जब मैंने मुस्लिम महिला का गर्भ चीर कर उसे तलवार की नोक पर उछाला, तो मुझे लगा मैं ही महाराणा प्रताप हूंं – बाबू बजरंगी.
जिस देश में ऐसे दरिंदे बेल पर छूट जाए वहां महिला दिवस एक लतीफ़ा ही है.
गुरूचरण सिंह
खेत मजदूरी करने वाली कई गरीब महिलाएं अपना गर्भाशय तक निकलवा देती हैं ताकि मासिक धर्म की समस्या न हो और उन्हें छुट्टी न करनी पड़े. परिवार को भूखे पेट न सोना पड़े.
दरअसल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस एक मज़दूर आंदोलन से उपजा है जब 1908 में 15 हज़ार औरतों ने न्यूयॉर्क शहर में एक जलूस निकालकर नौकरी में कम घंटों की मांग की थी. उनकी मांग थी कि उन्हें बेहतर वेतन दिया जाए और मतदान करने का अधिकार भी दिया जाए. इसके ठीक एक साल बाद सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ अमरीका ने इस दिन को पहला राष्ट्रीय महिला दिवस घोषित कर दिया.
1917 में युद्ध के दौरान रूस की महिलाओं ने टॉलस्टाय की कालजयी रचना ‘वार एंड पीस’ की तर्ज पर खस्ताहाल रूस में एक अभियान छेड़ कर ‘ब्रेड एंड पीस’ की मांग की. महिलाओं की हड़ताल के चलते सम्राट निकोलस को पद छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा और उसके बाद बनी अंतरिम सरकार ने महिलाओं को मतदान का अधिकार दे दिया.
ईरान को बदलती दुनिया के साथ कदमताल करने के लिए तैयार करने और धार्मिक कट्टरता को ईरानी समाज से दूर रखने वाले अंतिम शासक शाह रज़ा पर अमेरिकी पिट्ठुू होने का ठप्पा लगा कर एक जबरदस्त धर्म प्रेरित आंदोलन से उसे हटा कर ईरान को एक इस्लामिक देश घोषित कर दिया गया था. आज ऐसा करने वाली सरकार के खिलाफ ही पिछले कई दिनों से ईरान में विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं. ईरान में हजारों लोग सरकार में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और लगातार कमजोर हो रही अर्थव्यवस्था के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं. ईरान में प्रदर्शनकारियों पर काबू पाने के लिए सोशल मीडिया पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए हैं.
कड़े प्रतिबंधों के बावजूद भी कुछ वीडियो और तस्वीरें ऑनलाइन शेयर हो रही हैं, जिनमें विरोध प्रदर्शन करते लोग और उन पर गोलियां चलाते सुरक्षा बलों की तस्वीरें भी हैं. और इस विरोध की प्रतीक बन चुकी एक महिला की तस्वीर भी शेयर हो रही है, जिसमें वह महिला अपना हिजाब उतारकर, उसे एक छड़ी से बांधकर हवा में लहरा रही है, शाहीन बाग के परचम की तरह. कहा जा रहा है कि इस महिला ने कट्टर इस्लामिक शासन और महिलाओं के लिए बने भेदभावपूर्ण कड़े नियमों के विरोध में ऐसा किया है. प्रदर्शनकारी ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामनेई का शासन खत्म करने की मांग कर रहे हैं.
लेकिन भारत में तो महिलाओं के संदर्भ में बदला कुछ भी नहीं है दोस्तों. बस स्थितियां और संदर्भ ही बदले हैं. उसकी हालत तो हमेशा से दोयम दर्जे की ही रही है. वैदिक युग में गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, घोषणा, पालोमी या शचि और उसके बाद मंडन मिश्र की धर्मपत्नी भारती को जैसी कुछ स्त्रियों को शो-केस कर दिया जाता था, जैंडर समानता के नाम पर. आज उनका स्थान इंदिरा गांधी, ममता बैनर्जी, अरुंधति रॉय, वृंदा करात जैसी बहुत-सी दूसरी महिलाओं ने ले लिया है. कुलीन वर्ग से वे भी थीं, ये सब भी, कुछ अपवादों को छोड़ कर, सब की सब कुलीन वर्ग से ही आती हैं.
दरअसल, हमारे देश की हालत तो इस मामले और भी बदतर है : तमाम व्रत, नियम, घर की मान-मर्यादा का भार औरतों के कंधे पर और बिना कुछ किए पत्नी के सभी ‘पुण्य कार्यों’ के आधे में भागेदारी पति की. क्यों भई, आपसे कोई कर्ज ले रखा था उसने क्या जिसकी भरपाई ‘सात जन्म’ तक बंधुआ मजदूर रह कर करनी होगी ? दुर्भाग्य से ऐसा ही एक राजनीतिक दल ही इस समय सत्तारूढ़ है, जो फिर से इसी ‘स्वर्णिम अतीत’ को लाने के लिए कटिबद्ध है.
खेत मजदूरी करने वाली कई गरीब महिलाएं अपना गर्भाशय तक निकलवा देती हैं ताकि मासिक धर्म की समस्या न हो और उन्हें छुट्टी न करनी पड़े. परिवार को भूखे पेट न सोना पड़े.
सोशल मीडिया पर इस बाबत कई पोर्टल और पृष्ठों को देख कर लगता है कि भारत में जैंडर समानता की यह लड़ाई आज भी पढ़े-लिखे शहरी समाज तक ही सीमित है. शहरों की भी गंदी बस्तियों में रहने वाली महिलाओं जैसों की समस्याओं से इसका कोई वास्ता ही नहीं है. मेरा अनुरोध है सभी महिलाओं से कि अपने साथ-साथ एक बार ईंटभट्ठों, कारखानों, इमारतों की उसारी में लगी मेहनतकश महिला मजदूरों, खेतिहर मजदूरों और आदिवासी महिलाओं के बारे में भी सोच कर देखें, जो आज शोषण की सबसे बड़ी शिकार हैं. क्यों आबादी के अनुपात में आपकी आवाज को संसद तक नहीं जाने दिया जाता ? क्यों सभी दल एकजुट हो जाते हैं इस बाबत ? सोचने का अवसर तो खड़ा है सामने. साफ-साफ कहिए न अपने उम्मीदवारों को, अगर वोट चाहिए तो बराबर संख्या में महिला उम्मीदवार भी उतारे चुनावी मैदान में.
लेकिन दलित/आदिवासी आरक्षण की तरह इसमें भी एक पेच है. मुलायम और शरद यादव जैसे लोगों को अक्सर गालियां सुननी पड़ी है कि वे महिला आरक्षण बिल के आड़े आते हैं लेकिन कितनों ने उन्हें समझने की कोशिश की है ? जैसे 50% आरक्षण केवल 15% लोगों ने हड़प रखा, बाकी के कुछ हिस्से पर भी जबरदस्ती यही लोग बैठे हुए हैं. और अब तो बहस चल रही है कि आरक्षण का औचित्य ही क्या है ? वैसे ही आप क्या यह चाहते हैं कि महिला आरक्षण के साथ भी हो ? यह तो सच्चाई से मुंह चुराना हुआ. जब तक इन महिलाओं की शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक हैसियत ऐसी नहीं हो जाती कि वे आपके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ी हो सके, जैंडर समानता का यह सपना आपको ब्यूटी कांटेस्ट, विज्ञापन और ग्लैमर की दुनिया की ओर ही ले जाएगा. असलियत से इसका नाता न कल था और न आज ही है.
हालांकि मजदूर आंदोलन की कोख से जन्मा है यह अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस. फिर भी देश की ज्यादातर मजदूर महिलाएं इससे अनजान हैं, जुड़ना तो बहुत दूर की बात है. फिर भी अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर आप सबको हार्दिक शुभकामनाएं !!
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