हत्या एक कर्म है या विचार ? या हत्या एक ऐसा कर्म है जो किसी खास विचार से संचालित होता है ? कभी-कभी विचारहीन हत्याओं के पीछे हिंसा या घृणा की भावना काम करती है. लेकिन हिंसा और घृणा तो अपने आप में बहुत सशक्त विचार हैं. तब तो यह जानने की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि हिंसा या घृणा की भावना पनपी कैसे ?
इतिहास लेखन गांधी की हत्या के पीछे छुपे विचार को पकड़ने में दिलचस्पी रखता है. प्रस्तुत लेख में गांधी की हत्या के संबंध में, सभी महत्वपूर्ण पहलुओं को समावेशित करते हुये, यथासंभव संक्षेप करने की चेष्टा की है, पर फिर भी लेख कुछ लंबा हो गया है. थोड़ा समय लगेगा, पर कृपया पूरा पढ़ियेगा ज़रूर, शायद आपको इस लेख में कुछ रोचक जानकारियां मिलेंगी.
आरएसएस और नाथूराम गोडसे का क्या संबंध था, इसके लिए नाथूराम गोडसे की संघ सदस्यता रसीद पेश नहीं की जा सकती. 1947-48 में वो संघ की किस शाखा में जाता था, इसकी कोई उपस्थिति पंजिका भी उपलब्ध नहीं ही होगी. जिस संगठन की पूरी कार्रवाई गुप्त ढंग से चलती हो, जिसका कोई सदस्यता रजिस्टर न रखा जाता हो, जिसकी बैठकों की कोई लिखित कार्यवाही नहीं रखी जाती – उसके बारे में लिखित साक्ष्य मिलना लगभग असंभव है.
लेकिन गोडसे, आरएसएस और गांधी की हत्या में तमाम ऐसे तार जुड़े हैं जिनसे आरएसएस मुंह नहीं चुरा सकता. जैसा कि गोपाल गोडसे ने कहा था कि ‘आप कह सकते हैं आरएसएस ने कोई लिखित प्रस्ताव पारित नहीं किया था कि जाओ और गांधी को मार दो लेकिन आप उससे खुद को अलग नहीं कर सकते.’
यह पूछना भी बनता है कि सोशल मीडिया और अन्य प्रचार माध्यमों से गांधी-विरोधी प्रचार करने वाले लोग भला कौन हैं ? आज भी आरएसएस ने लिखित रूप से कोई विज्ञप्ति जारी नहीं की है कि ‘गांधी का चरित्र हनन करो’ लेकिन ऐसा करने वाले अधिकांश लोग किसी न किसी तरह आरएसएस की विचारधारा के कट्टर समर्थक ही होते हैं.
गांधी की हत्या के पहले गोलवलकर ने दिल्ली में स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए कहा था – ‘संघ पाकिस्तान को मिटाने तक चैन से नहीं बैठेगा. अगर कोई हमारी राह में आया तो हमें उसको भी मिटा देना होगा चाहे वो नेहरू हो या महात्मा गांधी…हमारे पास तरीके हैं जिनसे ऐसे लोगों को तत्काल प्रभाव से चुप कराया जा सकता है. लेकिन हमारी यह परंपरा नहीं है कि हम ‘हिंदुओं’ के प्रति बैरभाव रखें. अगर हमें मजबूर किया गया तो हमें वह रास्ता भी अपनाना पडेगा.’
जाहिर है गांधीजी की हत्या के पीछे निर्णायक भूमिका इसी तरह के जहरीले प्रचार की थी जो 1930 के मध्य से देश भर में फैलाया जा रहा था. भारत के बंटवारे के बाद वो हिंदू सांप्रदायिकता ही थी जिसे गांधी जी भारत में हिंदू राष्ट्र की स्थापना के अपने पुराने सपने को साकार करने की दिशा में सबसे बड़ा रोड़ा लगते थे. इसलिये भगवा आतंकवादी संगठनों ने नाथूराम गोडसे के विषय में जितना दुष्प्रचार किया है, उतना, उन्होने इतिहास के किसी और किरदार के लिये नहीं किया.
गांधी की हत्या के विषय में ये ‘हिन्दुत्व’ के तथाकथित स्वयंभू ठेकेदार अपनी बात अलग-अलग तरीके से घोंट-घोंटकर लोगों को पिलाने की कोशिश करते रहते हैं. हिटलर के प्रचारमंत्री गोएबल्स का मानना था कि ‘असत्य’ को अलग-अलग स्थानों में, अलग-अलग तरीकों से, बार-बार कहते रहने पर एक दिन वह ‘असत्य’-‘सत्य’ हो जाता है. इसी ‘गोएबल्स थियरी’ में इन फासीवादियों की अपार श्रद्धा है.
वैसे तो भगवाधारी संघ संगठन केवल झूठ और पाखंड की प्रतिमूर्ति हैं पर विशेषकर गांधी के विषय में ये लोग मुख्यतः तीन ‘मिथक (झूठ)’ प्रस्थापित करने की लगातार कोशिशें कर रहे हैं –
- पहला ‘मिथक’ यह है कि गांधीजी मुसलमानों तथा पाकिस्तान के पक्षपाती थे.
- दूसरा ‘मिथक’ यह है कि भारत के विभाजन और दंगों में लाखों हिंदुओं के मारे जाने के लिये गांधीजी जिम्मेदार थे और उनकी हत्या पाकिस्तान को 55 करोड रुपये दिलवाने के कारण की गयी थी.
- तीसरा ‘मिथक’ यह है गांधी की हत्या करनेवाला गोडसे, और उसके साथी बहादुर, शिक्षित, विचारवान और देशभक्त व्यक्ति थे.
परन्तु वास्तविकता यह है कि ये तीनों ‘मिथक’ बिलकुल गलत हैं. इसे समझने के लिए उक्त तीनों बातों की तह में जाना जरूरी है.
गांधी जब भारत वापस आये, तब कांग्रेस का नेतृत्व लोकमान्य तिलक कर रहे थे. लोकमान्य तिलक का रुझान ब्राम्हणवादी- सनातनी और रूढिवादी था. गोपालकृष्ण गोखले की अस्वस्थता के कारण प्रगतिशील, सुधारवादी शक्तियां कमजोर पड गयी थी. उस समय लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में कुछ कांग्रेसजन खुला आन्दोलन चला रहे थे, तो कुछ क्रान्तिकारी लोग भूमिगत रहकर हिंसक आन्दोलन की तैयारी कर रहे थे. इन दोनों प्रकार के आन्दोलनों की कुल ताकत कितनी थी, वह समझ लेना जरूरी है.
लोकमान्य तिलक ने घोषणा की कि ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है.’ इसमें जो स्वराज्य शब्द आता है, उस समय इसका अर्थ पूर्ण स्वराज्य नहीं था. लोकमान्य के नारे में ‘स्वराज्य’ का आशय था ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत ‘होमरूल’ और, यही उनकी मांग थी.
लोकमान्य तिलक के प्रति पूरा सम्मान-भाव रखते हुए लेकिन ब्राह्मणवादी राजनीति की मर्यादायें बताने के लिए, मुझे लिखना पड रहा है कि- महाराष्ट्रियन ब्राह्मण (विशेषकर पुणे) उस समय कांग्रेस पर हावी थे और इसी वजह से तिलक महाराज कांग्रेस के जनमानस पर प्रभाव का विस्तार नहीं कर सके. महाराष्ट्र तथा कुछ अन्य प्रान्तों में ब्राह्मण-विरोधी आन्दोलन जोर पकडने लगा था, जिसने कांग्रेस के ब्राह्मणवादी नेतृत्व को प्रभावहीन बना दिया.
मुख्य आंदोलन की बागडोर कांग्रेस के हाथ में थी पर उसके नेताओं का झुकाव ब्राह्मणवादी होने के कारण बहुजन-समाज कांग्रेस तथा स्वराज-आन्दोलन से अलग रहता था. और, भारत की वास्तविकता ये है कि जहां बहुजन-समाज साथ न हो, वहां कोई आन्दोलन की सफल नहीं हो सकता.
दूसरी तरफ, भूमिगत रहकर हिंसक क्रान्ति करने का इरादा रखनेवाले क्रांतिकारी, तब तक व्यापक जनमानस के साथ नहीं जुड़ पाये थे. अधिकतर गरमपंथी क्रान्तिकारी एकाद छोटी-मोटी घटनायें करने के बाद पकड लिये जाते थे. अलीपुर बम-केस में, अरविन्द घोष जैसे नेता भी, कोई योजना बनायें, उससे पहले ही पकड लिये गये थे. कुल मिलाकर हिंसक आंदोलन का भी, उस समय, भारत के व्यापक जनमानस पर कोई विशेष प्रभाव नहीं था.
यह थी देश की राजनीतिक स्थिति, जब 9 जनवरी, 1915 के दिन गांधी बम्बई के बन्दरगाह पर उतरे. उस समय के अधिकांश नेता भारत की आम जनता को स्वतंत्रता आंदोलनों से नहीं जोड़ पाये थे, यह एक हकीकत है. कांग्रेस के ब्राह्मणवादी झुकाव तथा भूमिगत-आन्दोलन की कमजोर स्थिति जल्द ही गांधी की समझ में आ गयी.
इसलिये गांधी ने कांग्रेस को व्यापक जन-संगठन में परिवर्तित करने का काम आरम्भ कर दिया. गांधी के प्रयत्नों के फलस्वरूप पहली बार, धर्म जाति के विखंडन से ऊपर उठकर, आम भारतीय नागरिक-कांग्रेस को अपना समझने लगा. राष्ट्र की राजनीति में हमारा भी कोई स्थान है, ऐसा विश्वास शोषित आम जनता के मन में सबसे पहले गांधी ने पैदा किया.
गांधी ने कांग्रेस नाम की संस्था को लोक-आन्दोलन में परिवर्तित कर दिया. चम्पारण से पहले, देश के किसी भी जिले में, किसी मुद्दे को लेकर एक जिला-व्यापी जन-आन्दोलन भी नहीं हुआ था. सम्पूर्ण देश में आम हडताल हो सकती है इसकी कल्पना तक, गांधी से पहले के कांग्रेसी नेता नहीं कर पाये थे.
गांधी ने ‘स्वराज’ (होमरूल) की मांग को ‘स्वतंत्रता’ (इंडिपेंडेस) की मांग में तब्दील किया. भारत में व्याप्त पृथक्-पृथक् संकुचित अस्मिताओं की जगह जनता में राष्ट्रीय अस्मिता की भावना जगाई. यदि गांधी ने समाज में इस राष्ट्रीय अस्मिता की भावना को जागृत ना किया होता तो देश अभी तक आजाद नहीं हुआ होता. गांधी के सर्वसमावेशी उदार राष्ट्रवाद ने यह जादू कर दिखाया.
गांधी को हिन्दू होने का गर्व था, मगर वे सभी धर्मावलंबियों के लिये सम्मानित थे इसीलिये तथाकथित हिन्दुत्ववादी ठेकेदारों के अनेक अनुयायी तथा भूमिगत-आन्दोलनवाले भी गांधी के उदार राष्ट्रवाद से प्रभावित होकर उनके साथ जुड गये थे, गांधीवादी बन गये थे.
जो फासीवादी लोग हिंदुत्व के स्वयंभू ठेकेदार बने हुये थे, उनको गांधीजी का उदार राष्ट्रवाद स्वीकार्य नहीं था. लेकिन गांधी के उदार राष्ट्रवाद के सामने संकुचित हिन्दू-राष्ट्रवाद टिक सके, ऐसा भी सम्भव भी नहीं था. बस इसी वजह से, इनके बीच, गांधी के प्रति क्रोध उत्पन्न होना आरंभ हुआ. हिंदुत्व के ठेकेदारों में कुछ लोग हिन्दू महासभा से जुड गये थे, तो कुछ ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना की.
धीरे-धीरे गांधी-द्वेष और मुस्लिम-द्वेष से ये हिन्दू राष्ट्रवादी इतने पीडित हुये कि राष्ट्रहित किसमें है यह भी भूल गये. उनके पेट में दर्द तो इस बात का था कि गांधी के आने के बाद नेतृत्व उनके हाथ से चला गया था. इतना ही नहीं, उनकी ‘हिन्दूब्राण्ड राजनीति’ को भी कोई पूछता नहीं था. उदार गांधीवादी राष्ट्रवाद ने जनता के हृदय में जगह बना ली थी. सभी भेदभावों को भूलकर जनता गांधी के पीछे चलने लगी थी.
राजनीति की बुनियाद से साम्प्रदायिकता को हटाकर, गांधी ने उसकी जगह अध्यात्म को प्रस्थापित कर दिया था. अध्यात्म की बुनियाद पर मानवतावादी राजनीति की इस नयी धारा ने गांधी को महात्मा बना दिया और फासीवादी क्षीण होते-होते हाशिये पर चले गये क्योंकि वे गांधी के साथ जा नहीं सकते थे और जनता उनके साथ आने के लिए तैयार नहीं थी.
इस प्रकार, गांधी का विरोध इनके मन में इतना बढ़ गया कि उनके नेतृत्व वाले आंदोलनों को कमजोर करने हेतु ये लोग अंग्रेजों के लिये स्वतंत्रता सेनानियों की मुखबिरी करने लगे, अंग्रेजों की चापलूसी करने लगे, जयचंद बन गये.
स्वतंत्रता आंदोलन तो छोडिये, इन फर्जी हिंदुत्ववीरों ने कोई समाज-सुधार का काम भी नहीं किया. अरे, काम तो क्या, इसके लिए विचार-प्रचार तक नहीं किया. इनके गुरु गोलवलकर की लिखी ‘अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ शीर्षक पुस्तक तो फासीवादी हिटलर की तारीफ करने वाली एक गन्दी पुस्तक है.
जिस व्यक्ति के कारण अपने अस्तित्व पर संकट आता है, वह व्यक्ति कांटे की तरह चुभने लगता है और तब उस कांटे को निकलाने का प्रयत्न होता है.
झूठे प्रचार पर इन फासीवादी जयचंदों को बहुत पहले से भरोसा था. आज जो आप गोदी मीडिया और चापलूसी करते न्यूज चैनल देखते हैं, वो कोई आज की बात नहीं है. स्वतंत्रता पूर्व भी जयचंदों के प्रभाव वाले समाचार-पत्रों में भरपूर झूठा प्रचार चलता था, गांधी की कटु आलोचनायें छपती थी. गांधी को गालियां देने वाली छोटी छोटी पत्र-पत्रिकायें, प्रचार पुस्तिकायें ये लोग भारी मात्रा में छपवाते थे. पर कुछ जयचंद तो इतने शूरवीर थे कि अपना नाम भी छापने की उनकी हिम्मत नहीं होती थी.
नपुंसक जयचंदों की आंखों में गांधी किरकिरी की तरह खटकते थे इसलिये 55 करोड रुपयों की तो बात ही क्या, जब पाकिस्तान किसी के सपने में नहीं था, तब से ये गांधी की हत्या करने के प्रयास में जुट गये थे.
गांधी भारत आये, उसके बाद उनकी हत्या का पहला प्रयास 25 जून, 1934 को किया गया. पूना में गांधी एक सभा को सम्बोधित करने के लिए जा रहे थे, तब उनकी मोटर पर बम फेंका गया था. गांधी पीछे वाली मोटर में थे, इसलिए बच गये. हत्या का यह प्रयास फासीवादी भगवों के एक गुट ने ही किया था. बम फेंकने वाले के पास गांधी तथा नेहरू के चित्र पाये गये थे, ऐसा पुलिस रिपोर्ट में दर्ज है. 1934 में तो पाकिस्तान नाम की कोई चीज क्षितिज पर थी ही नहीं, फिर 55 करोड रुपयों का सवाल ही कहां से पैदा होता है ?
गांधी की हत्या का दूसरा प्रयास 1944 में पंचगनी में किया गया. जुलाई 1944 में गांधी बीमारी के बाद आराम करने के लिए पंचगनी गये थे. तब पूना से 20 संघी युवकों का एक गुट बस लेकर पंचगनी पहुंचा. दिनभर वे गांधी-विरोधी नारे लगाते रहे. नाथूराम गोडसे इस गुट में शामिल था. उसी शाम को गांधी की प्रार्थना सभा में नाथूराम हाथ में छुरा लेकर उनके तरफ लपका, पर तभी मणिशंकर पुरोहित और भीलारे गुरुजी नाम के युवकों ने नाथूराम का प्रयास विफल कर दिया.
उस समय गांधी जी ने नाथूराम को माफ कर दिया और उनके आग्रह पर नाथूराम के खिलाफ़ कोई पुलिस रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई गयी. पर गांधी की हत्या के बाद, जांच करने वाले कपूर-कमीशन के समक्ष मणिशंकर पुरोहित और भीलारे गुरुजी ने स्पष्ट शब्दों में नाथूराम गोडसे का नाम इस घटना पर अपना बयान देते समय लिया था.
1944 में तो पाकिस्तान बन जाएगा, इसका खुद मुहम्मद अली जिन्ना को भी भरोसा नहीं था. ऐतिहासिक तथ्य तो यह है कि 1946 तक मुहम्मद अली जिन्ना प्रस्तावित पाकिस्तान का उपयोग सत्ता में अधिक भागीदारी हासिल करने के लिए ही करते रहे थे. जब पाकिस्तान का नामोनिशान भी नहीं था, ना कोई दंगे फसाद हुये थे, तब क्यों नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या का प्रयास किया था ?
गांधी की हत्या का तीसरा प्रयास भी उसी वर्ष – 1944 के सितम्बर में, वर्धा में किया गया था. गांधीजी मुहम्मद अली जिन्ना से बातचीत करने के लिए बम्बई जाने वाले थे. गांधी बम्बई न जा सके, इसके लिए पूना से एक गुट वर्धा पहुंचा. इस गुट का नेता नाथूराम गोडसे था. उस गुट के एक व्यक्ति के पास छुरा बरामद हुआ था, यह बात पुलिस-रिपोर्ट में दर्ज है. इस घटना के सम्बन्ध में प्यारेलाल (गांधी के सचिव) ने लिखा था कि जिला पुलिस-सुपरिन्टेण्डेण्ट से सूचना मिली कि ‘स्वयंसेवक कोई गम्भीर अपराध करना चाहते हैं, इसलिए गांधी पुलिस सुरक्षा में रहें और मोटर से ही रेलवे स्टेशन जायें.’
लेकिन यह जानकर बापू ने कहा कि ‘मैं उनके बीच अकेला जाऊंगा और वर्धा रेलवे स्टेशन तक पैदल चलूंगा, स्वयंसेवक अपना विचार बदल लें और मुझे मोटर में आने को कहें तो दूसरी बात है.’
लेकिन बापू के रवाना होने से ठीक पहले पुलिस ने स्वयंसेवकों को गिरफ्तार कर लिया. पुलिस एसपी ने कहा कि धरना देनेवालों का नेता (नाथूराम गोडसे) बहुत ही उत्तेजित स्वभाववाला, अविवेकी और अस्थिर मन का आदमी मालूम होता था. गिरफ्तारी के बाद तलाशी में उसके पास एक बडा छुरा निकला. (महात्मा गांधी : पूर्णाहुति : प्रथम खण्ड, पृष्ठ 114)
इस प्रकार प्रदर्शनकारी स्वयंसेवकों की यह योजना भी विफल हुई. 1944 के सितम्बर में भी पाकिस्तान की बात उतनी दूर थी, जितनी जुलाई में थी.
गांधी की हत्या का चौथा प्रयास 29 जून, 1946 को किया गया था. गांधी विशेष ट्रेन से बम्बई से पूना जा रहे थे, उस समय नेरल और कर्जत स्टेशनों के बीच में रेल पटरी पर बडा पत्थर रखा गया था. उस रात को ट्रेन ड्राईवर की सूझ-बूझ के कारण गांधी बच गये.
इसके बाद 20 जनवरी, 1948 को मदनलाल पाहवा ने गांधी पर प्रार्थना सभा में बम फेंका और 30 जनवरी, 1948 के दिन नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी.
जब पाकिस्तान के विचार का भी अस्तित्व नहीं था, दंगे फसाद कुछ नहीं हुये थे और 55 करोड रुपये का प्रश्न तो 12 जनवरी, 1948 को यानी गांधी की हत्या के 18 दिन पहले प्रस्तुत हुआ था. इससे पहले, उपरोक्त चार बार गांधी की- हत्या के प्रयास इन लोगों ने क्यों किये थे ? – ये सवाल जनता को इनसे पूछना चाहिए.
गांधी की हत्यारे का पक्ष लेने वाले यह दावा करते हैं कि गांधी ने पाकिस्तान बनवाया, दंगों में लाखों हिंदू मारे गये, तो जान लीजिये कि माफीनामा फेम संघी ‘वीर’ विनायक दामोदर सावरकर- द्विराष्ट्र सिद्धांत के जनक थे. सबसे पहले भारत के बंटवारे – दो राष्ट्रों का सिद्धांत (द्विराष्ट्र सिद्धांत) अर्थात् पाकिस्तान के निर्माण का प्रस्ताव 1937 में ‘वीर’ सावरकर लेकर आए (हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में सावरकर का भाषण, 1937), इसके तीन साल बाद 1940 में जिन्ना ने इस द्विराष्ट्र सिद्धांत को स्वीकार किया.
देश को साम्प्रदायिक दंगों की आग में झोंकने और तदोपरांत विभाजन के लिये संघ जिम्मेदार था. जो फर्जी राष्ट्रवादी आज ‘अखंड भारत’ की बात करते हैं, इन्हीं अखंड पाखंडियों ने सबसे पहले भारत के विभाजन का समर्थन किया था. इनसे पूछा जाना चाहिये कि गांधी ने कब किसी को कहा कि जाकर दूसरे धर्म के लोगों पर हमला कर दे ? वो तो शांति स्थापना और अंहिसा का प्रचार जीवन भर करते रहे. लेकिन संघी भगवाधारी नेता लगातार जहर बुझे और भड़काऊ भाषण देते रहे, फासीवादी प्रचार सामग्री बांटते रहे, जिसके परिणामस्वरूप दंगे हुये, भारत का विभाजन हुआ, और लाखों लोग मारे गये.
यहां 55 करोड रुपयों के बारे में एक और हकीकत भी समझ लेना जरूरी है. देशविभाजन के बाद भारत सरकार की कुल सम्पत्ति और नकद रकमों का, जनसंख्या के आधार पर, बटवारा किया गया था. उसके अनुसार पाकिस्तान को कुल 75 करोड रुपये देना तय था. उसमें से 20 करोड रुपये दे दिये गये थे और, 55 करोड रुपये देना अभी बाकी था. नेहरू ने कहा कि कश्मीर पर हमला करने वाले पाकिस्तान को यदि 55 करोड रुपये दिये गये, तो उसे वह सेना के लिए खर्च करेगा, यह कहकर उन्होने यह धन रोक लिया था.
इस बात की जानकारी गांधी को हुई तो उन्होंने 55 करोड रुपये पाकिस्तान को दे देने की बात का समर्थन किया था. गांधी जी का मानना था कि यह पैसा पाकिस्तान में जनता के पुनर्वास, खाद्यान्न और स्वास्थ्य सेवाओं के लिये आवश्यक है. 12 जनवरी को गांधी ने प्रार्थना-सभा में अपने उपवास की घोषणा की थी, और उसी दिन 55 करोड रुपये की बात भी उठी थी. लेकिन गांधीजी का उपवास 55 करोड रुपये के लिए नहीं, दिल्ली में शान्ति-स्थापना के लिए था. मक्कारी की पराकाष्ठा है कि गांधी जी के उपवास को रुपयों के साथ जोड़ दिया गया.
दरअसल इन हिंदुत्ववादी पाखंडियों ने कभी किसी स्वतंत्रता संघर्ष में भाग नहीं लिया. जब पूरा देश स्वतंत्रता के लिये लड़ रहा था, तब ये अंग्रेजों के जूते चाट रहे थे और स्वतंत्रता सेनानियों की मुखबिरी कर रहे थे. बाद में, अंग्रेज जब जाते-जाते भारत का विभाजन करना चाहते थे तब भारतीय समाज में विभाजन के लिये उपयुक्त परिस्थिति और माहौल बनाने में ये लोग अंग्रेजों के काम आये. इन्हीं लोगों ने देश भर में हिंसक साम्प्रदायिक उन्माद का माहौल बनाया जो कि दंगों और राष्ट्र विभाजन का कारक बना.
अंततः संघ, भारत विभाजन का विरोध करने वाले गांधी की हत्या करके, उन्हें ही विभाजन का दोषी ठहराने के लिए दुष्प्रचार करता रहता है, जबकि, यदि उस समय संघ ने अंग्रेजों के कहने पर भारत में उग्र हिंदू वातावरण न बनाया होता तो शायद जिन्ना अलग राष्ट्र नहीं मांगते.
भारत को आज़ाद करने की मजबूरी के कारण अंग्रेज खिसिया गये थे. उन्हे भारत को आज़ाद तो करना पड़ रहा था, पर उनकी प्रथम इच्छा थी कि भारत एक राष्ट्र ना रहे. और अपनी इस स्थिति के लिये वो गांधी जी को मुख्यतः जिम्मेदार मानते थे इसलिये उनकी द्वितीय इच्छा-गांधी की हत्या थी. पर ऐसा कोई अंग्रेज अफसर करता तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटिश सरकार को निंदा और बदनामी झेलनी पड़ती इसलिये उन्होने खुद परोक्ष रहते हुये किसी भारतीय से गांधी की हत्या करवाने की साजिश रची. अब इस काम के लिये उनसे बेहतर और कौन हो सकता था – जो पहले से गांधी जी के प्रति नफ़रत पाले बैठे थे, जिन्होंने पहले भी उनकी हत्या के प्रयास किये थे, जो अंग्रेजों के वफादार थे, जिन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों की मुखबिरी की थी, जिन्होंने भारत के विभाजन का महौल बनाकर अंग्रेजों की इच्छा पूरी की थी.
बहरहाल, गांधी की हत्या के साथ पाकिस्तान, दंगों और रुपयों का कोई सम्बन्ध नहीं हैं, इस बात की स्पष्टता के बाद अब नपुंसक भगवाधारियों द्वारा प्रस्थापित तीसरे, ‘मिथक’ की भी चर्चा कर लें.
यह तीसरा, ‘मिथक’ है कि गांधीजी का हत्यारा गोडसे -देशभक्त और बहादुर था. तो चलिये जानते हैं नाथूराम गोडसे के बारे में.
नाथूराम गोड़से का असली नाम ‘नथूराम’ था. उसका परिवार भी उसे इसी नाम से बुलाता था. अंग्रेजी में लिखी गई उसके नाम की स्पेलिंग के कारण काफी समय बाद उसका नाम नथूराम से नाथूराम (Nathuram) हो गया. बचपन में नथूराम लड़कियों की तरह रहता था. वो लड़कियों के कपड़े और नथ पहनता था. इसी नथ के कारण उनका नाम नथूराम पड़ गया था, जो आगे चलकर अंग्रेजी की स्पेलिंग के कारण नाथूराम हो गया था. लड़की की तरह रहने पर लोग उसे चिढ़ाते थे. उसे शीज़ोफ्रेनिया नामक एक मानसिक रोग था जिसके कारण वह बचपन में देवी देवताओं की मूर्ति के सामने जाकर बैठ जाता था और सबसे कहता था कि देवी देवता उसके जरिए लोगों की बातों का जवाब देते थे.
नाथूराम मंदबुद्धि था, पढ़ने में अच्छा नहीं था इसलिये ज्यादा पढ-लिख नहीं पाया. उसने मराठी मीडियम से दसवीं क्लास की परीक्षा दी थी, जिसमें वो फेल हो गया था. एक पत्र भी लिखने मे उसे कठिनाई होती थी. दसवीं में फेल होने के बाद उसने आगे पढ़ाई नहीं की. गोडसे को समलैंगिक भी बताया जाता है. गांधी जी की हत्या के काफी समय पहले से उसके सावरकर के साथ घनिष्ठ संबंध थे.
गोडसे ने गांधी की हत्या करने के लिये मुस्लिम वेश बनाया था, यहां तक कि अपना खतना तक करा रखा था. वो तो भला हो उन लोगों का जिनने उसको जिंदा पकड़ लिया अन्यथा सब यही समझते कि गांधी का हत्यारा कोई मुस्लिम था.
प्रश्न है कि ऐसे झूठे, बेईमान, यौन कुंठित मनोरोगी, जो हत्या जैसे अपराध करते हैं क्या उनको ‘वीर’ या ‘देशभक्त’ कहा जा सकता है ? एक अहिंसानिष्ठ निःशस्त्र वृद्ध व्यक्ति की हत्या करना कोई मर्दानगी नहीं, कोरी नपुंसकता है.
जो लोग तार्किक रीति से अपनी बात दूसरों को समझा नहीं सकते, वे ही लोग आक्रमणात्मक हिंसा का सहारा लेते हैं. आक्रमणात्मक हिंसा बुजदिलों का मार्ग है, वीरों का नहीं. अपनी निष्फलता और हताशा में ही तथाकथित हिन्दुत्ववादीयों ने गांधी की हत्या की थी, और यही हिजड़े आजकल माॅबलिंचिंग की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं और ऐसा करके वो अपने आपको बड़ा शूरवीर समझ रहे हैं.
नाथूराम ने गांधी की हत्या करने के प्रयास अधिकतर प्रार्थना-सभाओं में ही किये. जब सब लोग प्रार्थना में लीन हों, उस वक्त ये ‘हिंदू वीर’ गांधी की हत्या करना चाहते थे. निशस्त्र आदमी पर हमला नहीं करना चाहिए, ऐसा हिंदू धर्म शास्त्रों में कहा गया है. ये कायर तो अपनी संस्कृति का भी अनुसरण नहीं कर सकते, और अपने आप को हिंदुत्व का रक्षक कहते फिरते हैं, और दूसरों को हिंदुत्व का सर्टिफिकेट भी बांटते हैं. गांधी की हत्या करने के लिये सैंकड़ों निर्दोष हिंदू महिलाओं, बच्चों और वृद्धों की उपस्थिति वाली प्रार्थना-सभा में बम फेंकने में भी इन लोगों को शर्म नहीं आयी, क्योंकि इनके लिये हिंदुओं की जान से कोई मतलब नहीं, बस अपनी फासीवादी विचारधारा महत्वपूर्ण है.
कायरता और दोगलेपन की बानगी देखिये कि आरएसएस कभी स्वीकार नहीं करता कि गांधी की हत्या में उसका कोई हाथ था. पर यह सरकारी दस्तावेजों में दर्ज तथ्य है कि उस समय के गृह मंत्री सरदार पटेल ने गोलवलकर को लिखे एक पत्र में साफ तौर पर कहा था कि ‘उनके (संघियों के) सभी भाषण सांप्रदायिक जहर से भरे थे. इस जहर के परिणामस्वरुप देश को गांधी के प्राणों की क्षति उठानी पड़ी.’ पटेल ने आगे जोड़ा, ‘आरएसएस के लोगों ने गांधी की मृत्यु के बाद खुशी जाहिर की और मिठाइयां बांटीं.’
18 जुलाई, 1948 को श्यामाप्रसाद मुखर्जी को लिखे अपने पत्र में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, ‘… हमारी सूचना यह पुष्ट करती है कि आरएसएस और हिंदू महासभा नामक संगठनों की गतिविधियों की वजह से, खास तौर पर पहली (आरएसएस) की वजह से, देश में ऐसा वातावरण तैयार हुआ जिस कारण से यह खौफनाक हादसा संभव हुआ.’
इस घटना के बाद सरदार पटेल ने जिस तरह आरएसएस पर शिकंजा कसा, उनके शीर्ष नेतृत्व ने हथियार डालने में ही अपनी भलाई समझी. इसीलिए भले ही अंदर ही अंदर संघ के लोग गांधी से बेतरह नफरत करते हों, कोई भी शीर्ष पदाधिकारी आधिकारिक तौर पर उनके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं निकालता.
सरदार पटेल ने गांधीजी की हत्या के बाद गोलवलकर से यह हलफनामा ले लिया था कि संघ अब खुद को राजनीतिक गतिविधियों से पूरी तरह दूर रखेगा और भविष्य में बतौर एक सांस्कृतिक संगठन ही काम करेगा.
इसलिए यह पहला मौका था जब 2014 में मोदी लहर पर सवार होकर संघ कार्यकर्ताओं ने गणवेश में भाजपा के लिए वोट मांगे थे. इसके पहले तक आरएसएस के लोग आधिकारिक तौर पर ऐसा करने से कतई परहेज करते थे जबकि इस हलफनामे की भावना के विरुद्ध संघ 1951 से ही पहले जनसंघ और फिर भाजपा के नाम से सीधी चुनावी राजनीति करता रहा है. इस से पता चलता है कि इनके लिये किसी वायदे, किसी नैतिकता के कोई मायने नहीं हैं.
यदि आरएसएस कहता है कि उसका गांधी की हत्या से कोई संबंध नहीं है तो उसे नाथूराम गोडसे, सावरकर और हिंदू महासभा की सार्वजनिक रूप से निंदा करनी चाहिए. उसे गांधी के खिलाफ दिए गए जहरीले भाषणों के लिए माफी मांगनी चाहिए, उसे हिंदू राष्ट्रवाद के उस संकीर्ण विचार से छुटकारा पा लेना चाहिए जिसकी वजह से ही गांधी की निर्मम हत्या की गई थी, और उसे एनडीए-1 के दौरान संसद परिसर में सावरकर की प्रतिमा लगाने के लिए भी सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगनी चाहिए.
आजकल मोदी जी भी गांधी की प्रशंसा कर रहे हैं, पर क्या आजतक किसी ने उन्हे कभी गोडसे की निंदा करते सुना है ? बहरहाल, यह निर्विवाद सत्य है कि गांधी की हत्या पाकिस्तान, दंगों, 55 करोड़ रुपये या मुसलमानों के प्रति पक्षपात के कारण नहीं, बल्कि संघियों की हताशा, साम्प्रदायिक नफ़रत और ईर्ष्या के कारण की गयी थी.
गांधी के हत्यारों के वंशजों को अभी भी यह हक़ीकत परेशान करती है कि भले ही गांधी चले गये लेकिन गांधी के विचार अब तक जीवित हैं. और जब तक गांधी जी के विचार जीवित हैं, तब तक संघियों की जीत निर्णायक नहीं है इसलिये पिछले सत्तर सालो से वो अब तक गांधी जी के विचारों की हत्या करने का प्रयास करते रहते हैं. कुछ लोग उन्हें गालियां देते हैं, कुछ लोग उनका चरित्र हनन करते रहते हैं, झूठे इल्ज़ाम तो कुछ लोग उनका पुतला बनाकर दोबारा हत्या करने का प्रयास करते हैं .
निश्चय ही, ये लोग ‘वीर’ और ‘देशभक्त’ कभी नहीं थे क्योंकि काले-कारनामे करने वालों, झूठ फैलाने वालों, गन्दी शरारतें करने वालों, माॅबलिंचिंग, हत्या और बलात्कार करने वालों को वीर और देशप्रेमी तो हरगिज नहीं कहा जा सकता. ये लोग झूठ, फरेब, षड्यंत्र और घृणित साम्प्रदायिक राजनीति के अनिवार्य अंग हैं. धर्म और राष्ट्रवाद की चादर ओढे, हमारे आसपास घूमनेवाले, इन विकृत-कुण्ठित-मानस के षड्यंत्रकारियों को हमें अच्छी तरह पहचान लेना चाहिये .
- श्रीप्रकाश शर्मा
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