मनीष आजाद
‘Even the Rain’— क्या हो जब असल क्रांतिकारी और फिल्मी क्रांतिकारी एक हो जाये ? यही दिलचस्प कहानी है 2010 में आयी एक महत्वपूर्ण फ़िल्म ‘Even the Rain‘ की. 2000 में स्पेन की एक फ़िल्म युनिट एक फ़िल्म की शूटिंग के लिए अमेरिका के सबसे गरीब देश बोलीविया में उतरती है. विषय है- कोलम्बस का लैटिन अमेरिकी देशों की विजय और इसके खिलाफ मूल नागरिकों का प्रतिरोध. ठीक वैसे ही जैसे भारत में अंग्रेजों के खिलाफ बिरसा मुंडा जैसे आदिवासियों का प्रतिरोध.
स्पेन की फ़िल्म युनिट ने बोलीविया को इसलिए चुना क्योंकि यहां गरीबी बहुत है, इसलिए फ़िल्म निर्माण का खर्च कम आएगा. यह तथ्य बखूबी यह स्पष्ट कर देता है कि कोलम्बस के अत्याचार पर फ़िल्म बनाने के बावजूद फ़िल्म युनिट कोलम्बस की परंपरा को ही ढो रही है. फ़िल्म में कास्ट किये गए लोकल एक्स्ट्रा लोगों को महज 2 डॉलर प्रतिदिन की दर से पेमेंट किया जाता है और उनसे बहुत तरह के अन्य श्रम साध्य काम (जैसे सेट बनवाना आदि) लिए जाते है. और इस तरह फ़िल्म निर्माण का खर्च बचाया जाता है.
इन्हीं लोकल एक्स्ट्रा लोगों से वह सलीब बनवाया जाता है, जिस पर कोलम्बस की सेना के खिलाफ विद्रोह करने वालों को फांसी दी जानी है, जिसके लीडर का रोल इन्ही में एक स्थानीय डैनियल ही कर रहा है. अपना सलीब खुद तैयार करने या करवाने का यह दृश्य काफी प्रतीकात्मक है और बिना मुखर हुए काफी कुछ कह जाता है.
लेकिन फ़िल्म का क्लाइमेक्स वहां से शुरू होता है जब फ़िल्म के डायरेक्टर और प्रोड्यूसर को यह पता चलता है कि डैनियल अपनी असल जिंदगी में भी एक विद्रोही की भूमिका निभा रहा है. वर्ल्ड बैंक के एक प्रोजेक्ट के तहत सन 2000 में बोलीविया में पानी का सम्पूर्ण निजीकरण कर दिया गया था. यहां तक कि आप बारिश का पानी भी इकट्ठा नहीं कर सकते. यहीं से इस फ़िल्म का नाम ‘Even the Rain‘ निकला. यहां पर असल न्यूज़रील के इस्तेमाल के कारण फ़िल्म और असरकारक हो जाती है.
डैनियल फ़िल्म में ‘हेतू’ (Hatuey) की महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, जो कोलम्बस की सेना के खिलाफ लड़ते हुए शहीद होने वाले पहले विद्रोहियों (2 फरवरी 1512 को शहीद) में से एक था. जहां फिल्मकार ने फ़िल्म युनिट द्वारा लोकल लोगों के शोषण को कोलम्बस की परंपरा से जोड़ा है, वही डैनियल व अन्य स्थानीय लोगों द्वारा पानी के निजीकरण के विरोध को ‘हेतू’ (Hatuey) की विद्रोही परंपरा से जोड़ा है.
बहरहाल डैनियल के पानी के निजीकरण के खिलाफ चल रहे आंदोलन में शामिल होने के कारण शूटिंग में काफी बाधा उत्पन्न हो रही है. डायरेक्टर और प्रोड्यूसर डैनियल को बदल भी नहीं सकते, क्योंकि फ़िल्म का काफी हिस्सा शूट हो चुका है. हद तो तब हो गयी जब आंदोलन में भागीदारी के कारण डैनियल को गिरफ्तार कर लिया गया. फ़िल्म का प्रोड्यूसर कोस्टा पुलिस को घूस देकर डैनियल को कुछ समय के लिए छुड़ा लेता है और पुलिस को आश्वासन देता है कि फ़िल्म में डैनियल को सूली पर चढ़ाने के बाद पुलिस आकर उसे सेट से गिरफ्तार कर ले. बुर्जुआ कला पर यह बहुत बड़ा व्यंग्य है. ‘यूज़ एंड थ्रो’ का पूंजीवादी सिद्धान्त कला में भी घुस जाता है.
खैर, शूटिंग के बाद जब पुलिस डैनियल को गिरफ्तार करने आती है तो फ़िल्म के सभी लोकल स्थानीय कलाकार पुलिस से भिड़ जाते हैं और डैनियल को भगा देते हैं. यह दृश्य फ़िल्म की जान है. यहां कला यथार्थ बन जाता है और यथार्थ कला हो जाती है. डैनियल फिर से आंदोलन में शामिल हो जाता है लेकिन इन सब के बीच फ़िल्म के प्रोड्यूसर कोस्टा का रूपांतरण होने लगता है. डैनियल के प्रति उसका सम्मान बढ़ने लगता है. वहीं दूसरी ओर फ़िल्म का निर्देशक इन सबसे परेशान होकर फ़िल्म पूरी करने का इरादा त्याग देता है और वापस जाने का निर्णय ले लेता है.
फ़िल्म के अंत में आंदोलन को दबाने के लिए सेना आ जाती है और पूरा शहर युद्ध भूमि में बदल जाता है. इस माहौल में डैनियल की बेटी कहीं खो जाती है. डैनियल का भी कुछ पता नहीं है. डैनियल की पत्नी फ़िल्म के प्रोड्यूसर कोस्टा से विनती करती है कि वह उसकी बेटी का पता लगाएं. कोस्टा अपनी जान जोखिम में डाल कर डैनियल की बेटी का पता लगता है और उसे हॉस्पिटल पहुंचाता है.
फ़िल्म के अंत में डैनियल के आन्दोलन की भी जीत होती है. डैनियल, कोस्टा का शुक्रिया अदा करता है और उसे एक छोटी-सी शीशी में बोलीविया का पानी गिफ्ट करता है जो अब ‘आजाद’ है. कोस्टा भी अब कोलंबस की परंपरा से आजाद है और अब वह विद्रोह की ‘हेतू’ (Hatuey) परंपरा का हिस्सा है.
फिल्म के साथ अमेरिका के मशहूर जन इतिहासकार ‘हावर्ड जिन’ का नाम जुड़ने से यह फिल्म और खास हो जाती है. इसकी पटकथा लिखने में हॉवर्ड जिन ने मशहूर पटकथा लेखक पाल लेवेर्टी (इन्होंने ‘केन लोच’ की ज्यादातर फिल्मों की पटकथा लिखी है) की मदद की है. फिल्म का निर्देशन ‘इसिया बोले’ (Icíar Bollaín) ने किया है. इन्होंने भी केन लोच की मशहूर फिल्म ‘लैंड एंड फ्रीडम’ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
Read Also –
Cairo 678 : पुरुषों के लिए एक बेहद जरूरी फ़िल्म
उलगुलान: एक शानदार जनवादी फिल्म
‘यूटोपिया’ : यानी इतिहास का नासूर…
भारतीय सिनेमा पर नक्सलबाड़ी आन्दोलन का प्रभाव
‘ज्वायलैंड’ : लेकिन शहरों में जुगनू नहीं होते…
एन्नु स्वाथम श्रीधरन : द रियल केरला स्टोरी
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]