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उदासीनता अपराध से भी भयंकर होती है

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‘उदासीनता बहुधा अपराध से भी भयंकर होती है.’ — प्रेमचंद
उदासीनता अपराध से भी भयंकर होती है
उदासीनता अपराध से भी भयंकर होती है
Subrato Chatterjeeसुब्रतो चटर्जी

उदासीनता एक चारित्रिक रोग है. संभवतः इसीलिए प्रेमचंद ने लिखा था – ‘उदासीनता बहुधा अपराध से भी भयंकर होती है.’ आपने देखा होगा पिछले दस सालों में भारत की आम जनता बहुत सारे ऐसे मुद्दों के प्रति उदासीन हो गई है, जो पहले उसके मन में तूफ़ान ला देता था. मसलन, हत्या, बलात्कार, ट्रेन दुर्घटना, प्राकृतिक आपदा, नियुक्ति घोटाले, आतंकवादी हमले जैसे सैकड़ों ऐसे मामले थे जिन पर जनता का ग़ुस्सा सड़कों पर आ जाता था.

अगर सामाजिक मनोविज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो ऐसा इसलिये होता था कि ऐसी घटनाएं पहले अपवादस्वरूप होतीं थीं, नियम अनुसार नहीं. जब अपवाद नियम बन जाए तो उसकी मनोवैज्ञानिक स्वीकृति भी नियम बन जाता है. एक उदाहरण से आपको समझाता हूं.

किसी भी लंबी अवधि तक चलने वाली लड़ाई या युद्ध के शुरुआती दिनों में जनता के मन में एक भयंकर ग़ुस्से का प्रवाह होता है, जो समय के साथ साथ मंद पड़ जाता है. हालिया इज़राइल के ग़ज़ा पट्टी पर हमले के क्षेत्र में हमने यही देखा है. शुरुआती दिनों में इसकी घोर निंदा की गई और दुनिया भर के लोग इस जघन्यतम नरसंहार के विरुद्ध खड़े हो गए.

इस नरसंहार को शुरू हुए आज क़रीब एक साल होने को चला है. नरसंहार आज भी जारी है, लेकिन विरोध की आवाज़ें मंद पड़ गई हैं. क्यों ? क्या मनुष्य ने नरसंहार को जायज़ मान लिया है ? नहीं, हत्या और नरसंहार के पक्ष में आज भी दुनिया के 99 प्रतिशत लोग नहीं हैं, फिर ये उदासीनता क्यों ? इसका उत्तर है – conditioning.

जिस तरह हम बदलते मौसम के साथ साथ अपने मन मस्तिष्क और शरीर को adjust कर लेते हैं, उसी तरह से हम बदलते हुए राजनीतिक, सामाजिक, तकनीकी और अन्य परिवेश के साथ भी adjust कर लेते हैं. यह adjustment समाज में एक inertia की स्थिति उत्पन्न कर देती है, जो धरातल पर उदासीनता के रुप में दिखाई देती है.

मसलन, साल में एकाध रेल दुर्घटना हो तो हम लाशों को गिनते हुए सिहर उठते हैं, लेकिन जब महीने में बारह हों तो हमें लाशें गिनने की फ़ुरसत नहीं मिलती है और हम उदासीन हो जाते हैं. विसंगतियों और मृत्यु के प्रति इस निरपेक्षता या उदासीनता को पैदा करने के लिए ऐसी दुर्घटनाओं की त्वरित पुनरावृत्ति आवश्यक है.

हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम के असर की लिस्ट बनाते हुए जब लेखक थक जाता है, तब कहता है कि ‘a long litany of disaster defeats its own purpose.’ मतलब, विभीषिका का विस्तृत विवरण मनुष्य के मन से विभीषिका के असर को ही कम कर देता है.

ठीक इसी तरह से पिछले दस सालों में हत्या, बलात्कार, सार्वजनिक संस्थाओं के पतन, न्यायपालिका का पतन, सांविधानिक संस्थाओं की मृत्यु, सांप्रदायिक दंगों में मौतें, चुनावी धांधली, विधायक सांसदों की ख़रीद फ़रोख़्त, बेईमान धंधेबाज़ों की प्रधानमंत्री द्वारा निर्लज्ज दलाली और जनविरोधी नीतिगत फ़ैसले, बेरोज़गारी, महंगाई और अनिश्चित भविष्य का डर धार्मिक पाखंड के साथ इतना common हो गया है कि भारत की एक विशाल जनता इन सबके प्रति उदासीन हो गई है.

उम्मीद की बात यह है कि आदमी देर सबेर अपनी उदासीनता से भी उकता जाता है और जब यह होता है तब वही दस दिन लौट कर आते हैं जब दुनिया हिल उठती है. Never take Man for granted. जो शासक इस साधारण सत्य को नहीं समझते हैं वे या तो बंकर में आत्महत्या करने के लिए मजबूर किये जाते हैं या सड़कों पर घसीट कर मार दिये जाते हैं. चुनाव उनका है और इस तरह की मौतों को आदमी सदियों तक याद रखता है.

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