सुब्रतो चटर्जी
सुबह एक सवाल पूछा था, क्या नीट, नेट, पुलिस भर्ती इत्यादि अनेकों परीक्षाओं के पेपर लीक होने या कैंसिल होने के पीछे बाज़ार और सरकार की भूमिका है या और कुछ ? इस विषय पर तफ्सील से बताने का प्रयास कर रहा हूं.
देश, समाज और राजनीति के धरातल पर जो कुछ भी आज सतही तौर पर दिखता है, ज़रूरी नहीं है कि वह पूरा सच है. पेपर लीक मामले का इतिहास बहुत पुराना है. सन 1977 या 78 में पहली बार कैट का पेपर लीक हुआ था, जिसके बाद उस साल की परीक्षा को पुनः आयोजित किया गया था.
उन दिनों, इस विषय पर लिखते हुए, अशोक मित्र, जो कि पश्चिम बंगाल के लेफ़्ट सरकार में वित्त मंत्री थे और अर्थशास्त्र के महान विद्वान थे, कलकत्ता के ‘द स्टेट्समैन’ अखबार में एक लेख लिखा था. ‘द स्टेट्समैन’ में उनका साप्ताहिक लेख Cutting Corner के नाम से रेगुलर छपता था. इस कॉलम में मित्र जी देश की पूंजीवादपरस्त नीतियों की भीषण तथ्यात्मक विश्लेषण करते थे.
ख़ैर, पेपर लीक के मामले को उन्होंने इस लेख में पूंजीवादी अर्थशास्त्री Adam Smith और उनके अनुयायियों के demand and supply theory से जोड़ दिया. इस बाज़ारवादी सिद्धांत के अनुसार बाज़ार में किसी वस्तु या सेवा की उपलब्धता, यानि सप्लाई उस वस्तु या सेवा की मांग के अनुसार होता है. इसे हम ‘मांग और पूर्ति’ का नियम भी कह सकते हैं.
इस नियम का हवाला देते हुए प्रोफ़ेसर मित्र ने बताया कि चूंकि भारत में सीए की भारी मांग है और कैट की परीक्षा काफ़ी कठिन है, इसलिए बाज़ार के नियमों के अनुसार मांग के अनुपात में पूर्ति बनाए रखने के लिए लोग उचित अनुचित हरेक तरह के उपाय चुनेंगे. बाज़ार में वस्तुओं की कालाबाज़ारियां होतीं हैं और परीक्षा के बाज़ार में resorting to all kinds of unfair means होता है. आज के परिदृश्य में यह आंशिक सच है.
बाज़ार में डॉक्टरों की मांग पूर्ति के बनिस्पत ज़्यादा है और हमेशा रहेगी, इसलिए कि प्रति व्यक्ति डॉक्टर की उपलब्धता के पैमाने पर भारत उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के सामने कहीं नहीं टिकता है. मज़ेदार बात यह है कि हरेक बात पर निजी क्षेत्र की पैरवी करने वाले मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग के लोगों को भी अपने बच्चों के लिए मेडिकल की पढ़ाई के लिए सरकारी कॉलेजों की ही ज़रूरत है, निजी कॉलेजों की नहीं.
इस विडंबना से आगे बढ़ कर एक और बात नज़र आ रही है. नेट क्यों कैंसिल हुई ? क्या इसका एकमात्र कारण सरकार का अंदेशा था कि इसके पेपर भी लीक हो गए हैं ?
दरअसल इसे समझने के लिए पहले आपको उस सूची पर ध्यान देना होगा जिसमें यह दिखता है कि पिछले दस सालों में कितने नेट पास विद्यार्थियों को आज तक नौकरी नहीं मिल सकी है. मतलब योग्यता और पात्रता होते हुए भी रेगुलर नौकरी नहीं मिलेगी. जब ऐसा होगा तो संविदा पर एक चौथाई वेतन पर सेवाएं लेने का रास्ता खुल जाएगा.
दरअसल यह विकास का वही मॉडल है, जिसमें कहीं कोई ज़िम्मेदारी लेने वाला नहीं होता है इसलिए मोदी सरकार में इस्तीफ़े नहीं होते. जब सरकार का कोई जनसरोकार ही नहीं है तो ज़िम्मेदारी कौन और क्यों ले ? चुनाव तो वैसे ही इवीएम और चुनाव आयोग के सहारे जीत लेंगे !
अब आते हैं इस समस्या के वैश्विक पृष्ठभूमि पर. आपने गौर किया होगा जब जब कांग्रेस के बदले कोई भी सरकार आती है, तब तब विदेशी पूंजी का विस्तार भारत में बढ़ जाता है, ऐसा क्यों ? ऐसा इसलिए कि भाजपा की सरकारें अंतरराष्ट्रीय पूंजी के सहारे ही बनतीं है. अदानी के पीछे भी अंतरराष्ट्रीय पूंजी ही लगी है.
इस पूंजी का ज़िक्र करना यहां इसलिए ज़रूरी है कि उन्नत देशों की घटती हुई जनसंख्या के मद्देनज़र और खाड़ी देशों के जनसंख्या संकट के मद्देनज़र ज़रूरी है कि भारत में एक विशाल लेबर मार्केट बनाया जाए. Brain drain आपने सुना होगा, लेकिन आज labour or body drain का समय आ गया है.
खाड़ी देशों के तेल खदानों में काम करने के लिए हो या यूक्रेन के खिलाफ युद्ध लड़ने के लिए हो, हरेक जगह लेबर की ज़रूरत है. तीसरी दुनिया के देश आज लेबर सप्लायर हैं. उपनिवेशवाद के दिनों में अफ़्रीका से ग़ुलामों को लाया जाता था, अमरीका और ऑस्ट्रेलिया में लेबर का काम करवाने के लिए. दास प्रथा आज नहीं है, लेकिन बंधुआ मज़दूर को देखना है तो आप विदेशों में कार्यरत भारत और इस जैसे देशों के मज़दूरों की हालत देखिए.
अब लेबर सप्लायर देश बनाने के लिए सबसे पहले शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करने की ज़रूरत है. अनपढ़ लेबर जब विशाल मात्रा में उपलब्ध हों तो उनकी bargaining power कम हो जाती है. इस तरह से उनके आर्थिक शोषण का रास्ता खुल जाता है.
दो दिनों पहले ही एक रिपोर्ट आई है जिसके अनुसार भारत में पिछले दस सालों में हरेक साल क़रीब 1.5 करोड़ कर्मियों के शोषण के ज़रिए उच्च मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग ने क़रीब 26 लाख करोड़ रुपए बचाए हैं. यह कम मज़दूरी और ज़्यादा काम के ज़रिए कमाई गई हराम की दौलत है. अब अगर कोई कहता है कि पूंजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े का आधार श्रम की चोरी है तो क्या ग़लत है. उस विषय पर फिर कभी.
शिक्षा व्यवस्था के मूल में पहले प्रहार करते हुए सारे सरकारी स्कूलों की हालत नाज़ुक कर दी गई और दूसरी तरफ़ महंगी निजी शिक्षा को बढ़ावा दिया गया. इसके फलस्वरूप ग़रीबों के बच्चों के सामने लेबर बनने के सिवा कोई चारा ही नहीं रहा. अब जबकि लेबर की सप्लाई मांग से ज़्यादा हो गई तो उसके श्रम को चुरा कर मुनाफ़े में ढालने का खेल और आसान हो गया.
अंतरराष्ट्रीय पूंजी इस खेल को खेलने के लिए मोदी जैसी सरकारें तीसरी दुनिया के देशों में स्थापित करने लगी. इसलिए, यह मत सोचिए कि नीट के पेपर लीक का मामला कुछेक हज़ारों करोड़ का है. यह मामला उस अंतरराष्ट्रीय पूंजी के खेल का है जिसमें किसी भी गणितीय फ़िगर को कैलकुलेट करना लगभग असंभव है.
Read Also –
अखिल भारतीय परीक्षा ‘जी’ : दौड़ से बाहर होते वंचित
न परीक्षा, न प्रशिक्षण, न साक्षात्कार, वरिष्ठ सिविल सेवकों के पदों पर सीधी भर्ती
शिक्षा के खिलाफ अनपढ़ों का मुहिम, अब करण सांगवान निकाले गए
अब हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई : भाषा के नीम हकीम और मेडिकल शिक्षा
संघियों का आत्मनिर्भर भारत यानी शिक्षामुक्त, रोजगारमुक्त, अस्पतालमुक्त भारत
भारतीय लोकतंत्र में निजीकरण की ओर भागती शिक्षा व्यवस्था
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]