पिछली लोकसभा चुनाव के समय नेशनल हेराल्ड ने ‘फासीवादी ताकतों को हराने के लिए कांग्रेस की विचारधारा को पुनः अपनाना जरूरी’ शीर्षक एक लेख प्रकाशित किया था. यह लेख स्थापित करने का प्रयास करता है कि भारत की राजनीति से फासीवादी भावना को बाहर निकालने का एकमात्र उपाय भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और भारतीय संविधान के आदर्शों को पुनः स्थापित करना है और इसकी जिम्मेदारी कांग्रेस के कंधों पर है.
नेशनल हेराल्ड में प्रकाशित लेख के बाद से भारत में दो बार लोकसभा चुनाव हो चुके हैं, और कांग्रेस अभी भी सत्ता से बाहर है. तो सवाल है कांग्रेस के दावे का कि वह फासीवादी ताकतों को हरा देगी, कितना महत्व रखता है. यहां मनीष आजाद द्वारा प्रस्तुत यह आलेख इस दावे की पड़ताल करते हैं. – सम्पादक
मनीष आज़ाद
पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान दिल्ली के किसी मुस्लिम बहुल इलाके में जब एक पत्रकार ने एक बुजुर्ग मुस्लिम से पूछा कि यहां लोकसभा चुनाव अभियान में किस किस पार्टी के लोग आये, तो उस बुजुर्ग मुस्लिम ने दार्शनिक अंदाज में कहा कि भाजपा तो यहां आने से रही, लेकिन कांग्रेस भी यहां नहीं आती क्योंकि वे जानते हैं कि हम झक मारकर वोट तो उन्हें ही देंगे. फिर उन्होंने बेहद दुःख से कहा कि हमें तो सभी पार्टियों ने अकेला छोड़ दिया है.
इस लोकसभा चुनाव में देश के लिबरल / ‘वाम’ ने कांग्रेस और विशेषकर राहुल गांधी को जिस तरह से भाजपा के फासीवाद के खिलाफ तारनहार के रूप में प्रस्तुत किया, उस पर उपरोक्त मुस्लिम बुजुर्ग की टिप्पणी एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है.
चुनाव में भाजपा को अपने बलबूते बहुमत नहीं मिलने के बावजूद, सरकार के शपथ ग्रहण के तुरंत बाद जिस तरह से मुस्लिमों की लिंचिंग और उनके घरों को बुलडोज़र से गिराने की बाढ़ आ गयी, वह अभूतपूर्व और भयानक है. लेकिन उससे भी भयानक इस पर कांग्रेस समेत लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों की चुप्पी है. क्या राहुल गांधी की ‘मोहब्बत की दुकान’ में मुहब्बत की सप्लाई कम पड़ गई है ?
APCR (Association for Protection of Civil Rights) की एक रिपोर्ट के अनुसार 4 जून से 7 जुलाई के बीच महज 1 माह के अंदर 10 मुस्लिमों को लिंच किया गया. इसी दौरान मुस्लिमों के दर्जनों घर बुलडोज़र से तोड़े गए और सैकड़ों मुस्लिमों पर हमले हुए. वर्तमान कावड़ यात्रा में तो रोज मुस्लिमों पर हमले हो रहे हैं. वास्तव में इस वक़्त कावड़िये हिटलर के ‘स्टॉर्म ट्रूपर’ की तरह ही काम कर रहे हैं.
इस दौरान राहुल गांधी हाथरस भगदड़ में मारे गए लोगों के घर पहुंचे, एक मोची के यहां भी पहुंचे, लेकिन वे लिंचिंग में मारे गए मुस्लिमों के घर नहीं पहुंचे और ना ही संसद में या संसद के बाहर इसे मुद्दा बनाया.
एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता से जब मैंने एक व्यक्तिगत मुलाक़ात में इस मुद्दे को उठाया तो उन्होंने कहा कि यह कांग्रेस की ‘टैक्टिस’ है. अगर हम खुले मंच से उनका (मुस्लिमों का) मुद्दा उठाएंगे या राहुल गांधी उनके घर जायेंगे तो ‘हिन्दू वोट’ नाराज हो जायेगा और भाजपा इसका फायदा उठाएगी. लगभग यही तर्क इंडिया गठबंधन की अन्य पार्टियों का भी है.
पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक ‘जिया उस सलाम’ बेहद दुःख के साथ इसे यूं बयां करते हैं- ‘इस नए भारत में मुसलमान होने का मतलब आवाजहीन होना है. मुख्यधारा के लगभग सभी राजनीतिक दल ‘मुस्लिम’ शब्द से परहेज करने लगे हैं. इसकी जगह वे अक्सर ‘अल्पसंख्यक’ बोलने को तरजीह देते हैं’… ‘नए भारत में मुसलमानों की पीट पीट कर हत्या के समाचार अब ‘मौसम समाचार’ जैसे बन चुके हैं- ऐसी सामान्य घटनाएं जिसका पूर्वानुमान हो.’
इसी पृष्ठभूमि में हम यह समझ सकते हैं कि इस बार संसद में मुस्लिमों की संख्या घटकर महज 24 हो गयी. जनसंख्या अनुपात के लिहाज से 1952 के बाद यह सबसे कम है.
दूसरी तरफ इस साल के शुरूआती 6 महीनों में अकेले बस्तर में 150 आदिवासियों/माओवादियों की हत्या की गयी है. इनमें ज्यादातर माडिया जनजाति के आदिवासी हैं, जिन्हें भारत सरकार ने ही कमजोर आदिवासी समूह (vulnerable tribal group) घोषित किया हुआ है. लेकिन अफसोस कि कांग्रेस (राहुल गांधी सहित) सहित किसी भी राजनीतिक पार्टी ने इस जघन्य हत्याकांड पर कुछ भी नहीं बोला. न ही संसद के अन्दर और ना ही संसद के बाहर.
ठीक इसी तरह जर्मनी में भी हिटलर के आने से पहले भारत के मुसलमानों की तरह ही यहूदियों को हाशिये पर धकेला जा चुका था और सार्वजानिक जीवन से उन्हें ओझल कर देने की प्रक्रिया तेज़ गति से जारी थी. इसीलिए लेखक चैतन्य कृष्णा ने ‘Fascism in India: Faces, Fangs, and Facts’ में किसी को उद्धरित करते हुए एक महत्वपूर्ण बात लिखी है कि हिटलर की नात्सी पार्टी से फासीवाद नहीं आया बल्कि ‘फासीवाद’ ने ही नात्सी जैसी क्रूर फासीवादी पार्टी को जन्म दिया.
ठीक इसी तर्ज पर प्रसिद्ध समाजशास्त्री रजनी कोठारी ने भी आडवानी की रथ यात्रा के समय कहा था कि कांग्रेस ने जो बोया था, अब उसे भाजपा काटने जा रही है. आखिर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट तो कांग्रेस के शासनकाल में ही आई थी. मुसलमानों की दलितों से भी बुरी स्थिति तो कांग्रेस के ही लम्बे शासनकाल के दौरान घटित हुई है.
सच तो यह है कि जर्मनी के ‘सामाजिक जनवादियों’ ने ही रोजा लक्सेम्बर्ग की हत्या करने और कम्युनिस्टों की ‘स्पार्टाकस लीग’ को कुचलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. और इस तरह से हिटलर के लिए रास्ता साफ़ किया था. ठीक इसी कारण कामरेड स्टालिन अपने एक लेख में सामाजिक जनवाद और फासीवाद को जुड़वां घोषित करते हैं.
वे साफ़ साफ़ लिखते हैं- ‘फासीवाद महज एक सैन्य-तकनीकी कैटेगरी नहीं है, फासीवाद बुर्जुआ का लड़ाकू दस्ता है जो सक्रिय समर्थन के लिए सामाजिक जनवाद पर निर्भर है. वस्तुगत तौर पर सामाजिक जनवाद फासीवाद का थोड़ा नरम विंग है.’ यह बात कांग्रेस पर शत-प्रतिशत लागू होती है. भले ही तकनीकी अर्थ में कांग्रेस पार्टी सामाजिक जनवादी पार्टी न हो.
लगभग 100 साल पहले कही गई स्टालिन की उपरोक्त बात आज भी पूरी तरह सच है. इसलिए जब भी यह प्रश्न सर उठाये कि क्या कांग्रेस के सत्ता में आने से फासीवाद खत्म हो जायेगा या उस पर कोई प्रभावी रोक लग जाएगी, तो हमें इसी पृष्ठभूमि में उसका उत्तर तलाशना चाहिए. नहीं तो हम तमाम तरह के चमकीले भ्रम का शिकार हो जायेंगे.
जर्मन फासीवाद पर क्लारा जेटकिन का मशहूर कथन है कि फासीवाद क्रांति न करने की सजा है. यह महत्वपूर्ण बात तो आज के फासीवाद पर भी लागू होती है, लेकिन आज का फासीवाद पुराने फासीवाद से इस रूप में भिन्न है कि आज यह कम्युनिस्ट क्रांति के खतरे से बचने के लिए नहीं बल्कि साम्राज्यवाद के नए संकट ‘वैश्वीकरण’ (Globalization) की कोख से उपजा है.
‘The Capital Order: How Economists Invented Austerity and Paved the Way to Fascism’ में लेखक Clara E. Mattei साफ़ साफ़ बताती हैं कि 1990 के बाद भारत सहित तमाम देशों में ‘बेल्ट कसने’ के नाम पर जिस आर्थिक नीति की नींव रखी गयी, उसे बनाने और लागू करने वाली ज्यादातर पार्टियां या व्यक्ति आज की परिभाषा की हिसाब से ‘उदारवादी/मध्यमार्गी’ (liberal/centrist) ही थे.
भारत में इसे लागू करने वाली पार्टी कांग्रेस थी. ‘एलपीजी’
(उदारीकरण/निजीकरण/वैश्वीकरण) के सबसे बड़े पैरोकार मनमोहन सिंह और नरसिम्हा राव थे. और मजेदार बात यह है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस में भी नरसिम्हा राव की एक बड़ी भूमिका थी. बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उनका मशहूर वाक्य था कि हम बीजेपी से तो लड़ सकते हैं, लेकिन राम लला से कैसे लड़ेंगे.
प्रसिद्ध लेखिका मीरा नंदा अपनी किताब The God Market: How Globalization is Making India More Hindu में इसे ‘State-Temple-Corporate Complex’ की संज्ञा देते हुआ ग्राफिक तरीके से बताती हैं कि वैश्वीकरण के तहत ‘एलपीजी’ ने धर्म, साम्प्रदायिकता, पितृसत्ता और अन्य पिछड़े मूल्यों को बढ़ावा दिया है और फासीवादी भाजपा के लिए ‘रेड कारपेट’ बिछाया है.
राम मंदिर का ताला खुलवाने वाले और फिर शिलान्यास करने वाले राजीव गांधी मोदी से बहुत पहले ही ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ बनने की ओर अग्रसर थे. राजीव गांधी और आरएसएस के बीच उस वक़्त कितने मधुर संबंध थे, इसे जानने के लिए आप नीरजा चौधरी की किताब ‘हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड’ पढ़ सकते हैं.
वैश्वीकरण के दौरान साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए ‘तीसरी दुनिया’ के उन देशों का रुख किया जहां मजदूरी बहुत कम थी. इसलिए साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अपने देश में बुलाने के लिए तीसरी दुनिया के देशों में मजदूरी कम से कम रखने की होड़ शुरू हो गयी. जिसे हम ‘रेस तो बॉटम’ (race to bottom) कह सकते हैं. ऐसे में मजदूरों के असंतोष और बढ़ती बेरोजगारी, बढ़ती असमानता से निपटने के लिए जनता पर क्रूर दमन के अलावा उन्हें धर्म, संप्रदाय, जाति….में बांटना जरूरी था. सिर्फ तभी जनता का क्रूर शोषण जारी रह सकता था.
दूसरी ओर विकसित देशों से उत्पादन ‘तीसरी दुनिया’ में शिफ्ट होने के कारण वहां भी भयानक बेरोजगारी, असमानता और गरीबी पैदा होने लगी. तो इसी तर्ज पर वहां अप्रवासियों का भय दिखाकर मजदूर वर्ग को बांटने का प्रयास किया जाने लगा. ‘डोनाल्ड ट्रम्प’ या ‘ली पेन’ जैसे फासीवादी लोग या उनकी पार्टियां इस भय का कारोबार करते हुए अपने अपने देशों में फासीवाद की जमीन तैयार करने में जुटी हुई है.
पिछले करीब 40 सालों में ‘एलपीजी’ की इन्हीं साम्राज्यवादी नीतियों का परिणाम है कि आज विश्व के 1 प्रतिशत लोगों के पास कुल धन-संपदा का 40 प्रतिशत है. भारत में यह असमानता अंग्रेजों के समय मौजूद असमानता को भी पीछे छोड़ चुकी है.
इसीलिए फासीवाद किसी व्यक्ति या समूह की सनक नहीं होता, बल्कि इसके पीछे साम्राज्यवादी या ठोस रूप से कहें तो वित्तीय पूंजी की तत्कालीन आर्थिक संरचना होती है, जो लेनिन के अनुसार हर जगह प्रभुत्व चाहती है. और यही प्रभुत्व फासीवाद का राजनीतिक अर्थशास्त्र होता है.
अब फिर भारत पर लौटे तो हम देखते हैं कि 1990 में भारत में आईएमएफ (IMF) द्वारा प्रस्तुत ‘ढांचागत समायोजन’ की नीतियों को कांग्रेस ही लेकर आई और उसे अंजाम तक भी उसी ने पहुंचाया. इन जनविरोधी नीतियों ने समाज में पहले से ही मौजूद ‘फाल्ट लाइन’ को उघाड़ कर रख दिया. जिसका फायदा भाजपा जैसी धुर दक्षिणपंथी ताकतों ने उठाया. यह भारत ही नहीं बल्कि भारत जैसे अन्य तमाम देशों की सच्चाई है.
यदि इसके साथ ही उत्तर-पूर्व और कश्मीर के राष्ट्रीयता आन्दोलन और नक्सल/माओवादी आन्दोलन के दमन के लिए कांग्रेस द्वारा तैयार की गयी दैत्याकार ‘दमन मशीन’ को जोड़ दें तो तस्वीर पूरी हो जाती है.
आज अगर बस्तर की आदिवासी जनता पर ड्रोन से बम गिराए जा रहे हैं, तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि 5 मार्च 1966 को मिजोरम के खूबसूरत शहर आइजोल (Aizawl) को कांग्रेस के शासनकाल में हवाई बमबारी करके पूरी तरह तबाह कर दिया गया था. असम विधानसभा में (तब मिजोरम असम का हिस्सा था) जब बम के खोखे दिखाते हुए सवाल पूछा गया तो तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने बेशर्मी से कहा कि वहां ‘फूड पैकेट्स’ गिराए गए हैं.
पिछले दिनों कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने काम के घंटे तो 14 कर ही दिए और साथ ही यह एलान भी कर दिया कि ‘अवैध’ बांग्लादेशियों को गिरफ्तार करके ‘डिटेंशन सेंटर’ में डाल दिया जायेगा. और ‘उदार’ राजनीतिक विश्लेषक इस पर ताली पीट रहे हैं कि कांग्रेस ने भाजपा का एजेंडा छीनकर भाजपा को पटखनी दे दी.
इसके बावजूद अगर कोई यह कहता है कि कांग्रेस सत्ता में आकर फासीवाद खत्म कर सकती है तो फिर या तो वह बहुत ही मासूम है या फिर बेहद चालाक. आज जिस तरह से भानु प्रताप मेहता जैसे ‘उदार’ बुद्धिजीवियों का दिल राहुल गांधी की ‘मोहब्बत की दुकान’ पर आ गया है, उसी तरह 2014 से पहले उनका दिल मोदी के ‘गुड गवर्नस’ (Good governance) पर भी आ गया था.
किसी ने ठीक ही कहा है कि इतिहास अपने आपको इसलिए दोहराता है क्योंकि हम उससे कोई सबक नहीं लेते.
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