जब देश और दुनिया की समूची प्रबुद्ध मनीषा
गुजर रही हो मेनोपाॅज के दौर से
जब बोझ व बंध्या हो गई हो उनकी कोख
जब सृजन, ठहराव और असृजन का ही पर्याय बन गया हो
जब रहनुमाओं की रहनुमाई
दम तोड़ रही हो
घने अंधकार वाली बंद गलियों में
तब और तब मेरे दोस्त
केवल तभी जरूरत है कि
झोंका जाए खुद को
अन्वेषण, अनुसंधान, आत्मालोचन में
खंगाला जाए अतीत वो
ताकि कुलांचे भरते हुए
दिशाहीन वर्तमान को
एक विश्वाकांक्षी जनाकांक्षी भविष्य की राह पर
धकेलने की कोशिशों
को मिले
नये प्रतिमान, नये संबेग और नई दिशा
ऐसे में यह अहसास जरू री है कि
विराम लेना नहीं जानता
महाकाल का रथ
बेतहाशा भागता, दौड़ता, बढ़ता जाता
अपने अनन्त यात्रा पथ पर
कंदरा युग से सभ्यता के युग तक
और अब इससे भी आगे
राह बनाते घनघोर अंधकार में भी
उनलोगों ने पहले काटी मेरी जांघें
मांस के लोथड़े के अलावा कुछ भी नहीं
काटी हाथ और पांवों की नसें
फूट पड़ी हल्की सी महज खून की चंद बूंदें
खीझकर निकाल ली आंखों की पुतली, पाकस्थली,
उलट-पुलटकर देखी यकृत, पित्त थैली
नोंचकर निकाली योनी
ना, कहीं कुछ भी नहीं !
कुछ भी नहीं दिमाग में, रीढ़ में, पीठ में, पेट में
दो अदद आंतें पड़ी रही उदास, दोनों ओर
उसे भी खोलकर देखा गया
सब खाली बेकार !
लेकिन दिल पर हाथ पड़ते हीं
हां, पड़ते ही हाथ दिल पर
उनलोगों को साफ-साफ समझ में आ गया
वाकई इसमें कुछ है !
राक्षसी दांतों और नाखूनों से चीरकर देखा,
अन्दर बसा था – एक देश बंगलादेश !
- तसलीमा नसरीन
(‘मुझे घर ले चलो आत्मकथा-5’ से बी. पी. सिंह द्वारा अनुदित)
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