहते हैं – हमने चार बार तिरुपति के लड्डू खाएं हैं, हमें कभी मिलावट महसूस नहीं हुई. यह सब घी के सप्लायर बदलने के लिए किया गया स्वांग है.’ यानी, मसला अडानी का था, बहाना चर्बी का था.
वैसे भी अब भारतीयों की चर्बी में गाय की इतनी चर्बी जमा हो चुकी है, वेद-पुराणों में गाय के चर्बी का इतना महिमामंडन हो चुका है और अब तमाक्ष लोग जानने लगे है कि किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है कि चर्बी गाय की है या अडानी की. जैसा कि प्रसिद्ध गांधीवादी हिमांशु कुमार लिखते हैं – हिंदुओं तुम लड्डू में बीफ मिलने से बिल्कुल मत शर्माना. गर्व से कहो हमारे यहां वेदों में भी गोमांस खाने का वर्णन है. स्वामी विवेकानंद ने लिखा है इस बारे में. प्रोफेसर डीएन झा की पूरी रिसर्च है इस मुद्दे पर. वेदों में ऋचाएं हैं इस बात को प्रमाणित करने वाली.
वेदों में गोमांस खाने से जुड़ी कुछ बातें – अथर्ववेद में कुछ विशिष्ट प्रकार की गायों को केवल ब्राह्मणों के लिए आरक्षित किया गया था. अथर्ववेद में वषगो और ब्रह्मगविसूक्त के 125 श्लोक गोमांस के आरक्षण से जुड़े हैं. ऋग्वेद में इंद्र कहते हैं कि उन्होंने एक बार पांच से ज़्यादा बैल पकाए थे. ऋग्वेद में बताया गया है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायें, और भेड़ों की बलि दी गई थी. मनु स्मृति में कहा गया है कि खाने लायक पशुओं का मांस खाना पाप नहीं है..
अधिकांश वैदिक यज्ञों में मवेशियों को मारकर उनका मांस खाया जाता था. अंबेडकर ने वैदिक ऋचाओं का हवाला दिया है जिनमें बलि देने के लिए गाय और सांड में से चुनने को कहा गया है. अंबेडकर ने लिखा ‘तैत्रीय ब्राह्मण में बताई गई कामयेष्टियों में न सिर्फ़ बैल और गाय की बलि का उल्लेख है बल्कि यह भी बताया गया है कि किस देवता को किस तरह के बैल या गाय की बलि दी जानी चाहिए.’
वो लिखते हैं, ‘विष्णु को बलि चढ़ाने के लिए बौना बैल, वृत्रासुर के संहारक के रूप में इंद्र को लटकते सींग वाले और माथे पर चमक वाले सांड, पुशन के लिए काली गाय, रुद्र के लिए लाल गाय आदि.’ ‘तैत्रीय ब्राह्मण में एक और बलि का उल्लेख है जिसे पंचस्रदीय-सेवा बताया गया है. इसका सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, पांच साल के बगैर कूबड़ वाले 17 बौने बैलों का बलिदान और जितनी चाहें उतनी तीन साल की बौनी बछियों का बलिदान.’
अंबेडकर ने जिन वैदिक ग्रंथों का उल्लेख किया है उनके अनुसार मधुपर्क नाम का एक व्यंजन इन लोगों को अवश्य दिया जाना चाहिए- (1) ऋत्विज या बलि देने वाले ब्राह्मण (2) आचार्य-शिक्षक (3) दूल्हे (4) राजा (5) स्नातक और (6) मेज़बान को प्रिय कोई भी व्यक्ति. कुछ लोग इस सूची में अतिथि को भी जोड़ते हैं. मधुपर्क में ‘मांस, और वह भी गाय के मांस होता था. मेहमानों के लिए गाय को मारा जाना इस हद तक बढ़ गया था कि मेहमानों को ‘गोघ्न’ कहा जाने लगा था, जिसका अर्थ है गाय का हत्यारा.’
तो, समझ गये आप. हिन्दू धर्म (जो असल में ब्राह्मण धर्म है) गाय का मांस और चर्बी खाना, सम्मान की बात है. बांकी गाय की पूजा, माता, गोवध रोकने आदि की बातें संघियों और भाजपा की राजनीति का हिस्सा है. किसी को खत्म करने का एक वैध बहाना. देश की जनता संघियों-भाजपाई की इस दोगली नीतियों को जितनी जल्दी समझ ले उतना बेहतर. पहले यह देश ईस्ट इंडिया कंपनी की गुलाम बनी, अब अडानी नामक शैतान की गुलाम बनने जा रही है. जैसा कि छत्तीसगढ़ के पूर्व सीबीआई मजिस्ट्रेट प्रभाकर ग्वाल कहते हैं –
‘मंदिरों में चर्बी विवाद ही इसलिए किया जा रहा है ताकि बेरोकटोक जानवरों के चर्बी का निर्यात किया जा सके. स्थानीय खपत समाप्त कर चर्बी फोकट में, जैसे रेत मुरुम उठाते हैं, प्राप्त करने का षड़यंत्र मात्र है. लोग हिन्दू व धार्मिक नाम से पागल बने हुए हैं. सभी समस्याओं के स्थायी समाधान के लिए केवल संकेत से, इशारे से, व्यंग से, अप्रत्यक्ष रूप से बात करने से बात नहीं बनेगी, या किन्हीं महापुरुषों के उपदेशों को बार बार दुहराने से बात नहीं बनेगी, हर लेखों में हर जगह हर बातों में सीधा सीधा यही लिखिए.
यह बोलिये कि चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए, भाजपा व भाजपा गठबंधन को वोट न दें, लोगों को भी समझायें कि वे भी भाजपा व भाजपा गठबंधन को वोट न दें, भाजपा सरकार के सारे कार्य, नियम, नीति, कानून, सहायता, गाय मारकर जूता दान जैसे हैं. तो क्या आप, मैं हम सब समाधान पर कार्य नहीं करेंगे ?
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