लोहे के पुल
लोहे की ज़ंजीरें भी थीं
वक़्त के साथ टूट गए
बहते हुए पानी में
गला कर अपना लोहा
अब एक परछाईं सी उभरती है
नीचे रेत में मुंह छुपाती हुई नदी में
वो नदी जिसमें
कभी प्रगाढ़ होती थी तुम्हारी छाया
घनाती हुई सांझ के साथ साथ
अल्बम ने तो बहुत कोशिश की थी
अपनी चौहद्दी में गुज़रा हुआ वक़्त को थामने की
अफ़सोस
पसीजी हुई हवाओं के साथ साथ
नमक रिस आए अल्बम के फेफड़ों में
क्षय रोग के शिकार तुम्हारी तस्वीरों में
अब मैं ढूंढता हूं
रीते हुए लोहे के पुल
घनाती हुई इस सांझ में साथी
- सुब्रतो चटर्जी
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