सुब्रतो चटर्जी
दिल्ली में उत्तर प्रदेश (और बिहार भी) के बहुत सारे लोग रहते हैं. इनमें से ज़्यादातर दस बारह हज़ार की नौकरी करने वाले फटेहाल, रिक्शा, ठेला खोमचे वाले और कुछ पढ़े-लिखे लोग भी हैं, जो बेहतर ज़िंदगी जी रहे हैं. इसी तरह दिल्ली में बहुत सारे बंगाली भी रहते हैं, कुछ फटेहाल तो कुछ बेहतर. आदतन, मैं ग़रीबों और अशिक्षित या अल्प शिक्षित लोगों से ज़्यादा मिलता जुलता हूं क्योंकि ज़मीनी सच इनके बीच से ही निकलता है.
जब बंगाल का चुनाव हो रहा था तो मैं बंगाली समुदाय के ग़रीबों, निम्न मध्यम वर्ग और कम पढ़े-लिखे लोगों की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश करता था. चूंकि बंगाल चुनाव को भाजपा ने और विशेष रूप से मोदी ने अपनी प्रतिष्ठा (?) का प्रश्न बना दिया था और हिंदी गोदी मीडिया का धुंआधार प्रचार चल रहा था. मुझे अपने समुदाय की प्रतिक्रिया जानने की बहुत इच्छा थी.
दो बातें जो मैंने उस समय ग़ौर की वे यह कि पहले तो बंगाली गरीब और निम्न मध्यम वर्ग हिंदी न्यूज़ चैनल ज़्यादा नहीं देखता. बंगाली उच्च मध्यम वर्ग और धनी वर्ग हिंदी न्यूज़ चैनल ज़्यादा देखते हैं. दूसरी बात, बंगाली उच्च और उच्च मध्यम वर्ग हिंदी बेल्ट के लोगों जैसा ही सांप्रदायिक होने के नाते भाजपा समर्थक हैं. ग़रीबों और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के बीच हिंदी न्यूज़ चैनल देखने का रिवाज न के बराबर है. इस श्रेणी के लोगों में कोई सांप्रदायिक घृणा भी नहीं है और ये लोग पूरी तरह से ममता बनर्जी के साथ खड़े थे.
उसी समय मैंने अजीत अंजुम का एक कार्यक्रम नंदीग्राम से देखा. उस कार्यक्रम में मैंने एक आठवी पास चार बीघा खेत के मालिक को जीवनानंद दाश, टैगोर, नज़रुल इस्लाम और अन्य बांग्ला के साहित्यिक विभूतियों को कोट करते हुए अपनी बात कहते हुए सुना. वह नंगा शख़्स शेक्सपीयर को भी उद्धृत कर रहा था. सोनार बांग्ला के भाजपाई नारे को टैगोर से जोड़ने की संघी मूर्खता पर उसने सही कहा कि ‘यह उपमा बंगाल के मूर्द्धन्य नाटककार गिरीश चंद्र घोष का दिया हुआ था.’
इतना सब होम वर्क करने के बाद मैं बंगाल चुनाव के नतीजे के बारे आश्वस्त हो गया था. उस खेत मज़दूर की राजनीतिक चेतना मुझे हिंदी प्रदेश के अनेक तथाकथित विद्वानों में भी नहीं दिखती. जिनको संदेह है, अजीत अंजुम से पूछ लें.
अब आते हैं उत्तर प्रदेश चुनाव पर. इस समय मैं ज़्यादा से ज़्यादा उत्तर प्रदेश के ग़रीबों और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों से बात कर रहा हूं. नब्बे प्रतिशत लोगों का कहना है कि योगी ने बहुत अच्छा काम किया है और मोदी जैसा प्रधानमंत्री आज तक देश में नहीं हुआ. जब मैं पूछता हूं कि योगी ने क्या काम किया है तो किसी के पास कोई जवाब नहीं है.
अधिक कुरेदने पर ये बात उभर कर आती है कि योगी ने मुल्लों को टाइट रखा है. मैंने कुछ लोगों से जानना चाहा कि गोरखपुर से ले कर कोरोना काल में हुए लाखों लोगों की मौत के लिए यूपी सरकार ज़िम्मेदार है कि नहीं, तो जवाब नहीं मिलता. इसी तरह मोदी ने जनता के लिए क्या किया है, पूछने पर राम मंदिर और धारा 370 की बात करते हैं.
भारत के दो मुख़्तलिफ़ हिस्सों में रहने वाले दो मुख़्तलिफ़ ज़ुबान कहने वाले लोगों का मानसिक और राजनीतिक चेतना का स्तर हैरान करने वाला है. भुखमरी, फटेहाली झेलने वाले लोगों की कोई कमी भारत के किसी हिस्से में नहीं है, लेकिन इनके कारणों की राजनीतिक समझ में बहुत बड़ा अंतर दिखता है.
जब इसके कारण पर सोचता हूं तो बस एक ही वजह दिखाई देता है – हिंदी प्रदेशों का पूर्ण सांप्रदायिककरण. संघियों ने पूरे देश में उत्तर प्रदेश के अयोध्या को यूं ही नहीं चुना था, वरना सोमनाथ को तो मुहम्मद गोरी ने बहुत पहले ही गिराया था जबकि मीर बकी ने कोई मंदिर नहीं गिराया था. हिंदी भाषियों की मूर्ख बनने की असीम क्षमता पर चितपावन क्रिमिनल लोगों का भरोसा बिल्कुल जायज़ था.
अब जब तालिबान को अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने कमोबेश मान्यता दे ही दे दी है तो कुछ सवाल पूछना लाज़िमी है. पहला यह कि क्या शक्ति संतुलन के बदलते मिज़ाज के साथ साथ आतंकवाद की परिभाषा बदल गई है ? अगर ऐसा हुआ है तो इसमें पश्चिमी ताक़तों का कितना योगदान है ? क्या भारत की नपुंसक फ़ासिस्ट सरकार और 56″ के पिछवाड़े वाले सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री ने यह मान लिया है कि when the rape is inevitable, just enjoy it ? (जब बलात्कार अपरिहार्य हो, तो बस इसका आनंद लें ?)
तीसरा सवाल ये है कि क्या भारत वाक़ई इतना कंगाल हो चुका है कि मात्र तीस हज़ार करोड़ रुपये के नुकसान की भरपाई करने के लिए तालिबान के पैर कुत्ते की तरह चाटने के लिए मजबूर हो जाए ? दरअसल, तीसरा सच है.
जिस देश की तीन चौथाई जनता मोदी झोला पर निर्भर है, जिस देश की तीन चौथाई युवा बेरोज़गार है, जिस देश की तीन चौथाई जनता ग़रीबी रेखा के नीचे धकेल दिए गए हैं, उस देश के सरकार के पास कोई पसंद नहीं बचता है. मोदी सरकार और खुद नरेंद्र मोदी भी भूखे, जर्जर कुत्ते की तरह अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया के इंतज़ार में बैठने के लिए बाध्य है.
किसी भी देश की विदेश नीति उस देश की अंदरूनी परिस्थितियों से तय होती हैं, ये हमारे देश के गदहों की समझ में नहीं समाती. भूटान की अंतरराष्ट्रीय नीति भारत से अलग नहीं हो सकती क्योंकि कलकत्ता एयरपोर्ट पर अगर भारत सरकार उसके डीपो को बंद कर दें तो भूटान नरेश (?) भूखा सोएगा.
ठीक वही स्थिति आज अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भारत की है. अगर FDI के ज़रिए भारतीय शेयर बाज़ार में पैसा नहीं आया तो मोदी को भी मशरूम खाने को ज्यादा दिनों तक नहीं मिलेगा. अंबानी अदानी सारे इसी अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के कुत्ते हैं, और कुछ नहीं. असल ताक़त न मोदी में है, न उसे कुत्ते जैसा पालने वाले अंबादानी में है, असल ताक़त भारत की जनता के पास है. लेकिन, अफ़सोस, बीच में एक गोबरपट्टी है.
बहुत दिनों पहले मैंने एक वन लाईनर दिया था – सबसे बड़ा अजूबा है जींस और पैंट पहने सूटेड बूटेड अत्याधुनिक दिखने वाले मुस्लिम लड़कों के साथ खड़ी बुर्क़ा पोश महिलाएं. आपको ये दृश्य किसी भी पब्लिक प्लेस में दिख जाएगा..इस तस्वीर की विडंबना पर रोशनी डालने की ज़रूरत ही नहीं है.
तालिबान के समर्थन में सोशल मीडिया, मुस्लिम धर्म संस्थान और कुंठित शायर इत्यादि को पढ़ते हुए इस तस्वीर के असल मायने और भी उजागर हो रहा है.
औरतों को ‘चीज़’ समझने वाली मानसिकता के पुरुष जितने मुस्लिम लोगों में हैं, उतना किसी दूसरे धर्म में नहीं.
पुरुष प्रधान समाज दुनिया के बड़े हिस्से में विभिन्न आर्थिक और सामाजिक कारणों से है, लेकिन धार्मिक कारणों से औरतों को ग़ुलाम बना कर रखने की मानसिकता सिर्फ़ और सिर्फ़ मुस्लिम समाज में पाया जाता है.
मैं जानता हूँ कि मेरे ऐसा लिखने पर इस्लाम के तथाकथित आलिम मुझे क़ुरान, शरिया और हदीस का ज्ञान देने आएंगे और बताएंगे कैसे इस्लाम औरतों के हक़ में खड़ा है. उनसे मेरा नम्र निवेदन है कि किताबी बातों को हक़ीक़त की ज़मीन पर पहले परखें और फिर ज्ञान बांटने चलें.
बात जब तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान की चलती है तब हमारे देश के मुसंघी ऐसे उछलते हैं कि मानो पूरी दुनिया में अब इस्लाम का राज हो चुका है और शरिया लागू हो चुका है..आज़ादी के बाद के भारत में मुस्लिम लोगों के साथ जिस तरह का सौतेला व्यवहार किया गया उसके मद्देनज़र मैं उनकी भावनाओं के स्रोत को समझ सकता हूं.
मैं ये भी समझता हूं कि विभाजन के समय मौलाना आज़ाद और गांधी नेहरू के कहने पर जो मुस्लिम भारत छोड़ कर पाकिस्तान नहीं गए वे आज के निजाम में खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं. ये ख़ासकर और भी संगीन शक्ल अख़्तियार कर लेता है जब इस मुल्क का वज़ीर ए आज़म आज़ादी के पूर्व संध्या पर जनता को विभाजन की विभीषिका की याद दिला कर हिंदुओं को मुसलमानों को मारने के लिए खुल कर भड़काता है.
जब ऐसी बातें होती हैं तो अकलियतों के ज़ेहन में उन क़त्लोगारद की यादें ताज़ा हो जाती हैं, जिनके शिकार ये आज भी हो रहे हैं. हाशिमपुरा, मुज़फ़्फ़रनगर, भागलपुर से ले कर अख़लाक़ तक सब कुछ दिमाग़ में घूम जाता है.
इस डरे हुए ज़ेहन में इस बात का तसव्वुर भर भी कि हिंदू कुश के पार कहीं पर आतंकवादियों के एक छोटे से ग्रुप ने अमरीका जैसे महाशक्ति को हरा दिया, उनके लिए एक अथाह शक्ति का स्रोत बन जाता है. वे समझने लगते हैं कि इस्लाम की ताक़त और अल्लाह की मर्ज़ी से ये सब कुछ हुआ.
यह एक ख़तरनाक मानसिकता को जन्म देता है. यह उस सोच को जन्म देता है जिसे आम तौर पर जिहादी मानसिकता कहते हैं. इस सोच का कोई तार्किक आधार नहीं है. इस सोच के अधीन दिमाग़ ये समझ नहीं पाता कि अफ़ग़ानिस्तान की लड़ाई किसी की आज़ादी की लड़ाई नहीं है. इसके ठीक उलट अफ़ग़ानिस्तान की लड़ाई राजनीतिक, सामरिक वर्चस्व और देश की आधी आबादी को ग़ुलाम बनाने की लड़ाई है.
तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में मुल्ला मौलवियों के राज के लिए लड़ रहे हैं. तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में भूमि सुधार, जम्हूरियत और तालीम के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं. तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में काफ़ी हद तक पाकिस्तान की ग़ुलामी के लिए लड़ रहे हैं. हक़ीक़त में तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में हर उस चीज़ के लिए लड़ रहा है जो मूलतः प्रतिगामी और घृणित है. तालिबान के लड़ाके किसी भी सभ्य समाज में रहने लायक़ भी नहीं हैं.
तालिबान समर्थक तत्वों को भारत सरकार की उस चुप्पी से भी बल मिलता है, जब वह खुल कर तालिबान को आतंकवादी नहीं कहती है. ऐसे में अगर मुनव्वर राना तालिबान को आतंकवादी नहीं मानते तो किसी को बुरा क्यों लगता है ?
सच तो ये है कि लाल शर्ट पहने ख़ुदाई ख़िदमतगारों ने जिस आज़ादी और जम्हूरियत का सपना कभी बलूचिस्तान में देखा था उन सपनों की कब्र पर बलूचिस्तान से सटे हुए अफ़ग़ानिस्तान में काले कपड़े पहने आतंकवादियों का क़ब्ज़ा हो चुका है. यह ठीक वैसा ही है जैसे ‘रघुपति राघव राजा राम’ गुनगुनाते हुए देश पर आज गांधी के हत्यारों का राज है.
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