मनीष आजाद
2014 में ‘शुभ्रदीप चक्रवर्ती’ की एक महत्वपूर्ण दस्तावेजी फिल्म आयी थी- ‘आफ्टर दि स्टार्म.’ इस फिल्म में शुभ्रदीप ने 7 ऐसे मुस्लिमों की कहानी बयां की है जिन्हें आतंकवाद के झूठे केसों में फंसाया गया और फिर सालों साल जेल में बिताने के बाद विभिन्न कोर्टो ने उन्हें सभी आरोपो से बरी कर दिया, लेकिन इस दौरान अपने को निर्दाेष साबित करने की जद्दोजहद ने उनका व उनके परिवार का सामाजिक-आर्थिक अस्तित्व ही मानो खत्म कर दिया.
गुजरात में कुछ दक्षिणपंथी नेताओं की हत्या की तथाकथित साजिश के आरोप में गिरफ्तार और 5 साल जेल की सजा काटने के बाद कोर्ट से बरी हुए अहमदाबाद के उमर फारूख का इसी फिल्म में यह बयान सुरक्षा एंजेसियों और सरकार के असली चरित्र को बेनकाब कर देता है- ‘सरकार पोल्ट्री फार्म के मालिक की तरह है और हम मुस्लिम लोग मुर्गियों की तरह है. जब भी पोल्ट्री फार्म के मालिक को भूख लगती है तो वो कोई भी एक मुर्गी उठा लेता है, उसे इससे मतलब नहीं कि वह मुर्गी कौन है.’
जेल में रहते हए जब भी कोई नया बन्दी आता और अगर वो गरीब, दलित या मुस्लिम होता तो मेरे दिमाग में उमर फारूख का यही बयान गूंजने लगता. पुलिस लॉकअप में जब मुझे एक दलित नौजवान मिला तो मैंने उससे पूछा कि तुम पर क्या चार्ज है, तो उसने बहुत बेचैनी से जवाब दिया- ‘पता नहीं. अभी तक तो बताया नहीं.’ अमरीका में यही हाल काले लोगों का है इसलिए वहां जनसंख्या का महज 13 प्रतिशत होने के बावजूद वहां की जेलों में उनकी संख्या 40 प्रतिशत के करीब है.
1992 में अमरीका के दो वकीलों ‘बैरी शेक’ और ‘पीटर न्यूफेड’ ने ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ की शुरूआत की. इस प्रोजेक्ट के पीछे का विचार यही था कि अमरीकी जेलों में जो बड़ी संख्या में निर्दोष बन्द है और उनमें से ज्यादातर काले हैं, (उनमें से कई तो मृत्यु दण्ड का इन्तजार कर रहे हैं) उन्हें निर्दोष साबित करना और जेलों से बाहर लाना. समय के साथ अनेक युवा आदर्शवादी वकील इस प्रोजेक्ट से जुड़ते चले गये और आज अमरीकी जेलों में बन्द निर्दोष लोगों के लिए इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट एक तरह से अंतिम आशा है.
2005 में आयी मशहूर डाकूमेन्ट्री ‘आफ्टर इन्नोसेन्स’ इस प्रोजेक्ट के महत्व और ताकत को बखूबी बयां करता है. इस फिल्म में 8 ऐसे केसों का ब्योरा है जिन्हें गलत तरीके से मृत्यु दण्ड दे दिया गया था, लेकिन ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ ने मुख्यतः डीएनए का इस्तेमाल करते हुए उन आठों लोगों को निर्दोष साबित किया और जेल से बाहर निकाल कर उन्हें उनके दोस्तों और परिवार के बीच पहुंचाया. इसके बाद ही वहां मृत्यु दण्ड के खिलाफ आवाज ने और जोर पकड़ा.
हमारे यहां धनजंय चटर्जी का केस आपको याद होगा, जिन्हें 2004 में बलात्कार और हत्या के एक मामले में फांसी दे दी गयी. कोलकाता के दो प्रोफेसरों ने इस केस की गहरी पड़ताल करके एक किताब (Court-Media-Society and The Hanging of Dhananjoy) लिखी है और धनजंय को पूरी तरह निर्दोष साबित किया है. लेकिन अब क्या हो सकता है. इसके अलावा ‘अफजल गुरू’ जैसे लोगों की फांसी का यहां जिक्र नहीं कर रहा हूं क्योंकि इस तरह की फांसी और कुछ नहीं बल्कि राजनीति हत्या है.
इसी साल नेटफ्लिक्स पर इसी प्रोजेक्ट पर आधारित एक सीरिज ‘दि इन्नोसेन्स फाइल’ शुरू हुई है, जो इस तरह के चुनिंदा केसों को सामने लाती है. इसकी पहली तीन कड़ियों को मशहूर ब्लैक डायरेक्टर ‘रोजर रास विलियम्स’ ने निर्देशित किया है. इसमें बहुत ही दमदार तरीके से यह दिखाया है कि कैसे काले लोगों के प्रति पूर्वाग्रह से भरी पुलिस व कोर्ट अपर्याप्त और विवादित फोरेन्सिक सबूतों के आधार पर लोगों को अपराधी साबित कर देती है.
‘लेवान ब्रूक’ का मामला दिलचस्प है. 15 सितम्बर 1990 को मिसीसीपी में एक तीन साल की बच्ची कोर्टनी स्मिथ का अपहरण हो जाता है. बाद में पता चलता है कि उसका बलात्कार करके उसे पास के ही एक तालाब में फेक दिया गया था. पुलिस की पड़ताल में शक की सुई कोर्टनी स्मिथ की मां के पुराने दोस्त लेवान ब्रूक की ओर जाती है. बच्ची कोर्टनी स्मिथ के शरीर पर दांत काटने का एक निशान है. इस निशान को लेवान ब्रूक के दांत के निशान से मिलाया जाता है और निशान ‘मैच’ कर जाता है. लेवान ब्रूक को आजीवन कैद की सजा हो जाती है.
16 साल जेल में बिताने के बाद लेवान ब्रूक को ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ के बारे में पता चलता है. लेवान जेल से ही ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ को पत्र लिखते हैं. ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ उनका केस अपने हाथ में लेता है. प्रोजेक्ट से जुड़े लोग घटनास्थल का दौरा करते हैं. उस फोरेन्सिक डेन्टल डाक्टर ‘मिशेल वेस्ट’ से मिलते हैं जिसने बच्ची के शरीर पर दांत काटे के निशान को लेवान ब्रूक के दांतो से मिलाया था. डा. मिशेल वेस्ट की रिपोर्ट के आधार पर ही लेवान ब्रूक को सजा सुनाई गई थी.
डा. मिशेल को इस बात का गर्व है कि उनकी इसी तरह की रिपोर्ट पर दर्जनों अन्य लोगों को भी लंबी लंबी सजाएं हुई है. डा. मिशेल यह मानने को तैयार नहीं कि यह विज्ञान फूलप्रूफ नहीं है और इसमें गलती की भरपूर गुंजाइश हैं. नेटफ्लिक्स की यह सिरीज इसी साल अप्रैल की है. इसलिए इसमें ‘ब्लैक लाइव मैटर’ की अनुगूंज भी साफ सुनाई देती है.
कार से जाते हुए जब कार की खिड़की से एक ‘कनफेडरेड मूर्ति’ (अमेरिका में गुलामी प्रथा खत्म होने से पहले दास-स्वामियों की मूर्ति) दिखाई देती है तो डा. मिशेल वेस्ट का पुराना दर्द उभर जाता है. वे बड़बड़ाने लगाते हैं- ‘आप इतिहास को मिटा नहीं सकते. इन मूर्तियों को गिराना मूर्खता है. ये हमारा इतिहास है.’
फिल्म के अंत में यह दृश्य पूरी फिल्म को एक नया अर्थ दे देता है. यहां मुझे चिन्मय तहाने की मशहूर फिल्म ‘कोर्ट’ का वह दृश्य याद आ गया, जहां दलित क्रांतिकारी गायक को सजा सुनाने के बाद अपने परिवार के साथ पिकनिक मना रहे जज के दकियानूसी विचारों से दर्शकों का सामना होता है और पूरी फिल्म को एक नया अर्थ मिलता है. बहरहाल ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ के प्रयासों से लेवान ब्रूक का डीएनए होता है और 16 साल जेल में बिताने के बाद उन्हें बाइज्जत बरी किया जाता है.
इसमें दिलचस्प तथ्य यह है कि बच्ची के शरीर पर जो दांत काटे का निशान बताया गया वह दांत के काटे का नहीं बल्कि जिस तालाब में उसे फेका गया था, उसमें एक खास प्रजाति की मछली के काटने का निशान था, जिसे डा. मिशेल वेस्ट ने लेवान ब्रूक का दांत काटा निशान साबित कर दिया. इसी तरह के एक अन्य केस में कुल 36 साल बाद व्यक्ति जेल से बाहर आया. यहां भी उसे डा. मिशेल वेस्ट के ‘दांत काटे निशान’ की रिपोर्ट के आधार पर ही सजा सुनाई गयी.
इसी तरह इस सीरीज की चौथी कड़ी में एक यौन उत्पीड़न के केस में गलत आइडेन्टिफिकेशन के कारण थामस हेनेसवर्थ को 74 साल की सजा हो गयी. ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ के प्रयासों से निर्दोष साबित होने के बाद थामस हेनेसवर्थ 27 साल जेल में बिताकर रिहा हुए. जिस व्यक्ति ने उनकी गलत पहचान की थी, उसने बाद में बताया कि ‘पुलिस को केस हल करने की जल्दी थी इसलिए पुलिस ने मेरे उपर दबाव बनाया कि मैं जल्दी पहचानू. मैं भी बार बार पुलिस थाने नहीं आना चाहता था इसलिए जो भी मुझे करीब का चेहरा दिखा, मैंने उस पर अपना हाथ रख दिया.’
इस कड़ी के डायरेक्टर ‘अलेक्स गिबने’ बहुत महत्वपूर्ण बात कहते हैं- ‘न्यायिक प्रक्रिया की सबसे बड़ी समस्या यह है कि सत्य या न्याय की तलाश किसी को भी नहीं है. सभी को तलाश सिर्फ केस जीतने की रहती है.’ यह कथन भारत पर भी हूबहू लागू होता है. ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ के संस्थापक सदस्य बैरी शेक और पीटर न्यूफेड न्याय व्यवस्था के बारे में सही ही कहते है- ‘पूरा पेशा, पूरा सिस्टम, इसकी पूरी कार्य प्रणाली सब बोगस है.’
‘दि इन्नोसेन्स फाइल’ की यह सीरिज देखते हुए और उसे भारत की परिस्थितियों से मिलाते हुए यह अहसास गहरा होता जाता है कि सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित तबके में जन्म लेने के कारण आपको ना सिर्फ ताउम्र अपने रोजी-रोजगार यानी अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है बल्कि मौजूदा परिस्थिति में निरंतर अपने आप को निर्दोष साबित करने का भी भागीरथ प्रयास करते रहना पड़ता है.
भारत में उन तमाम ‘विमुक्त जातियों’ (Denotified Tribes) के बारे में सोचिए इन्हें पैदाइशी अपराधी समझा जाता है. एटीएस रिमांड के दौरान एटीएस अधिकारियों ने मुझसे इसी बात पर बहस की कि विमुक्त जातियां सच में पैदाइशी अपराधी होती हैं ? लेकिन असल त्रासदी इस बात की है कि हमें अपने आपको उन लोगों के सामने निर्दोष साबित करना होता जिनके दिमाग तमाम पूर्वाग्रहों और दकियानूसी विचारों से बजबजा रहे होते है और जिनके दांतो में इंसानी गोश्त के टुकड़े फंसे होते हैं.
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