दोस्त कहते हैं – प्रेम पर कविता क्यों नहीं लिखते ?
मैं दिखाता हूं उन्हें कई डायरियां,
कुछ भरी, कुछ अधूरी
आड़े – तिरछे रेखाचित्रों से सजे पन्ने
प्रेम कविताओं के ….
जिनमें से बहुत कम ही हैं जो पूरी हो सकीं
डायरी के पन्ने के बीच रखे गुलाब की
पंखुड़ियां सूख कर झड़ चुकी थीं
बचा हुआ था एक मुरझाया डंठल
प्रेम पर लिखने को
जब भी मैंने कलम चलाई
यथार्थ के पन्ने पर कांपने लगी कलम
मुश्किल में पड़ते गए शब्द
बिम्ब की तो बात ही मत पूछो
बुरी हालत थी उसकी
और सबसे बड़ी मुश्किल में तो
खुद ‘प्रेम’ शब्द ही फंसा हुआ मिला !
मैंने जब लिखना चाहा प्रेम, तो
पाया कि वह रुपए-पैसे के बदबूदार गटर में
किलोल कर रहा है …!
मैंने जैसे ही लिखना चाहा – प्रेम
मेरे सामने खड़े हो गए न जाने कितने खाप
कितनी खोजी निगाहें
‘संस्कृति’ के स्वयम्भू रक्षक
‘प्रतिष्ठा’ में ऐंठी मूंछें
शोहदे, लफंगे, पुलिस
पड़ोसी, परिवार, राज्य
टीवी खोला तो छिड़ी थी बहस
घूंघट और बुर्के पर
सनातन और शरीयत पर !
अखबारों के पन्ने भरे पड़े थे
बलात्कार की खबरों से ….
प्रेमियों तक ने किए थे बालात्कार
प्रेमिकाओं ने दिया था धोखा …!
मैंने न जाने कहां-कहां
कितने-कितने पार्क और मैदान तलाश डाले
तालाश किया नदी और समंदर का कोई
निरापद किनारा …जहां
दो जोड़ी नज़रें डूब सकती हों एक-दूसरे में
उन्मुक्त, स्वतंत्र, निर्विकार, निर्विघ्न
हम तलाश में भटकते रहे उस जगह की
जहां हम ले सकें निर्भय, निर्विरोध
एक गहरा प्रेम भरा चुम्बन …!
हमने हज़ार जोड़ी आंखों को घूरते हुए पाया
अपनी तरफ…. !
मैं चोरी-छुपे प्यार नहीं कर सकता था
सो मैंने जब भी लिखना चाहा – प्रेम
लिखने लगा – खाप
ज़रूरी पाया कि पहले
खाप पर लिखना ज़्यादा ज़रूरी है
और पुलिस और पड़ोसियों पर
शोहदों और लफंगों पर
सनातन और शरीयत पर
धन-संपत्ति, ओहदे-स्टेटस पर
लिखना बेहद ज़रूरी था मेरे समय में
ज़ाहिर है –
अधिकांश प्रेम-कविताएं कभी पूरी न हो सकी
- आदित्य कमल
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