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इंटरनेट, लोकतंत्र और नरेन्द्र मोदी के साइबर खेल

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इंटरनेट, लोकतंत्र और नरेन्द्र मोदी के साइबर खेल
इंटरनेट, लोकतंत्र और नरेन्द्र मोदी के साइबर खेल
जगदीश्वर चतुर्वेदी

लोकतंत्र में इंटरनेट का सबसे बड़ा नुकसानदेह पहलू यह है कि इंटरनेट पर राजनीतिक संवाद संभव नहीं है. मिस्र से लेकर सीरिया तक अन्ना से लेकर रामदेव तक जितने भी आंदोलन हुए हैं, उनके पक्षधरों और विपक्षियों में इंटरनेट पर राजनीतिक संवाद हो ही नहीं पाया. लोकतांत्रिक राजनीतिक संवाद का अभाव इंटरनेट की सबसे बड़ी कमजोरी है. इस संदर्भ में देखें तो इंटरनेट से लोकतंत्र मजबूत नहीं होता. लोकतंत्र तो राजनीतिक संवाद से मजबूत होता है. इंटरनेट राजनीतिक संवाद का नहीं सिर्फ कम्युनिकेशन का माध्यम है. कम्युनिकेशन को राजनीतिक संवाद नहीं कहते.

आज हम इस सवाल पर सोचें कि क्या लोकतंत्र के लिए इंटरनेट फायदेमंद है ? एक तरह से देखें तो इंटरनेट लोकतंत्र के लिए फायदेमंद है. इंटरनेट के कारण डिजिटल सिटीजनशिप और टेली-डेमोक्रेसी का जन्म हुआ है. इंटरनेट के आने के साथ राजनीतिक शिरकत की संभावनाएं पहले की तुलना में बढ़ गयी हैं. राजनीतिक कम्युनिकेशन बढा है. नेट समुदायों का जन्म हुआ है. सरकार इनका नियंत्रण नहीं कर सकती. सरकारी अधिकारियों से तुरंत कम्युनिकेशन संभव है. लोकतांत्रिक विचारों का रीयलटाइम में विश्वव्यापी प्रसार होता है. ये सारी इसकी विशेषताएं हैं. इसके बावजूद राजनीतिक संवाद में यह माध्यम मदद नहीं करता.

यह सच है न्यू मीडिया या विकसित वर्चुअल रियलिटी में किसी भी चीज को प्रभावशाली ढ़ंग से पेश करने की विलक्षण क्षमता है लेकिन इससे किसी व्यक्ति विशेष के बारे में संतोषजनक राय नहीं बनाई जा सकती. यह तकनीक फेस-टु-फेस कम्युनिकेशन को आज भी अपदस्थ नहीं कर पायी है.

इलेक्ट्रोनिक मीडिया या वर्चुअल मीडिया किसी भी व्यक्ति के बारे में कभी समग्र अनुभव संप्रेषित नहीं करता. उसके बारे में आलोचनात्मक ढ़ंग से सोचने का अवसर कम देता है, जबकि फेस-टु-फेस बातचीत के बाद संबंधित विषय या व्यक्ति के बारे में समग्र अनुभव मिलता है. संबंधित व्यक्ति के बारे में आलोचनात्मक समझ बनती है और जो समझ बन रही है उस पर भी संवाद कर सकते हैं. यह भी पाया गया है कि स्क्रीन आधारित तकनीकियां अनेक किस्म की मनो-व्याधियां पैदा करती हैं. इनमें सामाजिक दायित्व से पलायन से लेकर ऑब्शेसन तक आता है.

इंटरनेट और वर्चुअल समाज के पक्षधर इस सवाल पर विचार करें कि जब भी व्यापारियों को कोई व्यापारिक सौदा या समझौता करना होता है तो वे वर्चुअली निर्णय क्यों नहीं लेते ? इलेक्ट्रोनिक कम्युनिकेशन की मुश्किल यह है कि संबंधित व्यक्ति की भाषा, शैली, व्यवहार, सामाजिक संदर्भ आदि को अनुपस्थित कर देता है. जापानी और यूरोपीय देशों के व्यापारी किसी बड़े पद पर या निचले अधिकारी के पद पर वर्चुअल कम्युनिकेशन के आधार पर नियुक्तिपत्र नहीं देते बल्कि फेस-टु-फेस मिलकर बात करके फैसला लेते हैं. इसके आधार पर वे संबंधित व्यक्ति की सर्जनात्मक क्षमता को आंकते हैं. इसका अर्थ है कि वर्चुअल कम्युनिकेशन के युग में आज भी फेस-टु-फेस कम्युनिकेशन ज्यादा प्रभावशाली होता है.

भारत में समाज का बहुत छोटा अंश इंटरनेट का इस्तेमाल करता है. ये ही लोग हैं जो वर्चुअल समाज बनाते हैं. लेकिन क्या इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि इलैक्ट्रोनिक तकनीक या इंटरनेट ने पुराने सामुदायिक समाज को तोड़ दिया है या अपदस्थ कर दिया है ? इस परिप्रेक्ष्य में पीएम को देखें, उनके साइबर बयानों और कम्युनिकेशन को देखें.

पीएम मोदी की वक्तृता खूबी है- तर्क-वितर्क नहीं आज्ञा पालन करो. इस मनोदशा के कारण समूचे मंत्रीमंडल और सांसदों को भेड़-बकरी की तरह आज्ञापालन करने की दिशा में ठेल दिया गया है, क्रमशः मोदीभक्तों और संघियों में यह भावना पैदा कर दी गयी है कि मोदी जो कहता है सही कहता है, आंख बंद करके मानो. तर्क-वितर्क मत करो. लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं विकास में बाधक है, तेजगति से काम करने में बाधक हैं, अतः उनको मत मानो. सोचो मत, काम करो. धर्मनिरपेक्ष दलों-व्यक्तियों की अनदेखी करो, उन पर हो रहे हमलों की अनदेखी करो.

मोदी सरकार के लिए धर्मनिरपेक्ष परंपराएं और मान्यताएं बेकार की चीज है. असल है देश की महानता का नकली नशा. उसके लिए शांति, सद्भाव महत्वपूर्ण नहीं है, उसके लिए तो विकास महत्वपूर्ण है. वह मानते हैं शांति खोकर, सामाजिक तानेबाने को नष्ट करके भी विकास को पैदा किया जाय. जाहिर है इससे अशांति फैलेगी और यही चीज मोदी को अशांति का नायक बनाती है. मोदी की समझ है स्वतंत्रता महत्वपूर्ण नहीं है, विकास महत्वपूर्ण है. स्वतंत्रता और उससे जुड़े सभी पैरामीटरों को मोदी सरकार एकसिरे से ठुकरा रही है और यही वह बिंदु है जहां से उसके अंदर मौजूद फासिज्म की पोल खुलती है.

फासिस्ट विचारकों की तरह संघियों का मानना है नागरिकों को अपनी आत्मा को स्वतंत्रता और नागरिक चेतना के हवाले नहीं करना चाहिए, बल्कि कुटुम्ब, राज्य और ईश्वर के हवाले कर देना चाहिए. संघी लोग नागरिक चेतना और लोकतंत्र की शक्ति में विश्वास नहीं करते बल्कि थोथी नैतिकता और लाठी की ताकत में विश्वास करते हैं. मोदी के लिए स्पीड महान है. तकनीक महान है. हर चीज इन दो के आधार पर ही कोरोना संकटकाल में भी सारी चीजें तय की जा रही थी.

मोदी स्पीड का नायक है और स्पीड का अत्याधुनिक वर्चुअल सूचना तकनीक के साथ गहरा रिश्ता है. तकनीक, हिन्दुत्व और स्पीड के त्रिकोण के गर्भ से पैदा हुई संस्कृति है. हाइपररीयल मोदी संस्कृति है, इसे हिन्दू संस्कृति समझने की भूल नहीं करनी चाहिए. मोदी जैसा सोचता है मीडिया भी वैसा ही सोचता है. इस अर्थ में मोदी हाइपररीयल है.

मोदी ने भारत को सांस्कृतिक रेगिस्तान बनाया है. मोदी के लिए हिन्दू संस्कृति ही सब कुछ है और कुछ भी नहीं है. यह निर्भर करता है कि आप हिन्दू संस्कृति की किस तरह व्याख्या करते हैं. मोदी के शासन में संस्कृति नहीं है. किसी भी किस्म का सांस्कृतिक विमर्श नहीं है. मोदी ने पीआर कंपनियों के द्वारा निर्मित संस्कृति का वातावरण तैयार किया है. निर्मित संस्कृति के इस वातावरण का भारत की सांस्कृतिक परंपरा और उसके वातवरण से कोई लेना-देना नहीं है. अब हर चीज उत्तेजक और उन्मादी है. संस्कृति के रेगिस्तान को उपभोक्ता वस्तुओं से भर दिया गया है. मोदी के लिए संस्कृति का अर्थ है सिनेमा, एप तकनीक, हिन्दुत्व और तेज भागम-भाग वाली जिंदगी.

मीडिया निर्मित मोदी आम लोगों को दिखाने के लिए बनाया गया मोदी है.क्षयह दर्शकों के लिए बनाया गया मोदी है. इसमें सक्रियता का भाव है, यह मुखौटा है, बेजान है. यह ऐसा मोदी है जिसका भारत की दैनन्दिन जिंदगी के यथार्थ के साथ कोई मेल नहीं है. यह मीडिया के जरिए संपर्क बनाता है. मीडिया के जरिए संदेश देता है.

हम जिस मोदी को जानते हैं वह कोई मनुष्य नहीं है बल्कि पुतला है. हाइपररीयल पुतला है, जिसके पास न दिल है, न मन है, उसके न दुःख हैं और न सुख हैं. उसका न कोई अपना है और न उसके लिए कोई पराया है. वह कोई मानवीय व्यक्ति नहीं है. अमेरिकी पापुलर कल्चर के फ्रेमवर्क में उसे सजाया गया है. पापुलरकल्चर में मनुष्य महज एक विषय होता है. प्रोडक्ट होता है. जिस पर बहस कर सकते हैं, विमर्श किया जा सकता है. मोदी इस अर्थ में मानवीय व्यक्ति नहीं है. वह तो महज एक प्रोडक्ट है. विमर्श की वस्तु है. मोदी की जो छवि मीडिया ने बनायी है वह असली मोदी की छवि नहीं है. यह छवि कर्ममयता का संदेश नहीं देती बल्कि भोग का संदेश देती है. मीडिया निर्मित मोदी को हम असली मोदी मानने लगे हैं.

मोदी कहते रहे हैं कि वे विकास करना चाहते हैं लेकिन वे जिस भाषा में बोलते रहे हैं वह विकास की नहीं विनाश, टकराव और भेद की भाषा है. जो व्यक्ति भाषा में भेदों को दूर नहीं कर पाए वह समाज में विकास कर पाएगा, इसमें संदेह है. विगत 9 साल इसके गवाह हैं. विकास की भाषा निंदा, हमले, चरित्रहनन की भाषा नहीं होती. आपने कभी रतन टाटा को निंदा करते सुना है ? वह विकास का नायक है. उद्योग जगत का हीरो है. विकास के नायक पॉजिटिव भाषा बोलते हैं. निंदा की भाषा नहीं बोलते. मोदी के मीडिया कवरेज की सबसे बड़ी उपलब्धि है उसने समूचे देश को निंदा और हमलावर भाषा में डुबो दिया है.

कोई नेता सभ्य है या असभ्य है यह देखने का पहला पैमाना है उसकी वक्तृता की भाषा. भाषा उसके आंतरिक सौंदर्य या कु-सौंदर्य को अभिव्यंजित करती है. मीडिया उन्माद सबसे पहले सर्जक को खाता है, प्रभावित करता है, अन्य को बाद में प्रभावित करता है. हम देखें कि मीडिया प्रभाव से कुभाषा का कितनी तेजी से संचार हो रहा है. समूचा राजनीतिक माहौल कुवाक्यों, कुतर्कों और कुभाषा से भर गया है.

मोदी के हिन्दुत्ववादी तानाशाही के 15 लक्ष्य –

  1. पूर्व शासकों को कलंकित करो,
  2. स्वाधीनता आंदोलन की विरासत को करप्ट बनाओ,
  3. हमेशा अतिरंजित बोलो,
  4. विज्ञान की बजाय पोंगापंथियों के ज्ञान को प्रतिष्ठित करो,
  5. भ्रष्टाचार में लिप्त अफसरों को संरक्षण दो,
  6. सार्वजनिकतंत्र का तेजी से निजीकरण करो,
  7. विपक्ष को नेस्तनाबूद करो,
  8. विपक्ष के बारे में का हमेशा बाजार गर्म रखो,
  9. अल्पसंख्यकों पर वैचारिक-राजनीतिक -आर्थिक और सांस्कृतिक हमले तेज करो,
  10. मतदान को मखौल बनाओ.
  11. युवाओं को उन्मादी नारों में मशगूल रखो,
  12. खबरों और सूचनाओं को आरोपों-प्रत्यारोपों के जरिए अपदस्थ करो,
  13. भ्रमित करने के लिए रंग-बिरंगी भीड़ जमा रखो, लेकिन मूल लक्ष्य सामने रखो, बार-बार कहो हिन्दुत्व महान है, जो इसका विरोध करे उस पर कानूनी-राजनीतिक-सामाजिक और नेट हमले तेज करो,
  14. धनवानों से चंदे वसूलो, व्यापारियों को मुनाफाखोरी की खुली छूट दो.
  15. पालतू न्यायपालिका का निर्माण करो.

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