Home गेस्ट ब्लॉग भारतीय राजनीति व्यवस्था की जगह व्यक्ति केंद्रित हो चुका है

भारतीय राजनीति व्यवस्था की जगह व्यक्ति केंद्रित हो चुका है

4 second read
0
0
446

भारतीय राजनीति व्यवस्था की जगह व्यक्ति केंद्रित हो चुका है

मुकेश भारद्वाज

भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और सत्ता के अहंकार से त्रस्त होकर जनता ने 2014 में ऐसा जनादेश दिया जिसे ऐतिहासिक की संज्ञा दी गई. उस वक्त भाजपा को मिले जनादेश के लिए प्रचंड बहुमत शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा था. सरकारी पक्ष के प्रवक्ताओं और कलमकारों ने इस व्यवस्था परिवर्तन को व्यक्ति की महिमा तक में परिवर्तित कर दिया. एलान कर दिया गया कि भारत का बहुदलीय लोकतंत्र अब बदल गया है और यह अमेरिका की तरह अध्यक्षीय व्यवस्था का रुख कर रहा है. लेकिन हाल के दिनों में भारत की जनता ने संदेश दिया है कि उसने सत्ता लोकतंत्र की लकीरों के दायरे में ही बदली थी. व्यक्ति महिमा इस तरह हावी हो गई है कि अब प्रचंड बहुमत को क्रूर बहुमत कहा जाने लगा है. लखीमपुरी खीरी में जो आरोपी हैं उसके पिता अगर गृह मंत्रालय के गलियारों से गुजरते हैं तो यह जनता की भी हार है. राजनीति के बदले दृश्य पर बेबाक बोल.

किसने जलाई बस्तियां बाजार क्यों लुटे
मैं चांद पर गया था मुझे कुछ पता नहीं – बशीर बद्र

टीवी चैनलों पर सत्ता पक्ष के चुनिंदा प्रवक्ताओं की दलील ऐसी ही अहंकारी लगती है जैसा बशीर बद्र साहब कह गए थे. 2016 में नोटबंदी के फायदे गिनाने से लेकर किसानों को आतंकवादी कहने तक में इनके पास अहंकार के सिवा कुछ नहीं है. सत्ता से जुड़े लोगों की बेजा शक्तियों के लिए हम दमनकारी शब्द का इस्तेमाल करते हैं लेकिन इनमें तो दमन का दर्प नहीं बस व्यक्तिपूजा का वमन होता है. राजनीतिशास्त्र की किताबों में दमनकारी से लेकर, वमनकारी तक का यह सफर भी दर्ज किया जाएगा.

एक वमनकारी प्रवक्ता की बानगी देखिए. पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को अपना भाई सरीखा बता दिया. अब सरकारी पक्ष के प्रवक्ता कहते हैं कि सिद्धू से यह बात राहुल गांधी ने कहलवाई है. सिद्धू के बारे में अगर यह बात कपिल शर्मा अपने हास्य कार्यक्रम में कहते तो दर्शक खूब हंसते. लेकिन, समाचार चैनल के आम दर्शक भी सोच रहे होंगे कि जिस सिद्धू को काबू करने में पूरी कांग्रेस बुद्धू बन पड़ी है, जो आलाकमान की एक नहीं सुनते उनसे राहुल गांधी अपनी बात मनवाने में कामयाब कैसे हो गए ?

सत्ता पक्ष के सभी प्रवक्ता हर बात पर जिस तरह से कांग्रेस को अप्रासंगिक बता कर राहुल गांधी पर अक्सर गैरजरूरी हमले करते हैं, उससे तो किसी टीवी चैनल वाली बहस की सुर्खी बन सकती है – कांग्रेस से नहीं राहुल से डर लगता है. स्तंभ की शुरुआत सरकारी पक्ष के प्रवक्ताओं से इसलिए क्योंकि 2014 के बाद से इन्होंने देश की राजनीति को नया व्यक्तिवादी चेहरा देना शुरू कर दिया था. जनता ने कांग्रेस काल के भ्रष्टाचार, महंगाई और अहंकार से त्रस्त होकर भाजपा को वोट दिया.

भारतीय राजनीति में इसके पहले भी व्यक्ति विशेष को प्रधानमंत्री का चेहरा बनाकर वोट मांगे गए थे, लेकिन चुनाव के बाद उसे जनतांत्रिक रूप देने की ही कोशिश की गई थी. यह तो तय है कि जनता ने 2014 में उस चेहरे के नाम पर वोट दिया जिसकी आक्रामक मौजूदगी ने अन्य विचारधारा और चेहरों के लिए एक शून्य पैदा कर दिया था. लेकिन जनता द्वारा किए गए इस व्यवस्था परिवर्तन को सत्ता पक्ष से जुड़े लोगों ने जनता और जनतांत्रिक व्यवस्था का परिवर्तन बताना शुरू कर दिया. केंद्र में जिसकी सरकार होती है उसके लिए अन्य चुनाव जीतना थोड़ा आसान होता है लेकिन, इस सामान्य सिद्धांत को ‘न भूतो न भविष्यति’ जैसा करार दिया गया.

2019 तक आते-आते भाजपा के कलमकारों ने कहना शुरू कर दिया कि दुनिया की सबसे बड़ी जम्हूरियत की रियाया हिंदुस्तान की सियासत की रवायत बदल रही है. दावा किया गया कि 2014 के बाद से यहां अध्यक्षीय स्वरूप के चुनाव की बुनियाद रख दी गई थी. अब चुनावों को जनता बनाम सत्ता के बजाए व्यक्ति की व्यक्ति से लड़ाई बना दिया गया. पार्टी बनाम पार्टी के बजाए उनके चेहरों पर ध्यान केंद्रित कर दिया गया. हमारे देश की राजनीति में सबसे अहम व्यक्ति को बना दिया गया है.

कृषि कानूनों की वापसी हो गई, इसके बावजूद आज भी अजय मिश्रा टेनी जैसे लोग अपने पद पर बैठे हैंं तो उसका एकमात्र यही कारण है कि व्यक्ति के आगे मुद्दों को मरा हुआ समझ लिया गया है. आज हमारे लिए नैतिकता और सच्चाई अहम नहीं है. पारदर्शिता व राजनीतिक इच्छाशक्ति अहम नहीं है. हर एक केंद्र व्यक्ति केंद्रित हो चुका है.

जब सत्ता व्यक्ति केंद्रित नहीं थी तो नैतिकता और जिम्मेदारी के नाम पर कांग्रेस के नेता लालबहादुर शास्त्री (रेलमंत्री के पद से) ने इस्तीफा दिया था. भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस्तीफा दिया था. आडवाणी तो आरोपी भी नहीं थे, उनका नाम ही दर्ज था एक डायरी में. उस समय तक देश में व्यक्ति केंद्रित राजनीति अहम नहीं थी, इसलिए नैतिकता बची हुई थी. उस वक्त व्यक्ति नहीं व्यवस्था अहम थी इसलिए इन नेताओं ने नैतिकता पर चलते हुए खुद को तब तक व्यवस्था से अलग रखा, जब तक इन पर लगे आरोप पूरी तरह खत्म नहीं हो गए.

लेकिन जब राजनीति में व्यवस्था की जगह व्यक्ति अहम हो जाता है तो टेनी महाराज कुर्सी पर जमे रहते हैं. हम उनका विधायक और सांसद बनने से पहले क्या थे वाला वीडियो भी देख चुके हैं. जिस गृह मंत्रालय को पूरे देश की कानून व्यवस्था को काबू करना है, उसके गलियारे को रौंदते हुए वे अपने दफ्तर जाते हैं और टीवी पर उनका मुस्कुराता चेहरा दिखता है. उनका बेटा लखीमपुर में प्रदर्शनकारियों की मौत के मामले में आरोपी है और अदालत लगातार बार-बार उत्तर प्रदेश सरकार को फटकार लगा रही है.

अगर आपको सरकार की साख की चिंता है, किसानों के गुस्से को कम करना चाहते हैं, तो टेनी महाराज को मंत्रिमंडल से बाहर करने जैसे न्यनूतम कदम उठा ही लेने चाहिए. इसमें कोई नीतिगत मसला भी नहीं है. यह सिर्फ अहंकार का ही मसला हो सकता है या फिर यह अहसास कि उत्तर प्रदेश की जमीन पर आप सिर्फ जातिवादी समीकरण से ही जीत सकते हैं. अगर आप जरा भी किसानों और मानवता के पक्ष में हैं तो गृह मंत्रालय के गलियारे की गरिमा को ध्यान में रखना ही होगा.

अगर आप लखीमपुर खीरी जैसी घटनाओं पर कार्रवाई कर नैतिकता की कोई लकीर नहीं खींचते हैं तो शुरुआत में आपके प्रवक्ता सब कुछ ठीक है का पर्यावरण बनाते हैं. लेकिन प्रवक्ताओं के दावों के परे लोगों का गुस्सा कहीं न कहीं केंद्रित होता है. फिर आपके लिए समग्र जलवायु संकट आ जाता है और आपके पास उसके थपेड़े झेलने के अलावा और कोई चारा नहीं होता है.

कृषि कानून देश भर के लोगों के गुस्से को केंद्रित करने का केंद्र बन गया था. यही वजह थी कि कृषि आंदोलन के मंच से इससे जुड़े कानूनों के अलावा महंगाई, बेरोजगारी सहित अन्य मसले भी उठाए जाने लगे थे. आज यही बात फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर है, सरकार इस पर समिति बना सकती है. अभी तक एमएसपी के दायरे में चुनिंदा फसलें ही हैं लेकिन संकट में हर तरह के किसान हैं.

खेती-किसानी के मुद्दे को संवेदनशीलता और समग्रता से देखने की जरूरत होती है लेकिन पराली जलाने को आपराधिक मामले तक ले आया गया है. ऐसा दिखाने की कोशिश की गई कि किसान ऐसा जानबूझ कर करते हैं. आधुनिक संसाधनों की कमी के कारण परंपरागत तरीके अपनाना अपराध के दायरे में नहीं हो सकता है. किसानों को दुश्मन की तरह प्रायोजित करने का यह कदम बहुत खतरनाक है. वहीं बिजली कानून लाने के प्रस्ताव जैसे मामले हैं, जिनका सरकार तुरंत निपटारा कर सकती है. इन कदमों को उठा कर किसान आंदोलन को ठंडा किया जा सकता है. इन चीजों को तत्काल करना इसलिए जरूरी है ताकि किसान खेतों में वापस जाएं.

अगर अभी भी आप व्यवस्था को नकार कर व्यक्ति के ही भरोसे माहौल संभालने की कोशिश करेंगे तो जनता ने आपको संदेश दे ही दिया है कि अब 2019 वाले हालात नहीं हैं. जैसे मरे हुए हाथी में भी दम होता है वैसे जनतंत्र कभी भी इस व्यक्तिवाद को धता बता सकता है. विकल्प न्योता देकर नहीं आता.

आज देश में जो व्यक्तिवादी मानसिकता हावी है, उसके जिम्मेदार बहुत हद तक हम खुद हैं. हमने सत्ता के तैयार हर कथ्य को ‘पहली बार, पहली बार’ वाला तथ्य मान लिया. राजनीतिक पंडितों ने देश के चुनावों को अध्यक्षीय शासन में जाने की भविष्यवाणी कर क्षेत्रीय क्षत्रपों का मर्सिया पढ़ दिया. हमने व्यवस्था के आगे व्यक्ति को खड़ा कर दिया. और अब यह सिर्फ भाजपा की नीति नहीं है. लुटी हुई संपत्ति वापस मिलती भी है तो लुटी-लुटाई. भाजपा ने खेल का जो नियम तय कर दिया है कांग्रेस से लेकर सपा, बसपा और अन्य दल तब तक खेलेंगे जब तक हम अपने साथ ऐसा होने देंगे. तब तक बोलते रहना होगा टेनी महाराज की जय.

Read Also –

 

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं मोबाईल एप डाऊनलोड करें

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…