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इस डरावने माहौल मेंअधिकांश मीडिया अपनी यथार्थवादी भूमिका में लौटता दिखा

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इस डरावने माहौल मेंअधिकांश मीडिया अपनी यथार्थवादी भूमिका में लौटता दिखा

संजय श्याम, पत्रकार
अफरातफरी के दौर और डरावने माहौल में बहुत दिन बाद कुछ भक्त, दलाल या थूकचाटु पत्रकारों को छोड़ दें तो अधिकांश मीडिया अपनी यथार्थवादी भूमिका में लौटता दिखा है. मजबूरों की व्यथा-कथाओं को दिखा दिखाकर क्षुब्ध एंकर और रिपोर्टर नेताओं और प्रशासकों को ताना देते हैं कि क्या उनको ये मजबूर भारत के नागरिक नहीं दिखते ?

कोरोना संकट काल में भारत के शासक वर्ग ने गरीबी की अंतहीन सीमा पर खड़े गरीबों, मजलूमों, मेहनतकशों, रोजी-रोटी की खातिर अपनी जन्मभूमि से दूर रहनेवालों को जो तकलीफ, दु:ख-दर्द, घुटन और बेइज्जती दिया है, वह लंबे वक्त तक सबों को सालती रहेगी.

इस अफरातफरी के दौर और डरावने माहौल में बहुत दिन बाद कुछ भक्त, दलाल या थूकचाटु पत्रकारों को छोड़ दें तो अधिकांश मीडिया अपनी यथार्थवादी भूमिका में लौटता दिखा है. मजबूरों की व्यथा-कथाओं को दिखा दिखाकर क्षुब्ध एंकर और रिपोर्टर नेताओं और प्रशासकों को ताना देते हैं कि क्या उनको ये मजबूर भारत के नागरिक नहीं दिखते ? इनकी हालत पर उनको जरा भी तरस नहीं आती ? बदन के पोर-पोर में जख्म लिए इन मजलूमों की तकलीफदेह हालत को देखने के बाद इन हुक्मरानों को अपने मखमली बिस्तर पर सोते हुए शरम-हइया क्यों नहीं आती ? हकासल-पिआसल भागते-रेगते लोग इनकी नजरों से ओझल कैसे हो रहे हैं ?

एक टीवी रिर्पोटर जब हजारों किलोमीटर दूर पैदल घर जाते एक गरीब मजदूर की टूटी चप्पलों और पैर के पड़े छालों को देखता है, तो उससे सहा नहीं जाता और वह अपने जूते उसे पहनने को दे देता है. एक अन्य टीवी रिर्पोटर सुबह जिस टेंपो ड्राइवर से बात करता है, जो अपने बीबी -बच्चों को सुदूर अपने गांव ले जा रहा है, शाम को जब उसी ड्रावर को दुर्घटना में मरा पाता है तो बिलख उठता है और कायदे से पीस टू कैमरा तक नहीं दे पाता.

कई मीडिया ने तुलनात्मक रिपोर्ट में कहा कि यह कैसा मजाक है कि इतनी आफत के बाद भी नेता उसी तरह सुसज्ज नजर आते हैं जबकि लोग कंगाल होते नजर आते हैं. यह कैसा कंट्रास्ट और कैसा दुर्भाग्य है कि एक ओर अपनी घर-गृहस्थी को किसी तरह संभालकर, हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों को पैदल या रिक्शा या किराये के ट्रकों, टेंपो, ऑटो में जाते लाखों-करोड़ों थके-हारे-भूखे-प्यासे मजदूर किसान हैं तो दूसरी तरफ हमारे देश के विधाता-नेता हैं, जो जब टीवी पर आते हैं (क्योंकि वे सिर्फ टीवी पर ही आ रहे हैं) तो एक से एक डिजाइनर मास्क या स्टाइली दुपट्टे लपेटकर आते हैं ताकि उनकी बेमिसाल स्टाइल बनी रहे. कई रिर्पोटरों ने शासन-प्रशासन की आंखों में आंखें डालकर और इनके डाइबीटिज तथा ब्लड प्रेशर को बढ़ाकर इनके तमाम इंतजामात समेत क्वेरेंटीन सेंटरों की बदहाली को बखूबी सरेआम किया है.

इसके उलट एक और सीन है. कई भक्त एंकर और भक्त विशेषज्ञ यह समझाने में लगे हैं कि अपने यहां हर साल दो लाख तो एक्सीडेंट में ही मर जाते हैं, लाखों टीबी और कैंसर से मर जाते हैं, पचासों हजार मलेरिया से मर जाते हैं. उसके मुकाबले कोरोना से मरनेवाले तो कम ही हैं यानी लाख-दो लाख कोरोना से मर जाएं तो परेशानी की बात नहीं यानी ट्रंप, जिसकी शासक वर्ग चमचागिरी करता है, की भाषा. ऐसे एंकर व्यथा कथाओं को निचोड़कर राजनीति करने लगते हैं और सोशल मीडिया पर उनके चमचे उनको पुलित्जर सम्मान का हकदार बताते हैं.

पर पुरस्कार तो उन्हें ही मिलेगा और ससम्मान याद उन्हें ही रखा जाएगा, जिन्होंने अपनी क्रिटिकल भूमिका निभाते हुए सबको हकीकत दिखाने और लिखने को कहा है, जिन्होंने अपने सहयोगियों को हमेशा यही सिखाया कि –

बाद मरने के मेरे तुम जो कहानी लिखना
कैसे बर्बाद हुई ये जवानी लिखना
ये भी लिखना कि मेरे होंठ हंसी को तरसे
उम्र भर बहता रहा आंख से पानी लिखना
मेरे दोस्त लिखना, खूब लिखना.

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