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गुजरात नरसंहार : भारतीय न्याय प्रणाली न्याय के नाम पर बदनुमा दाग है

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गुजरात नरसंहार : भारतीय न्याय प्रणाली न्याय के नाम पर बदनुमा दाग है
गुजरात नरसंहार : भारतीय न्याय प्रणाली न्याय के नाम पर बदनुमा दाग है

गुजरात नरसंहार मामले में इंसाफ की मांग करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी और 2 हजार लोगों के जघन्य नरसंहार के आरोपी भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को क्लीन चिट देने पर दुनिया भर में भारत के सत्तापरस्त सुप्रीम कोर्ट के आदेश की निंदा की जा रही है. यहां यह जानना बेहद महत्वपूर्ण है कि भारत की तमाम संवैधानिक संस्थाओं की तरह सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्था ने भी भारत के फासिस्ट शासक नरेन्द्र मोदी के सामने घुटना टेककर अपना जनविरोधी विकृत चेहरा लोगों के सामने पेश कर चुकी है.

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के तीस्ता सीतलवाड़ को जेल भेजने के आदेश के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय ने मंगलवार को ट्वीट कर कहा था, ‘भारत में हम सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और दो अन्य पूर्व पुलिस अधिकारियों की गिरफ्तारी को लेकर बहुत चिंतित हैं और उनकी तुरंत रिहाई की मांग करते हैं. 2002 के गुजरात दंगों के पीड़ितों का साथ देने और अपना काम करने के लिए उनका उत्पीड़न नहीं होना चाहिए.’ इसके जवाब में भारत का भकचोंहर विदेश मंत्रालय ने अपना बयान जारी करते हुए कहा कि ओएचसीएचआर की ये टिप्पणी देश की ‘स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली’ में दखल का काम करती है.

यहां यह जानना महत्वपूर्ण है कि देश में ‘स्वतंत्र न्याय प्रणाली’ कैसे काम करती है ? भारतीय न्याय प्रणाली दुनिया मे सबसे भ्रष्ट और गैर-जिम्मेदार ‘न्याय प्रणाली’ है. इसे अपराधी में ईश्वर नजर आता है और पीड़ित ही दोषी नजर आता है. तीस्ता सीतलवाड़ के ही नहीं, देश में लाखों ऐसे प्रकरण हैं, जहां पीड़ित जेलों किया सलाखों में अपना जीवन काटने पर मजबूर होता है और जीवन के अंतिम क्षण में यह ‘स्वतंत्र’ न्यायालय उसे निर्दोष बता देते हैं. इसप्रकार यह ‘स्वतंत्र’ न्यायालय स्वतंत्र लोगों के जीवन को खत्म करने का सयंत्र के सिवा और कुछ नहीं है.

यह ‘स्वतंत्र’ न्यायालय जांच और जजमेंट के नाम पर कैसे लोगों की जिन्दगी से खेलता है, उसका शानदार उदाहरण गुजरात दंगों में सरकार की भूमिका और उस पर जांच और जजमेंट में खूब दिखा है. जिसमें दोषी प्रधानमंत्री बन गया और पीड़ित जेल की सलाखों के अन्दर डाल दिया गया है. सोशल मीडिया पर वायरल यह आलेख इस प्रकार है –

मोदी ने गुजरात दंगों की जांच के लिए नानावती कमीशन की नियुक्ति की. ये खुद मोदी जी के चहेतों का आयोग था, जिसका काम उन्हें क्लीन चिट देना ही था और बाद में दी भी. इस आयोग की गड़बड़ियों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने SIT का गठन किया लेकिन ‘गलती’ एक ये रखी कि एमिकस क्यूरी (न्याय मित्र) हरीश साल्वे को ही रखा.

एमिकस क्यूरी का काम न्यायालय की मदद करना, SIT के सदस्यों की नियुक्ति करना और जांच पर नज़र रखना होता है. लेकिन हरीश साल्वे वो आदमी थे जिन्हें अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने टाईम पर Solicitor General of India बनाया था. ये भाई साहब, दंगों की जांच के वक्त मोदी (जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे) के लिए Corporate Lobbying करते थे. मतलब बड़े-बड़े लोगों को ठेके बगेरह दिलवाना आदि आदि. तहलका मैगज़ीन ने इनके ई-मेल भी बाहर किए थे.

इन्हीं भाई साहब को मोदी की जांच का ज़िम्मा दे दिया गया. मित्र ही मित्र की जांच करे, अंग्रेज़ी में इसे Conflict or the interest बोलते हैं. इन्हीं भाई साहब को ये काम मिला कि मोदी की जांच करने वाली SIT टीम में कौन-कौन से सदस्य होंगे, इसका चुनाव करें और जांच पर नज़र रखें. SIT का हेड कौन होगा ये सुप्रीम कोर्ट ने डिसाइड कर दिया था. SIT का हेड बनाया गया CBI के पूर्व डायरेक्टर राघवन को. बाक़ी सदस्यों को चुनने की ज़िम्मेदारी साल्वे की रही.

गुजरात सरकार ने जिन अधिकारियों के नाम सुझाए इन भाई साहब ने वे ही सदस्य इस SIT में चुन लिए. मतलब 5 सदस्यों में से 3 गुजरात सरकार के अफ़सर जो मोदी जी के ही कृपा पात्र थे, उन्हें जांच करनी थी कि इनके डिपार्टमेंट की गलती क्या रही ?

इधर पीड़ित कहते रहे कि साल्वे साहब इस संवेदनशील मामले के लिए सही एमिकस क्यूरी नहीं हैं, ना वे हमारी सुनते, ना उन्होंने SIT के सदस्यों के चुनाव के समय हमारी एक सुनी है. हमारी मांग है कि निष्पक्ष अधिकारी जांच करें, जिनका राजनीति से सम्बंध ना रहा हो. साल्वे साहब ने गुजरात सरकार के वे अधिकारी चुन लिए हैं, जो मोदी जी के ही कृपापात्र हैं. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा – ‘हमें हरीश साल्वे पर पूरा भरोसा है.’

इस SIT की जांच के लिए मुख्य टीम के अलावा, सहयोगी टीम में – कॉन्स्टबल से लेकर SP तक सब गुजरात पुलिस के थे. इन्होंने ही गवाहों के बयान दर्ज किए, इन्होंने ही आरोपियों से सवाल किए. परिणाम क्या आना था आप समझ ही गए होंगे. लास्ट में SIT ने अपनी रिपोर्ट में कह दिया कि ‘कोई सबूत नहीं मिले.’ मोदी जी को क्लीन चिट मिल गई. लोकल अदालत ने भी उसे क़बूल कर लिया और सुप्रीम कोर्ट ने आंख मींच ली.

जाकिया जाफ़री नाम की पीड़ित वृद्ध महिला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली हुई थी कि ‘दोबारा जांच हो, SIT ने सही जांच नहीं की है.’ इसके लिए ढेरों सबूत दिए गए लेकिन अभी सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि ‘सब सही है. दोबारा जांच का कोई मतलब नहीं. ये जो तीस्ता सीतलवाड है ये भड़का रही है पीड़ितों को.’ अगले दिन तीस्ता सीतलवाड को भी गुजरात पुलिस ने जेल में डाल दिया.

जिस SIT ने मोदी जी को क्लीन चिट दी थी, जिसके तीन सदस्य गुजरात पुलिस-प्रशासन से थे, उस SIT के हेड राघवन को उनके रिटायरमेंट के बाद, मोदी जी ने साल 2017 में साइप्रस का हाई कमिश्नर (एक तरह से राजदूत) बनाकर भेज दिया. साइप्रस एक मस्त जगह है. पैसे वाले लोग हनीमून के लिए जाते हैं. समुंदर है, पेड़ हैं, पौधे हैं. वहाँ पर भारत का हाई कमिशनर बनाया जाना एक बढ़िया पोस्ट रिटायरमेंट पैकेज की तरह देखा जा सकता है.

इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि भारत एक महान देश है. हमें अपने मां बाप की सेवा करनी चाहिए. गर्मियों के दिनों में पक्षियों के लिए छत पर पानी रखना चाहिए. इससे पुण्य मिलता है और रिटायरमेंट के बाद भी साइप्रस जैसी जगह पर नौकरी मिल सकती है.

जांच की इस नौटंकी के बाद जिस तरह सुप्रीम कोर्ट के बिका या डरा जज जिस तरह ‘स्वतंत्र न्याय’ करता है, वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि भारत में न्याय और न्यायालय अमीरों की जूती है, जिसे अमीर तो अपने पैरों में पहनता है लेकिन गरीब अपने सर पर उठाकर नाचने के लिए अभिशप्त है. जरूरत है कि भगत सिंह के इस उद्घोष को जोरदार तरीके से उठाया जाये कि ‘अदालतें ढकोसला है’ और अमीरों की इस जूती को अपने सर से उतार फेंककर पैरों के नीचे रौंद डाला जाये.

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