रविश कुमार
गोदी मीडिया को मुद्दों की सप्लाई कौन करता है, इसका पता इन दिनों रेवड़ी कल्चर की बहस से चल जाता है. जिस तरह गोदी मीडिया धर्मशास्त्री बनकर धर्म के नाम पर नफरत को हवा देता रहता है, उसी तरह इन दिनों अर्थशास्त्री बनकर रेवड़ी कल्चर के नाम पर आपको भरमा रहा है. बहस को निराकार रूप दिया जा रहा है जैसे इसकी आकाशवाणी हुई हो. बहस की शुरूआत करने वाले ने खुद कितनी रेवड़ियां बांटी हैं और क्यों बांटी है, इस पर सवाल नहीं है. जो देश गोदी मीडिया देखकर धर्म और अर्थशास्त्र का ज्ञान हासिल कर रहा है, उस देश का विकास कोई नहीं रोक सकता. बस डेडलाइन थोड़ी बढ़ानी होगी. 2015 में 2022 की और 2022 में 2047 की.
स्क्रीन पर इन तस्वीरों के आते ही कितनी चमक पैदा हो गई होगी, आपको लग रहा होगा कि मैं आपको किसी सोने के भंडार में ले आया हूं, जहां भारत 30 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बन चुका है और लोग अपनी छतों पर गेहूं की जगह इन गहनों को सुखा रहे हैं. मेरा ज़ोर सोने के असली और नकली होने पर नहीं है बल्कि इसकी चमक पर है कि इसी तरह नकली मुद्दों में असली मुद्दे की चमक पैदा कर अर्थशास्त्री ऐंकर रेवड़ी संस्कृति पर चर्चा कर रहे हैं. हमारे सहयोगी प्रमोद श्रीवास्तव ने बताया कि इनकी कीमत बहुत ज़्यादा तो नहीं है मगर महंगाई यहां भी है. इन गहनों का बाज़ार बताता है कि इस देश में कितनी गरीबी है, जहां पचीस हज़ार महीना कमाने वाला भी दस परसेंट सेठों की गिनती में आ जाता है.
आइये, आज हम टारगेट का कैलेंडर बनाते हैं ताकि आपको पता चल सके कि इस देश में टारगेट की रेवड़ी संस्कृति लांच हो चुकी है. कई बार टारगेट ठोस पदार्थ के रूप में दिए जाते हैं जैसे सबको घऱ मिलेगा, 100 शहर स्मार्ट सिटी बन जाएंगे, कुछ टारगेट प्रण और प्रतिज्ञा के रुप में दिए जाते हैं, जैसे विरासत पर गर्व करना है और ग़ुलामी के अहसास से मुक्ति पाना है. हम एक चार्ट बनाकर बताना चाहते हैं कि इस समय देश में कितने टारगेट घोषित रुप से मौजूद हैं. हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि अगले 25 साल को अमृतकाल घोषित किया गया है.
आप इस चार्ट में देखिए तो चंद टारगेट का ही चयन किया है वरना सौ साल का कैलेंडर ही बनाना पड़ जाता. इसमें केवल 2022, 2047, 2052 और 2100 है. 2022 में गंगा साफ होनी थी, सबको घर मिल जाना था, 2047 के लिए सरकार विज़न दस्तावेज़ की तैयारी कर रही है. इस चार्ट में 2052 इसलिए है क्योंकि केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल का कहना है कि भारत अगले 30 वर्षों में 30 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था हो जाएगा. 21 वीं सदी इसलिए है कि 2016 में प्रधानमंत्री मोदी ने दीनदयाल उपाध्याय की जयंती के मौके पर 21 वीं सदी के लिए आठ विज़न की बात की थी, जो कि इकोनमिक टाइम्स में छपा है.
इसी तरह आप देखेंगे कि भारत की अर्थव्यवस्था का आकार कब कितने ट्रिलियन डॉलर का होगा. 2019 में अचानक चर्चा शुरू हो गई है कि 2025 तक 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच जाएगा. 2022 में चर्चा शुरू हो गई कि अगले 30 साल में यानी 2052 तक भारत की अर्थव्यवस्था का आकार 30 ट्रिलियन डॉलर का हो जाएगा. भारत के प्रमुख आर्थिक सलाहकार का बयान है कि 26-27 तक 5 ट्रिलियन डॉलर पर पहुंचेगा और 2033-34 तक 10 ट्रिलियन डॉलर का होगा और 2040 में 20 ट्रिलियन डॉलर का हो जाएगा.
ये सभी बयान अलग-अलग अखबारों में छपे हैं. इस समय भारत की अर्थव्यवस्था 3 ट्रिलियन डॉलर के आस-पास है. पिछले साल अगस्त में सरकार ने लोकसभा में जो आंकड़े रखे थे, उससे एक अंदाज़ा मिलता है कि अर्थव्यवस्था का आकार किस रफ्तार से बढ़ रहा है. सरकार ने IMF के आंकड़े का हिसाब देते हुए बताया कि –
2018-19 – 2.7 ट्रिलियन डॉलर
2019-20 – 2.9 ट्रिलियन डॉलर
2020-21 – 2.7 ट्रिलियन डॉलर
2021-22 – 3.0 ट्रिलियन डॉलर (यह अनुमानित है.)
इसका मतलब अर्थव्यवस्था का आकार झट से डबल नहीं हो जाता है. इससे आप यह भी अदाज़ा लगा सकते हैं 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने में कितना समय लगेगा. इसके बारे में जून 2019 में लोकसभा में सरकार ने बताया था कि वाणिज्य मंत्री के निर्देशन में एक समूह काम कर रहा है जिसके अनुसार 2024-25 तक 5 ट्रिलयन डॉलर हो सकता है. अब तो टारगेट 2052 में चला गया है कि 30 बिलियन डॉलर होगा. इसी जवाब में कहा गया है कि IMF ने 2023 तक 4.6 ट्रिलियन डॉलर का हो जाएगा. यानी अगले साल तक. वैसे इस साल अगस्त में राज्य सभा में सरकार ने जवाब दिया है कि कोरोना और यूक्रेन युद्ध के कारण 5 डॉलर की अर्थव्यवस्था तक पहुंचने में अभी कुछ और वर्ष लग सकते हैं.
मेरी बात कड़वी लग गई तो अब मीठी रेवड़ियां खा लीजिए. खा तो नहीं सकते हैं मगर बनती कैसी हैं यही देख लीजिए. 30 ट्रिलियन डॉलर के टारगेट से हिन्दी के अखबार भरे पड़े हैं. इसी सोमवार को भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी. सुब्बाराव ने कहा है कि अगर भारत अगले पांच साल तक 9 प्रतिशत की दर से विकास करेगा, तब जाकर 2028-29 में 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था करेगा. तो अभी तो 5 ट्रिलियन डॉलर वाला ही खिसका जा रहा है.
यही वो रेवड़ी है जो चीनी और तिल से बनती हैं, 15 किलो रेवड़ी बनने में दो घंटे का समय लगता है. इस समय रेवड़ी के भाव 120 रुपये किलो हैं. लखनऊ वालों को अपनी रेवड़ियों पर बहुत नाज़ है. उन्हें काफी बुरा लगता ही होगा कि इस तरह से रेवड़ियों की धुनाई हो रही है. सस्ती और टिकाऊ मिठाई होने की सज़ा इन रेवड़ियों को दी जा रही है. बाकी आप 5, 10, 20, 30 ट्रिलियन डॉलर की रेवड़ी का सपना देखते रहिए.
हमारी अर्थव्यवस्था का संकट ऊपर नहीं, नीचे दिखाई देता है जब आपको 25000 रुपया महीना कमाने वाले भी मुश्किल से नहीं मिलते हैं. इसलिए रेवड़ी संस्कृति पर फालतू की बहस चल रही है. इस बहस के ज़रिए विपक्ष को टारगेट किया जा रहा है और बहस कहीं से कहीं पहुंच जा रही है. जिस साल नोटबंदी हुई थी उस समय इसी तरह अर्थशास्त्री ऐंकर मैदान में उतर आए थे जैसे इन दिनों रेवड़ी संस्कृति को लेकर ज्ञान बांट रहे हैं. याद करना ज़रूरी है कि कैसे नोटबंदी के बाद गोदी मीडिया अर्थशास्त्री हो गया था. रेवड़ी संस्कृति की तरह काला धन दूर करने का मंत्र फूंकने लगा था.
गोदी मीडिया के एक चैनल की हेडलाइन थी कि दीजिए 50 दिन और मिलेगा सपनों का भारत. एक अन्य नल के कार्यक्रम का टाइटल था, ब्लैक मनी पे मोदी का सर्जिकल स्ट्राइक. तीसरे चैनल ने हेडलाइन लगाई- रिस्क के आगे मोदी है. बेनामी सम्पत्ति पे सर्जिकल स्ट्राइक. ब्लैक मनी का उपाय, पीयो कड़वी चाय. काले धन के खिलाफ मोदी का सीक्रेट मिशन. इन सब टाइटल और हेडलाइन से जो माहौल बनता है उसी तरह का माहौल रेवड़ी संस्कृति के नाम पर बनाया जा रहा है. बाकी भ्रष्टाचार पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसी तुकबंदियों का क्या हुआ, आप देख रहे हैं, प्रधानमंत्री अभी तक भ्रष्टाचार मिटाने के लिए प्रण दिलाने में लगे हैं.
सौरभ शुक्ला हमारे सहयोगी राजस्थान के जालौर में हैं. हम यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि हमेशा ही किसी घटना को लेकर नए-नए तथ्य आते रहते हैं, इसके प्रति हर किसी को सचेत होना चाहिए और खुले मन से देखना चाहिए. लेकिन इसी के साथ यह भी देखना चाहिए कि नए-नए सवालों को नए-नए तथ्यों के रूप में स्थापित करने के लिए कौन दबाव डाल रहा है ?
पंचायतें दबाव डाल रही हैं या कोई और दबाव डाल रहा है ? पंचायतों के दावों की रिपोर्टिंग हो सकती है लेकिन जिस तरह से जालौर के मामले में मटकी को गायब किया जा रहा है, उससे संदेह गहरा ही होता है. कोई मटकी गायब कर रहा है तो कोई मारने की बात गायब कर दे रहा है. 20 जुलाई को इंद्र कुमार मेघवाल को मारने की घटना होती है और केस दर्ज होता है 11 अगस्त को जब अहमदाबाद का अस्पताल कहता है कि ये मेडिको-लीगल केस है. अगर मारने की घटना नहीं थी, सहज बीमारी का मामला है, तब अस्पताल ने क्यों कहा कि मेडिको-लीगल केस है.
23 दिनों तक इंद्र मेघवाल के पिता दयाराम मेघवाल सात-सात अस्पताल भटके हैं. इसी की जांच होनी चाहिए कि अहमदाबाद के अस्पताल ने मेडिको लीगल केस कहा है तो बाकी को क्यों मेडिको-लीगल केस नहीं लगा ? हमने मीडिया रिपोर्ट से अस्पतालों के नाम की सूची तैयार की है. बागोदा के बजरंग हॉस्पिटल में दो दिन इलाज हुआ. भिनमाल के आस्था मल्टी-स्पेश्यालिटी हॉस्पिटल में एक दिन के लिए भर्ती हुआ. भिनमाल के त्रिवेणी मल्टीस्पेश्यालिटी हॉस्पिटल एंड ट्रामा सेंटर में दो दिन के लिए भर्ती हुआ. डीसा के कर्णी हॉस्पिटल में एक दिन के लिए भर्ती हुआ. उदयपुर के गीतांजली हास्टिपट में भर्ती हुआ और फिर अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में भर्ती हुआ, जहां उसकी मौत हो गई.
हमारे सहयोगी सौरभ शुक्ल को राजस्थान के एडीजी क्राइम रवि प्रकाश ने बताया कि अहमदाबाद के अस्पताल से फोन आया कि मेडिको लीगल केस दर्ज होना चाहिए. क्या इसकी जांच नहीं होनी चाहिए बाकी छह अस्पतालों को ऐसा क्यों नहीं लगा ? या अस्पताल प्रेस को कुछ, पुलिस को कुछ बता रहे हैं ? 17 अगस्त को प्रिंट की मोहना बासु ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि अहमदाबाद के उच्च स्तरीय सूत्र ने कहा कि जब बच्चे को सिविल अस्पताल लाया गया तब उसके शरीर पर चोट के निशान नहीं थे.
अभी हमने बताया कि हमारे सहयोगी को राजस्थान के एडीजी क्राइम ने बताया कि अहमदाबाद के अस्पताल से फोन आया कि मेडिको लीगल केस है. इंडियन एक्सप्रेस में अहमदाबाद के सिविल अस्पताल के मेडिकल अफसर रजनीश पटेल का बयान छपा है कि 15 अगस्त को पोस्टमार्टम हो गया है. विसरा जांच के लिए भेजा गया है. जांच रिपोर्ट आने के बाद ही मौत के कारणों का पता लगेगा. इसी अस्पताल का एक बयान प्रिंट की मोहना बासु की रिपोर्ट में छपा है कि इंद्र को लंबे समय से कान में इंफेक्शन का इलाज चल रहा था.
2017 की मेडिकल रिपोर्ट है प्रिंट में अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में एक उच्चस्तरीय सूत्र ने बयान दिया है कि इंद्र को CSOM नाम की पुरानी बीमारी थी, जिससे सुनने की क्षमता चली जाती है. सूत्र ने नाम नहीं बताया है लेकिन इस सूत्र ने यह तो नहीं कहा है कि इस बीमारी के कारण कोई मर जाता है. तो इस तरह से कई तरह के बयान मिलते हैं.
बीमारी और मरने के कारणों के बारे में डाक्टरी जांच से ही स्थापित हो सकेगा. हमने बस आपको ये बताया कि अलग-अलग जगहों पर क्या छपा है. पुलिस, डाक्टर, अस्पताल, परिवार, गांव के लोग और स्कूल के लोग क्या बोल रहे हैं. मीडिया रिपोर्ट में थप्पड़ मारने को लेकर कई तरह के प्रसंग मिल रहे हैं. टीचर का एक बयान छपा है कि उन्होंने एक थप्पड़ मारा है. कहीं छपा है कि तीन चार थप्पड़ मारे हैं. 17 अगस्त के भास्कर में आरोपी टीचर छैल सिंह का बयान छपा है कि बच्चे आपस में झगड़ रहे थे. इस पर मैंने एक थप्पड़ मारा था. बच्चे के कान में रस्सी आने की समस्या थी. इस दौरान बच्चे के मटके से पानी छूने से पिटाई के आरोपों से उन्होंने इनकार कर दिया.
भास्कर में ही यह कहानी इस तरह से छपी है कि चित्रकला की किताब को लेकर इंद्र और साथी राजेंद्र में झगड़ा हुआ, तब टीचर ने दोनों को एक एक चांटा मारा. क्या एक थप्पड़ मारने से समस्या इतनी गंभीर हो गई ? उसकी आंख कैसे सूजी हुई थी तब ? ये आंख कैसे सूजी हुई है, क्या एक थप्पड़ मारने से ? या कहानी कुछ और है ? इस सवाल का जवाब डाक्टर ही बता सकते हैं कि कान में रस्सी आने से क्या किसी की मौत होती है ? या उसे इतना मारा गया होगा जिससे उसकी हालत बिगड़ी है ? हमारे रिसर्च में तो यही निकल कर आया कि ज़्यादा से ज़्यादा सुनने की क्षमता जा सकती है. यह ज़रूर लिखा है कि आम तौर पर होता तो नहीं लेकिन दिमाग़ की नसों में रक्त जम सकता है.
इस रिपोर्ट में इंद्र की मां ने कहा है कि इंद्र का बड़ा भाई नरेश भी उसी स्कूल में पढ़ता है और तीन साल से जातिगत भेदभाव की शिकायत नहीं सुनी. मां कभी उस स्कूल नहीं गई हैं, मगर भास्कर से कहा है कि बेटे ने बताया था कि मटकी छूने के कारण मारा गया. यही बात उसके पिता ने कही है. पड़ोसी और गांव के बयान का मतलब घटना की जांच को लेकर नए सवाल पैदा कर रहा है, मगर सवालों का संबंध धारणाओं से है.
कई लोगों ने कहा है कि स्कूल में जातिगत भेदभाव नहीं होता था और छैल सिंह भी ऐसा नहीं करते थे. भास्कर अखबार में जालोर से भाजपा विधायक जोगेश्वर गर्ग का बयान छपा है, जिसमें वे कहते हैं कि सरस्वती विद्या मंदिर के एक पार्टनर राजपूत समाज से हैं और एक अनुसूचित जाति से हैं, कई शिक्षक भी अनुसूचित जाति के हैं. एक शिक्षक अनुसूचित जनजाति के हैं. ऐसे में अलग-अलग पानी पीने के बंदोबस्त नहीं हो सकते. विधायक का कहना है कि जांच रिपोर्ट का इंतज़ार करना चाहिए.
मीडिया में घटना के वक्त जालोर के एस पी हर्षवर्धन अग्रवाल का बयान है कि स्कूल में पानी की एक टंकी है. वहीं सारे लोग पानी पीते हैं. मटकी वाली बात की पुष्टि नहीं हुई है. 20 जुलाई को घटना हुई है. 13 अगस्त को इंद्र मेघवाल की मौत. इतने दिनों में मटकी फेंकी भी जा सकती है. तमाम स्कूलों में बच्चों और शिक्षकों के लिए पानी की व्यवस्था अलग-अलग होती है.
सौरव ने यह भी नोट किया कि जिस टंकी के बारे में कहा जा रहा है कि सभी एक साथ पानी पीते हैं उसमें दो नल लगे हैं. एक नल पुराना है जो नीचे हैं लेकिन दूसरा नल पर लगा सीमेंट ताज़ा है जो ऊपर है. क्या यह नया नल इसलिए लगाया गया क्योंकि सवाल उठ रहे थे कि पानी की टंकी में नल नीचे हैं, शिक्षक इतना झुककर पानी नहीं पी सकते. मटकी से पीते होंगे ? नया सीमेंट और नया नल का क्या एंगल है ?
सौरभ शुक्ल जालौर के सुराणा गांव गए थे. वहां से उनकी रिपोर्ट. एक रिपोर्ट और मिली है जो क्विंट नाम की वेबसाइट पर है. इसमें इंद्र के पिता और शिक्षक छैल सिंह की बातचीत की आडियो रिकार्डिंग है, जिसमें पिता पूछ रहे हैं कि ऐसे कैसे मार दिया तो शिक्षक कहते हैं कि मस्ती की होगी तो मार दिया. फिर शिक्षक कहते हैं कि ईलाज का खर्चा दे देंगे. उम्मीद है इन सभी पहलुओं की जांच होगी और सारे तथ्य विश्वसनीय तरीके से सामने आ सकेंगे.
बलात्कार की सज़ा काट रहे दोषी को अगर समय से पहले विशेष रिहाई दी जाए, उनका स्वागत फूल मालाओं से किया जाए तो निश्चित रुप से उसी समाज में रह रही उस महिला का विश्वास डगमगा जाएगा. जिस तरह से फूल माला पहनाने की घटना का बचाव किया जा रहा है, उससे पता चल रहा है कि इस मामले को भीतर भीतर राजनीतिक समर्थन देने की तैयारी हो रही है.
बिलकीस बानों ने कहा है कि दोषियों की रिहाई ने उसकी शांति छीन ली है. न्याय में उसके विश्वास को हिला दिया है. बिलकीस ने अपील की है कि उसकी सुरक्षा सुनिश्चित की जाए. बिलकीस ने पूछा है कि क्या किसी महिला के साथ इंसाफ़ का अंत इस तरह से होना चाहिए ?
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