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अगर सांप्रदायिकता के खिलाफ़ हम लड़ रहे हैं तो किसी तबके पर एहसान नहीं कर रहे

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Ashok kumar Pandeyअशोक कुमार पांडेय

अफगानिस्तान का उदाहरण लेकर मित्रों का इरादा यह बताने का था कि मुस्लिम बहुल देशों में अन्य धर्म के लोग नहीं रह सकते. मेरी ट्रेनिंग अर्थशास्त्र और सांख्यिकी की है. हमें सिखाया जाता है कि कभी ऐसे सैंपल पर भरोसा न करो जो असामान्य हो.

अफगानिस्तान का इतिहास और वहां सोवियत-अमेरिकी तमाशों को जानने वाले जानते हैं कि 1980 के दशक में वहां के हालात क्या हुए और उनके चलते वहां से कितने ही हिन्दू-मुसलमानों-सिखों को पलायन करना पड़ा. अभी हाल की घटना के बाद वहां जो पलायन हुआ, उसमें मुसलमानों को देश छोड़कर भागते नहीं देखा आपने ?

खैर, मैं कुछ सामान्य उदाहरण लेता हूं. मलेशिया में पिछले बीस सालों से हिंदुओं की संख्या लगभग 6.3 प्रतिशत (17,80000) है. 19% बौद्ध और 9 प्रतिशत ईसाई भी हैं और लगभग 2 प्रतिशत नास्तिक, 1,20000 सिख हैं.

UAE, बहरीन और कुवैत में रहने वाले हिंदुओं की संख्या लगभग 10% है तो क़तर में 15.9%. ओमान में साढ़े पाँच प्रतिशत जनसंख्या हिंदुओं की है तो टर्की, जॉर्डन और लेबनान में 0.1 प्रतिशत. पश्चिम एशिया में कुल हिंदुओं की संख्या है – 1,074,728,901. 1978 के बाद इन देशों में हिंदुओं की सुरक्षा को लेकर कोई बड़ा सवाल सामने नहीं आया है.

पाकिस्तान में बांग्लादेश बनने के बाद एक बड़ी आबादी बांग्लादेश के हिस्से आई. इसके बाद बचे हिंदुओं की संख्या में 1951 से अब तक लगातार वृद्धि हुई है. 1951 में पाकिस्तान में 1.3% हिन्दू थे, अब 2.14%. बांग्लादेश में जरूर प्रतिशत घटा है और अब 8.5% हिन्दू हैं, जिसका एक बड़ा कारण वहां बीच के दौर में कट्टरपंथियों के दबाव के कारण बांग्लादेश से भारत में पलायन था. इस पलायन में भारी संख्या में मुसलमान भी बाहर गए. लेकिन इसके बावजूद हिंदुओं की कुल संख्या बढ़ी है. 1961 में वहां 9,379,669 हिन्दू थे और अब 12,730,651.

यह कहना बेवकूफी होगी कि अल्पसंख्यक होने के कारण उन्हें असुविधाएं नहीं झेलनी पड़तीं, लेकिन यह तो अब भारत के लिए भी नहीं कहा जा सकता. सिखों को तो ऑस्ट्रेलिया में भी झेलना पड़ा. योरप-अमेरिका भी इस मामले में एकदम बेदाग नहीं.

उदाहरण और दिए जा सकते हैं. विभाजन के समय जिस बड़ी संख्या में हिन्दू पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए भारत में, उसी संख्या में यहां से मुसलमानों को भी जाना पड़ा. दोनों को बराबर मात्रा में क्रूरता झेलनी पड़ी. एक को लक्षित कर दूसरे को कोसना ग़लत इतिहास दृष्टि होगी.

इतिहास में ही जाएंगे तो भारत में बौद्धों पर किये अत्याचार याद करने पड़ेंगे. राहुल सांकृत्यायन सहित कितने ही लोगों का मानना है कि ढेरों हिन्दू मंदिर बौद्ध मंदिरों को तोड़कर बनाए गए, यहां तक कि बद्रीनाथ भी. श्रीलंका में जाना पड़ेगा जहां अत्याचारी का धर्म अलग मिलेगा. उदाहरण जितने चाहेंगे, मिल जाएंगे अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के, बस बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के धर्म बदलते जाएंगे.

इतिहास में जाएंगे तो थोड़ा ठहर कर सोचना पड़ेगा कि मध्यकालीन बर्बरता के युग में 700 साल भारत पर शासन के बाद भी बाक़ी देश छोड़ दीजिए, दिल्ली तक मुस्लिम बहुल क्यों नहीं बन सकी ? अगर इस्लाम बाक़ियों को नहीं रहने देता, तो भारत में क्यों रहने दिया तलवार की असीम ताक़त के बावजूद ?

सवाल बस इतना है कि आपकी आस्था एक बहु-धार्मिक लोकतान्त्रिक देश में है या नहीं ? आप अफगानिस्तान का बदला भारत में लेना चाहते हैं या उससे यह सीख लेना चाहते हैं कि धार्मिक उन्माद किसी हंसते-खेलते देश को तबाह-ओ-बर्बाद कर सकता है.

जातीय-धार्मिक समूहों में धारणाएं बनती ही रही हैं दूसरों के खिलाफ़. मुसलमान हिंदुओं को गंदा मानते रहे हैं, हिन्दू मुसलमानों को. सफाई की अवधारणा ही अलग-अलग रही है. कल एक वामपंथी लेखक ने लिखा ‘बेशक मुसलमान अधिक कट्टर होते हैं.’

यह भी एक अवधारणा है जहां टोपी लुंगी कट्टर नज़र आती है लेकिन धोती तिलक सम्माननीय. सवर्णों के मन में दलितों-पिछड़ों को लेकर जो दुराग्रह हैं, वह कम हैं ? औरतों को तो सब कमतर मानते रहे हैं. ईसाइयों की कट्टरता किसी को दिखाई नहीं देती, लेकिन मध्यकाल में कम तबाही तो उन्होंने भी नहीं मचाई.

जहां गांधी को मार दिया गया धर्म बचाने के नाम पर और हत्यारों का महिमंडन करने वाली आतंक के आरोपी बहुमत से जीत कर आए, उसे नज़रअंदाज़ कर देना और दूसरों पर अंगुली उठाना कितना आसान है !

एक तरीक़ा है धर्मों से मुक्ति लेकिन यह दूर की कौड़ी लगती है. दूसरी युक्ति गांधी ने सुझाई थी- जो जहां बहुसंख्यक है, अल्पसंख्यकों को सुरक्षा दे. यह मुझे कारगर लगती है, बहुधार्मिक देशों में.

बैलेंस करना अच्छी बात है कभी-कभी. लेकिन बैलेंस करने के लिए ऐसे उदाहरण से ग़लत निष्कर्ष पर पहुंचना खतरनाक है. तथ्य और तर्क की जगह मन में बनी अवधारणा से बात करना रोचक हो सकता है, लेकिन है ग़लत.

एक चीज़ साफ़ रखनी चाहिए दिमाग में कि अगर सांप्रदायिकता के खिलाफ़ हम लड़ रहे हैं तो किसी तबके पर एहसान नहीं कर रहे, लेखक और नागरिक होने के नाते बस अपने फ़रायज़ निभा रहे हैं.

अगर मुसलमानों को लगता है कि मुग़ल काल में उनकी मौज़ थी तो वे ग़लतफ़हमी में हैं. अगर हिंदुओं को लगता है कि हिंदू राजाओं के दौर में उनकी मौज थी तो वे भी ग़लतफ़हमी में हैं. राजा के लिए साफ़ था, जो ख़िलाफ़ गया वह दुश्मन. ख़ुद सब महलों में रहते थे जनता का बड़ा हिस्सा झोपड़ों में.

धर्म का इस्तेमाल दोनों ने राजनीति के लिए किया वरना हिंदू राजा हिन्दू राजाओं से नहीं लड़ते और मुस्लिम मुस्लिम राजाओं से नहीं लड़ते. लोकतंत्र इस खेल से मुक्ति दिलाने के लिए आया था. इतिहास पढ़ने के लिए है, सीखने के लिए है. न दुहराने के लिए है और न बदला लेने के लिए.

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ROHIT SHARMA

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