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मारुती मज़दूरों के साथ अदालत में घोर अन्याय हुआ है

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…क्योंकि शासक वर्ग द्वारा, मज़दूर वर्ग के विरुद्ध, यह एक युद्ध लड़ा गया था, एक वर्ग-युद्ध, जिसमें में मज़दूर हार गए और शासक, मालिक वर्ग जीत गया. ये, लेकिन, यह इस वर्ग-युद्ध का फाइनल, निर्णायक राउंड नहीं था. वह अभी लड़ा जाना है. इतिहास गवाह है; हार के बाद मज़दूर, लड़ने के लिए फिर उठते हैं; लेकिन, मज़दूर जीत गए तो मालिक लड़ने लायक़ नहीं बचते !
मारुती मज़दूरों के साथ अदालत में घोर अन्याय हुआ है
मारुती मज़दूरों के साथ अदालत में घोर अन्याय हुआ है

मारुती मज़दूरों का आंदोलन, वर्तमान सदी का, सबसे चर्चित आंदोलन है. 18 जुलाई, 2012 को, मारुती-सुजुकी के मानेसर प्लांट में आग लगी, जिसमें एक मेनेजर, अवनीश कुमार देव की जलकर मौत हो गई. उनके अलावा, प्रबंधन के 90 लोग ज़ख़्मी हुए. ज़ख़्मी मज़दूरों की तादाद काफ़ी ज्यादा थी लेकिन उनका सही आंकड़ा इसलिए नहीं पता चला, क्योंकि इस भयानक घटना के बाद मज़दूर डर गए थे, छुप गए थे और उन्होंने इलाज भी अपने स्तर पर चुपचाप कराए, अस्पताल में भर्ती नहीं हुए, कहीं उसी को सबूत बनाकर, पुलिस उन्हें दबोच ना ले.

फैक्ट्री में आग लगने और मेनेजर की दुर्भाग्यपूर्ण मौत के बाद, कंपनी प्रबंधन, मज़दूरों पर टूट पड़ा. सच्चाई जाने, जांच-पड़ताल किए बगैर, 2,500 मज़दूरों को बरखास्त कर दिया गया, जिनमें 546 स्थाई और बाक़ी ठेका मज़दूर थे. इस बहुत चर्चित मुक़दमे का फैसला 17 मार्च 2017 को आया. गुड़गांव सेसन जज, रविन्द्रपाल गोयल ने, 13 मज़दूरों; जिया लाल, राम मेहर, सुरेश ढल, संदीप ढिल्लों, सरबजीत सिंह, अजमेर सिंह, योगेश कुमार यादव, पवन कुमार दहिया, प्रदीप गुज्जर, सोहन कुमार, धनराज भाम्बी, अमरजीत कपूर एवं रामविलास को, अवनीश कुमार देव के क़त्ल का ज़िम्मेदार ठहराते हुए उम्र क़ैद की सजा सुनाई.

4 मज़दूरों को 5-5 साल की सज़ा हुई, 17 को, जितना वक़्त जेल में काटा उतनी सजा सुनाई गई और वे रिहा कर दिए गए. 64 मज़दूर, आज तक गिरफ़्तारी से बचने के लिए फ़रार हैं. उम्र क़ैद की सज़ा काट रहे 2 और फ़रार मज़दूरों में 2 की मौत हो चुकी है. 117 मज़दूरों को अदालत ने बेक़सूर ठहराकर बा-इज्ज़त रिहा किया.

मज़दूर और मालिक के बीच, ‘वर्ग-संघर्ष’ के रूप में विख्यात इस मुक़दमे में देश भर के लोगों का दिलचस्पी लेना स्वाभाविक था. अनेकों पत्रकारों, मज़दूर कार्यकर्ताओं, लेखकों, पीयूडीआर, विशेष जांच समिति, ऐसी अनेकों रिपोर्ट्स आज उपलब्ध हैं. प्रतिष्ठित लेखकों, अंजली देशपांडे और नंदिता हक्सर की शोधपूर्ण पुस्तक ‘जापानीज मैनेजमेंट इंडियन रेजिस्टेंस’ प्रकाशित हो चुकी है. इस सारी शोध-सामग्री के आलोक में, घटना के पूरे 11 साल बाद, हम इस मुक़दमे की हक़ीक़त जानने की सही स्थिति में हैं.

इस संघर्ष के दो पहलू हैं. पहला; वह दम-घोटू, अपमानजनक परिस्थिति, जो मज़दूरों की उत्पादकता बढ़ाने और लागत-खर्च कम करने के नाम पर पैदा की गई. चाय विश्राम के 7.5 मिनट में जीते-जागते इंसान की, जिस तरह अपमानजनक फिरकनी बनाई गई, उसमें कोई भी जिंदा इंसान विद्रोह करे बगैर रह ही नहीं सकता. यह बहुत अहम पहलू है, लेकिन यह इस लेख की विषय-वस्तु नहीं है.

दूसरा पहलू; जिसकी तथ्यात्मक परख करना हमारा मक़सद है, वह है, क्या अदालत का फ़ैसला, उपलब्ध सबूतों के वैज्ञानिक, तथ्यपरक विश्लेषण, गवाहों के बयानों, ज़िरह, न्याय की नैसर्गिक प्रक्रिया का नतीज़ा था; या बयान और सबूत प्रस्तुत करने वाला कौन है, कितना बड़ा सरमाएदार है, कितना बड़ा वकील है, कितनी फीस लेता है, इस बात से तय हुआ ? अपराध में प्रेरक (motive) और परिस्थतिजन्य सबूत-साक्ष्य बहुत महत्वपूर्ण होते हैं.

क्या सच में, इन पहलुओं का समुचित सम्मान करते हुए, इंसाफ करने की मंशा से, फ़ैसला सुनाया गया, या इस पूरे मुक़दमे में, ये तथ्य निर्णायक बना कि इन मज़दूरों की जुर्रत कैसे हुई कि इतनी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी के सामने खड़े हों ? यूनियन बनाने की हिमाक़त करें ?? इस ‘अपराध’ के लिए इन्हें ऐसा सबक़ सिखाया जाए कि बाक़ी मज़दूरों में भी दहशत गाफ़िल हो !! धनाड्य जापानी सरमाएदार के साथ, हरियाणा सरकार, केंद्र सरकार ना सिर्फ खड़ी हुईं, बल्कि वकीलों पर पैसा पानी की तरह बहाया गया. औद्योगिक विवाद को आपराधिक विवाद में बदल डाला गया.

कौन थे, अवनीश कुमार देव ?

अवनीश कुमार देव को मारुती-सुजुकी के मज़दूर क्यों मारना चाहते थे ? मौत के ठीक 3 दिन बाद, 21 जुलाई 2012 को, अवनीश कुमार देव के भाई ने इकोनोमिक टाइम्स को ये बयान दिया था –

‘मानेसर प्लांट में पिछले कुछ वक़्त से तनाव सुलग रहा था और अवनीश ने इस्तीफा दे दिया था. वे, सुलग रहे बवंडर को भांप कर, बहुत तनाव में रहते थे. वे दूसरी कंपनी ज्वाइन करने जा रहे थे, लेकिन कंपनी के अधिकारियों ने उन्हें कुछ दिन रुकने के लिए मना लिया था. हम अब बिलकुल पक्के तौर से कह सकते हैं कि मेरे भाई पर हमला पूर्व-नियोजित था. वर्ना इतने कम समय में, कंपनी द्वारा 3,000 लोगों को बुलाना कैसे संभव हुआ ? हमारे 80 वर्षीय पिताजी, रामेश्वर साहा ने इस घटना की सीबीआई जांच की मांग की है.’

क्या मज़दूर, उस मैनेजर का क़त्ल करना चाहते थे जो 6 महीने पहले इस्तीफा दे चुका था ? कंपनी छोड़ना चाहता था ? कंपनी में सुलग रहे गुस्से को भांपकर बेहद तनाव में रहता था ?

दूसरा, सबसे गंभीर तथ्य ये है कि घटना के दिन, दूसरी पाली में, जिसमें आग लगी, कंपनी ने लगभग 150 बाउंसर बुलाए थे, जो मज़दूरों की यूनिफ़ॉर्म पहनकर कंपनी में दाख़िल हुए थे. मज़दूरों ने, अदालत में एक याचिका दी थी कि इन बाउंसरों ने मज़दूरों को नहीं, बल्कि मैनेजरों को पीटना शुरू किया और कई जगह आग भी लगाई. प्रबंधन में तीखी गुटबाज़ी थी. अवनीश कुमार को, दूसरे मैनेजर के कहने से पीटा गया, जो उनसे खुन्नस रखता था. उसने बौंसर्स को बोला कि अवनीश की टांगें तोड़ दो और कमरे में आग लगा दो.

मज़दूरों की याचिका अदालत ने खारिज कर दी लेकिन इससे उपजे कई सवाल आज भी अनुत्तरित हैं. मज़दूरों की याचिका ग़लत हो सकती है, लेकिन 150 बाउंसर, उस दिन दूसरी पाली में आए, इस बात का खंडन कंपनी ने भी नहीं किया. इन बौंसर्स को बुलाने का क्या प्रायोजन था ? अगर असुरक्षा व्याप्त थी, झगड़े की आशंका थी, तो पुलिस बुलाई जानी चाहिए थी या भाड़े के बाउंसर ? शांति भंग की आशंका होने पर बाउंसरों को बुलाना, क्या ज़मीदारों द्वारा ‘रणवीर सेना’ का सहारा लेने जैसा नहीं है ? ऐसा करना, क्या देश की कानून व्यवस्था पर अविश्वास ज़ाहिर करना नहीं है ?

प्लांट में आग लगी, कई लोग उसमें जले, लेकिन किसी को भी गंभीर बर्न इंजरी नहीं हुई. अकेले अवनीश कुमार देव, इतने कैसे जल गए कि उनका शरीर राख हो गया और उनकी पहचान भी उनके कृत्रिम दांत से हुई ? इतने सारे बाउंसर मौजूद थे, वे एक व्यक्ति को उस कमरे से बाहर नहीं ला सके, जो अंदर जल रहा था, ऐसा क्यों ? परिस्थितिजन्य सबूत, क्या उस आरोप को सही सिद्ध करते दिखाई नहीं दे रहे, जो मज़दूरों ने अदालत में दायर अपनी पेटिसन में लगाए थे ?

पेटिसन में कहा गया था कि अवनीश कुमार देव मज़दूरों के यूनियन बनाने के अधिकार का समर्थन करते थे, और वे एक बार यूनियन पदाधिकारियों के साथ चंडीगढ़ भी गए थे. इस वज़ह से प्रबंधन का एक धड़ा और एक खास मैनेजर, उनसे खुन्नस खाते थे और मज़दूरों के साथ, उन्हें भी सबक़ सिखाना चाहते थे इसलिए बौंसर्स से उनकी टांगें तुड़वाई गईं, जिससे वे सरक भी ना सकें. आग लगने के हादसों में देखा गया है कि जलता हुआ व्यक्ति, अपनी जान बचाने के लिए, कई मंज़िल ऊपर से भी, खिड़की से बाहर छलांग लगा देता है, जबकि वह जानता है कि ऐसा करना जान-लेवा साबित होगा. युवा अवनीश क्यों कुछ नहीं कर पाए और अपने कमरे में जलकर राख हो गए ?

उम्र क़ैद पाए, 13 के 13 मज़दूर, यूनियन पदाधिकारी हैं. यूनियन के लोग मिलकर, आंदोलन या विरोध का कार्यक्रम बना सकते हैं, उस पर अमल भी कर सकते हैं, ये बात सही है. एक ऐसा झगड़ा, जिसमें प्रबंधन के अनुसार ही, हज़ारों मज़दूरों ने भाग लिया, 150 बाउंसर, सिक्यूरिटी गार्ड, सैकड़ों मैनेजर तथा अन्य प्रबंधकीय शामिल थे, मार-पिटाई कई घंटे चलती रही, आग लगी, अफरा-तफ़री मची, फिर भी 13 के 13 यूनियन पदाधिकारी, अवनीश कुमार देव की हत्या करने के षडयंत्र पर अटल रहे. उनमें ना कोई कम हुआ और ना उनमें कोई शामिल हुआ !! है न दिलचस्प वाक़या !!

परिस्थितिजन्य सबूतों को और बारीकी से परखा जाए तो 18 जुलाई को, झगड़ा भड़काने की भी, कंपनी मैनेजमेंट की एक सुनियोजित योजना सिद्ध हो जाती है. जिया लाल, एक अत्यंत निर्धन दलित परिवार से आते थे. उनके पिता ने क़र्ज़ लेकर उन्हें आईटीआई कराई थी. उनकी ड्यूटी उस दिन पहली शिफ्ट में थी. चाय विश्राम के दौरान, सुपरवायज़र, संग्राम कुमार मांझी, उन्हें बार-बार जातिसूचक, बेहद अपमानजनक, भड़काऊ गालियां तब तक देते गए, जब उन्होंने गुस्से में भड़ककर उसका गिरेहबान नहीं पकड़ लिया. जियालाल को सस्पेंड कर दिया गया और वे अपने घर चले गए. दूसरी शिफ्ट में शाम को जब प्लांट में आग लगी, वे 25 किमी दूर अपने घर पर थे. ये बात अदालत में साबित भी हुई, लेकिन उन्हें भी आजीवन कारावास की सज़ा हुई. सज़ा के दौरान ही उनकी मौत हुई और उनकी लाश ही जेल से बाहर आई.

पीयूडीआर की रिपोर्ट

PUDR के प्रतिष्ठित पत्रकारों, शशि सक्सेना और शाहना भट्टाचार्य द्वारा, अदालत के फैसले की महत्वपूर्ण समीक्षा पर आधारित शोध रिपोर्ट, ‘A Pre-Decided Case: A Critique of the Maruti Judgement of 2017’, फैसले के एक साल बाद, 9 मार्च, 2018 को, एक प्रेस नोट के साथ प्रकाशित की. यह रिपोर्ट, इस मुक़दमे में हुए ‘इंसाफ’ की पोल खोलकर रख देती है. इस अपराध की एफआईआर 184/2012, मानेसर पुलिस स्टेशन में, 18 जुलाई 2012 को रात 11 बजे, महाप्रबंधक सतर्कता, दीपक आनंद ने दर्ज कराई. वे स्वयं, चश्मदीद गवाह न 29 थे.

अदालत में, वे पहले बोले कि सारा झगड़ा उनकी आंखों के सामने हुआ है. ज़िरह में साबित हुआ कि वे झूठ बोल रहे हैं. फिर वे बोले कि उन्होंने सारी वारदात सीसीटीवी कैमरों पर देखी, जबकि दूसरे गवाह ये साबित कर चुके थे कि सीसीटीवी कैमरे जल चुके थे. वे सिर्फ़ एक आरोपी यूनियन अधिकारी को ही पहचान पाए. वे, आगे फ़रमाते हैं कि मज़दूर हथियारबंद थे. उनके हाथों में लाठियां, बेलचा और लोहे के सरिए थे. अगले दिन बोले, ऐसा कुछ नहीं, बल्कि डोर बीम और कारों में लगने वाले शोकर्स थे. बचाव पक्ष ने इन मुद्दों को बार-बार उठाया लेकिन जज साहब नज़रंदाज़ करते गए.

इतना ही नहीं, अभियोजन पक्ष के गवाह नं. 18 से 28 के बयानों में गंभीर तथ्यात्मक उलटफेर, बचाव पक्ष के वकील, आर. एस. चीमा, रेबेका जॉन तथा वृंदा ग्रोवर, अदालत के सम्मुख लाने में कामयाब रहे, लेकिन जज साहब पर कोई फर्क नहीं पड़ा. अभियोजन पक्ष का एक भी गवाह यह साबित नहीं कर पाया कि प्लांट में आग मज़दूरों ने लगाई और अवनीश देव को मज़दूरों ने मारा, लेकिन जज साहब ने एक विचित्र रुख अपनाते हुए, मुक़दमे की इन गंभीर कमजोरियों को ना सिर्फ ‘मामूली विसंगतियां’ कहा, बल्कि न्यायप्रणाली के आधारभूत नियम को ही पलट डाला –

‘चूंकि मज़दूर, ये साबित नहीं कर पाए कि उन्होंने आग नहीं लगाई और मैनेजर की मौत के लिए वे ज़िम्मेदार नहीं थे, इसलिए अभियोजन पक्ष का कहना ठीक है वे ही आगजनी और क़त्ल के गुनहगार हैं !!’

मतलब आरोपों को, आरोपकर्ता सिद्ध नहीं करेगा, बल्कि आरोपी ख़ुद को बेक़सूर साबित करेगा !! न्याय की आधारभूत नैसर्गिक बुनियाद है – ‘भले 100 क़सूरवार छूट जाएं, लेकिन किसी बेक़सूर को सज़ा नहीं होनी चाहिए’. अभियोजन गवाह नं. 101, नितिन सारस्वत ने अदालत में कबूल किया कि उन्होंने 89 मज़दूरों की लिस्ट, पुलिस की मौजूदगी में लेबर ठेकेदारों को सौंपी. इनमें कई ठेकेदारों को, चश्मदीद गवाह बनाया गया लेकिन वे अदालत में किसी को भी नहीं पहचान पाए.

अवनीश कुमार देव, जलकर रख हो गए, जबकि उनके पास से माचिस सही-सलामत बरामद हुई !! मतलब बंदा जल गया, लेकिन माचिस का बाल-बांका नहीं हुआ !! PUDR शोध रिपोर्ट द्वारा प्रकाश में लाया गया एक और पहलू, रेत पर खड़े इस मुक़दमे को पूरी तरह ढहाकर रख देता है. क़त्ल के मुक़दमे में, क़ातिल से, क़त्ल के हथियार/औज़ार की बरामदगी बहुत महत्वपूर्ण होती है. किसी भी मज़दूर से, किसी औज़ार/हथियार की बरामदगी नहीं हुई. बचाव पक्ष इस मुद्दे को बार-बार जज साहब के संज्ञान में लाया कि हथियारों के विवरण लगातार बदलते गए, फिर भी किसी भी हथियार की बरामदगी 13 आरोपियों में से किसी से भी नहीं हुई. लेकिन जज साहब ने अभियोजन पक्ष का ये तर्क भी स्वीकार कर लिया कि मज़दूर, हथियारों को अपने घर ले गए, इसलिए उनकी बरामदगी ना होने की बात की कोई दख़ल ना ली जाए.

पीयूडीआर रिपोर्ट, ये सच्चाई, निर्विवाद रूप से प्रस्थापित कर पाई, कि ‘पुलिस जांच अधिकारी, प्रचंड अमीर सरमाएदार मालिक, राज्य-केंद्र सरकारें’ मिलकर काम करते रहे और जज साहब, उनके बयानों को ‘परम सत्य’ मानकर चलते रहे. न्याय का प्रहसन चलता रहा. इतना ही नहीं अदालत में, यूनियन लीडर और अन्य आरोपियों के साथ अलग-अलग व्यवहार किया गया. यूनियन नेताओं के मामले में तो बचाव पक्ष की किसी भी दलील को अदालत सुनने को ही तैयार नहीं थी. PUDR प्रेस नोट का अंतिम पैरा इस तरह है –

‘मौजूदा मुक़दमे की तरह, पहले से ही तय फ़ैसलों का ख़तरा ये है, कि इनसे देश भर के मज़दूरों को ये सन्देश बहुत ज़ोरदार तरीके से जाता है कि उन्हें पूंजी का हुक्म मानना होगा. पूंजी को ये छूट देता है, कि वह देश के किसी भी क़ायदे-क़ानून का खुला उल्लंघन करने के लिए आज़ाद है. मारुती के मज़दूरों का, कंपनी की स्थापना के वक़्त से ही, अपने अधिकारों के लिए बेख़ौफ़ लड़ने का शानदार इतिहास रहा है, इसलिए उन्हें सबक़ सिखाया जाना ज़रूरी था. इस आन्दोलन के शुरुआती दौर में, मज़दूर कार्यकर्ताओं ने तबादले, सस्पेंसन और बरखास्तगी झेले थे. इस बार, लेकिन, उन्हें, आजीवन कारावास के रूप में, बड़ी सज़ा दी जानी थी, क्योंकि उन्होंने अपनी यूनियन बनाने की जुर्रत की थी.’

हरियाणा सरकार द्वारा गठित ‘विशेष जांच टीम’ (SIT) ने अपनी जांच में, 546 बरखास्त स्थाई मज़दूरों में से, 412 को बेक़सूर पाया, लेकिन कंपनी ने उन्हें भी काम पर नहीं लिया. अदालत ने, जिन 117 मज़दूरों को बिलकुल बेक़सूर पाया और बा-इज्ज़त रिहा किया, उन्हें भी कंपनी ने काम पर नहीं लिया – ‘इन मज़दूरों ने भी कंपनी का विश्वास खो दिया है.’ बिलकुल यही होना था, क्योंकि शासक वर्ग द्वारा, मज़दूर वर्ग के विरुद्ध, यह एक युद्ध लड़ा गया था, एक वर्ग-युद्ध, जिसमें में मज़दूर हार गए और शासक, मालिक वर्ग जीत गया. ये, लेकिन, यह इस वर्ग-युद्ध का फाइनल, निर्णायक राउंड नहीं था. वह अभी लड़ा जाना है. इतिहास गवाह है; हार के बाद मज़दूर, लड़ने के लिए फिर उठते हैं; लेकिन, मज़दूर जीत गए तो मालिक लड़ने लायक़ नहीं बचते.

  • सत्यवीर सिंह

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