Home गेस्ट ब्लॉग ‘त्रोत्सकी जैसों को अगर खत्म नहीं किया जाता तो क्रोधोन्मत्त लोग पीट-पीटकर मार डालते’ – राहुल सांस्कृत्यायन

‘त्रोत्सकी जैसों को अगर खत्म नहीं किया जाता तो क्रोधोन्मत्त लोग पीट-पीटकर मार डालते’ – राहुल सांस्कृत्यायन

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राहुल सांकृत्यायन (9 अप्रैल 1893 – 14 अप्रैल 1963) जिन्हें महापंडित की उपाधि दी जाती है, हिंदी के एक प्रमुख साहित्यकार थे. वे एक प्रतिष्ठित बहुभाषाविद् थे और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में उन्होंने यात्रा वृतांत/यात्रा साहित्य तथा विश्व-दर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक योगदान किए. वह हिंदी यात्रासाहित्य के पितामह कहे जाते हैं. बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिंदी साहित्य में युगान्तरकारी माना जाता है, जिसके लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक भ्रमण किया था. इसके अलावा उन्होंने मध्य-एशिया तथा कॉकेशस भ्रमण पर भी यात्रा वृतांत लिखे जो साहित्यिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं.
प्रस्तुत आलेख राहुल सांस्कृत्यायन लिखित प्रसिद्ध पुस्तक ‘दिमागी गुलामी’ के अंतिम अध्याय ‘रुस में ढ़ाई मास’ है, जिसमें उन्होंने सोवियत संघ के निर्माण में स्टालिन की भूमिका की विशद चर्चा की है, वहीं त्रात्स्की जैसे गद्दार का पूरा चरित्र चित्रण भी दिन के उजाले की तरह पूर्ण स्पष्टता के साथ कर दिया है. उन्होंने लिखा है कि अगर त्रात्स्की और उनके जैसे ‘लेनिन’ के साथियों को दंडित नहीं किया गया होता तो आम जनता उन्हें पीट-पीटकर मार डालती क्योंकि वे लोग तोड़फोड़ कर सोवियत संघ को नष्ट कर डालना चाहते थे.
स्टालिन और सोवियत संघ के खिलाफ साम्राज्यवादी दुश्प्रचार के बारे में जैसा कि राहुल सांस्कृत्यायन इसी लेख में लिखते हैं ‘इस प्रकार सच का झूठ करना तभी तक होता रहेगा जब तक कि सोवियत-शक्ति एक भारी युद्ध में अपनी सबलता को सिद्ध नहीं कर देती और क्या जाने, इसके बाद भी, जब तक कि भूमण्डल पर पूंजीवाद का अस्तित्व है, ऐसे झूठे प्रचार भी कभी बन्द होंगे ?’ अक्षरशः सच साबित हुआ, जब सोवियत संघ ने द्वितीय विश्वयुद्ध में अपनी वैचारिक ही नहीं, सामरिक ताकत का भी बेजोर प्रदर्शन किया और फासिस्ट हिटलर को ध्वस्त किया. लेकिन जैसा कि राहुल ने बताया है कि साम्राज्यवादी दुश्प्रचार इसके बाद भी बंद नहीं हुआ.
राहुल सांस्कृत्यायन का छोटा सा यह महत्वपूर्ण आलेख सोवियत संघ में स्टालिन की भूमिका और गद्दार त्रात्स्की जैसों की गद्दारी पर आज भी जिस तरह बहस चल रहा है, उसमें यह लेख निर्णायक सिद्ध होगा, जिसे एक भारतीय विद्वान राहुल सांस्कृत्यायन ने कलमबद्ध किया है, हम अपने पाठकों के सामने यह लेख प्रस्तुत कर रहे हैं. इसके साथ ही यहां हम यह भी साफ कर देना चाहते हैं कि इस लेख को लिखने के लिए राहुल सांस्कृत्यायन को स्टालिन ने न तो पैसों का लालच दिया था और न ही कनपट्टी पर बंदूक ही भिड़ाया था. यह आलेख एक स्वतंत्र घुमक्कड़ साहित्यकार का अपना खुद का अनुभव था – सम्पादक
'त्रोत्सकी जैसों को अगर खत्म नहीं किया जाता तो क्रोधोन्मत्त लोग पीट-पीटकर मार डालते' - राहुल सांस्कृत्यायन
‘त्रोत्सकी जैसों को अगर खत्म नहीं किया जाता तो क्रोधोन्मत्त लोग पीट-पीटकर मार डालते’ – राहुल सांस्कृत्यायन

‘मैं कुल साढ़े चार मास स्वदेश से बाहर रहा’ – डेढ़ मास रूस जाते समय ईरान में, दो सप्ताह आते समय अफगानिस्तान में, ढाई मास सोवियत रूस में. गया था दर्रा बोलन से, आया खैबर के दर्रे से. हिन्दुस्तान और रूस की सीमा के भीतर तो रेलवे ट्रेनें मिलीं, ईरान और अफगनिस्तान की सैर मोटर द्वारा हुई, कैस्पियन समुद्र जहाज से. 12 नवम्बर को सोवियत-सीमा में प्रवेश किया, 26 जनवरी को वहां से प्रस्थान. इस प्रकार रूस के जाड़े के अनुभव का मौका मिला. सिवाय काकेशश और मध्य-एशिया के कुछ भाग के, सभी जगह की भूमि बर्फ से आच्छादित थी. खेत आदि की जुताई सिर्फ उन्हीं भू-भागों में देखी.

सोवियत रूस के बारे में भ्रम तो अभी बहुत समय तक फैलता रहेगा. सारी दुनिया के अखबारों के गला फाड-फाड़कर असफलता की पुकार करने पर भी संसार में साम्यवाद का प्रभाव इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि यदि पूंजीवादी जगत सोवियत देश में साम्यवाद की सफलता का प्रचार करने लगे, तो फिर उसकी क्‍या गति होगी ? सोवियत-सीमा से दूर के देशों की बात छोड़ दीजिये. वक्षु (आमू) नदी सोवियत और अफगानिस्तान की सीमा है. मैंने अफगानिस्तान के भीतर के लोगों को बड़ी गम्भीरता से कहते सुना – ‘रूसी किसानों के भीतर रोटी का अकाल है.’ उनको यह भी नहीं मालूम कि बीसवीं शताब्दी में रूस में सबसे अच्छी फसल 1913 में हुई थी. रूस में 1937 में गेहूं की फसल 1913 से ठीक दुगुनी हुई. 1930-31 में धनी किसानों की स्वार्थपरता और प्रचार के कारण खेत कम बोये गये थे, मवेशी मार डाले गये थे, इसलिए रोटी का अकाल-सा पड़ गया था. उस वक्‍त कुछ ‘कुलक’ सोवियत-सीमा से भागकर अफगानिस्तान में भी चले गये थे. 1930-31 की आर्थिक अवस्था से अब जमीन-आसमान का अन्तर है, तो भी इस पार के अफगानों के लिए अभी तक सोवियत-राष्ट्र के लिए ‘रोटी का अकाल’ चला ही जा रहा है.

लोगों की आर्थिक अवस्था, शिक्षा और संस्कृति का धरातल हर साल, क्या हर महीने ऊंचा होता जा रहा है. हर साल पांच, दस और पन्द्रह फीसदी तक वेतन बढ़ाया जा रहा है और दूसरी ओर जैसे-जैसे चीजों की उपज फैक्टरियों की वृद्धि और कार्यकर्त्ताओं की कार्य-कुशलता के अनुसार बढ़ती जा रही है, वैसे ही वैसे चीजों का दाम घटाया जा रहा है. वेतन देना और चीजों का बेचना सरकार के हाथ में है.

पिछले दो वर्षों में खाने-पीने की कितनी ही चीजों की कीमत में ‘पच्चीस-पच्चीस, तीस-तीस फीसदी कमी की गयी है. मेरे वहां रहते अस्पताल की दाइयों की तनख्वाहों में 15 फीसदी की वृद्धि की गयी. इस प्रकार वेतन-वृद्धि और चीजों के मूल्य घटाने से एक ओर लोग जीवन की सुख-सामग्री को अधिक पा रहे हैं, दूसरी ओर वहां 5-6 वर्षों से बेकारी एकदम उठ गयी है. स्वस्थ रहने पर आदमी के लिए काम हाजिर है. बीमारी या किसी और कारण से काम करने के अयोग्य होने का सारा भार सरकार अपने ऊपर लेती है. इस प्रकार मनुष्य को ‘कल की चिन्ता’ बिल्कुल नहीं है. इसमें शक नहीं कि इंग्लैण्ड और अमेरिका के मजदूर रूस के बहुत से मजदूरों से इस वक्‍त अधिक वेतन पाते हैं, लेकिन जहां उन देशों के मजदूरों के सर पर हमेशा बेकारी की नंगी तलवार लटकती रहती हो, वहां सोवियत-श्रमजीवी ‘कल के लिए’ बिल्कुल निश्चिन्त हैं. साथ ही उनका वेतन भी दिन पर दिन आगे की ही ओर बढ़ रहा है.

जिस नये सोवियत-विधान के अनुसार 12 दिसम्बर को महासोवियत के 1143 सभासदों (deputies) का चुनाव हुआ है, उसके महत्त्व को कम करने के लिए पूंजीवादी देशों ने बड़ी कोशिश की और अब भी कर रहे हैं. कोई कहता है – ‘चुनाव क्या है, धोखे की टटूटी है.’ कोई कहता है – ‘स्तालिन और कम्युनिस्ट पार्टी ने लोगों को धमकाकर अपने लिए वोट लिया है.’ नया विधान कहां तक प्रजासत्तात्मक है और कहां तक लोगों को वोट देने की स्वतन्त्रता उसमें है, यह निम्न बातों से मालूम हो जायेगा –

  1. 2 दिसम्बर, 1937 से पहले पुराने जमींदारों, पूंजीपतियों, पुरोहितों, कुलकों (धनी किसान) और क्रान्ति-विरोधियों की संतानों को वोट देने या उम्मीदवार होने का अधिकार नहीं था. नये विधान ने 8 वर्ष से ऊपर की अवस्था के सभी स्त्री-पुरुषों को वोट का अधिकार दे दिया. धन, विद्या आदि की योग्यता का इसमें कोई खयाल नहीं है.
  2. वोट का पर्चा और लिफाफा हर एक आदमी को गुप्त रूप से निशान करके डालने के लिए मिलता है. वोट देने का ढंग ऐसा रखा गया है कि वोटर ने किसको वोट दिया, सिर्फ वही जान सकता है.
  3. जिसे 5 फीसदी वोट नहीं मिले, वह सभासद नहीं चुना जाता.
  4. नामजद करने का अधिकार ट्रेड यूनियन आदि संस्थाओं अथवा किसी भी सार्वजनिक सभा को दिया गया है. चूंकि सोवियत का कोई व्यक्ति ऐसी सम्पत्ति नहीं रखता जिसकी सहायता से वह चुनाव का प्रचार कर सके, या बड़ी-बड़ी सभाएं संगठित कर सके. चुनाव के प्रचार का सारा खर्च व्यक्ति के ऊपर न होकर संस्थाओं के ऊपर पड़ता है, इसीलिए नामजद करना भी उन्हीं के हाथ में दिया गया है.

सोवियत चुनाव के नियमों में कोई ऐसी बात नहीं है कि जिससे एक चुनाव-क्षेत्र में दूसरा प्रतिद्वन्द्दी उम्मीदवार न खड़ा किया जा सके. लेकिन कम्युनिस्ट-पार्टी अपनी सेवाओं से वहां इतनी सर्वप्रिया पार्टी है कि मुकाबिलों में ‘पराजय का निश्चय समझ सामने आ ही कौन सकता है ? केन्द्रीय कौंसिल के कुछ पुनर्निर्वाचनों में भारतीय कांग्रेस के उम्मीदवारों के सामने कोई उम्मीदवार जैसे खड़ा नहीं हुआ, वैसे ही वहां भी प्रतिद्वन्द्दी को खड़ा होने की हिम्मत नहीं होती.

सोवियत और स्तालिन के विरोध में हजारों झूठी बातों का प्रचार करना और साथ ही त्रोत्सकी की सेवाओं और योग्यता के लिए आसमान तक पुल बांधना पूंजीवादी पत्रों का धर्म-सा हो गया है. त्रोत्सकी की प्रशंसा और साम्यवाद में उसकी निष्ठा को तो ऐसे शब्दों में चित्रित किया जाता है कि मालूम होता है मानो ये पूंजीवादी पत्रकार संसार में साम्यवाद लाने के लिए लालायित-से हो रहे हैं. सोवियत साम्यवाद की सफलता का धरती पर एक ठोस साकार रूप है, इसलिए वे उसको लोगों की आंखों से ओझल रखना चाहते हैं. उसकी जगह पर उसके विरोधियों और उनके विरोधी मनोभावों को वे लोगों के सामने लाना चाहते हैं.

सोवियत शासन और उसका प्रधान नेता स्तालिन कितना सर्वप्रिय है, यह इसी से मालूम हो सकता है कि पिछले चुनाव में 2 दिसम्बर की-सी सर्दी और धरती के षष्ठांश तक विस्तृत देश में कष्ट उठाकर साढ़े 96 फीसदी वोटरों ने अपना वोट दिया था. पिछले दस वर्षों में अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों में निर्वाचन हुए हैं, लेकिन कहीं पर 83 फीसदी से अधिक लोग निर्वाचन-स्थान पर नहीं पहुंचे. स्तालिन के निर्वाचन-क्षेत्र के बोटरों में से तो एक भी उस दिन अनुपस्थित नहीं रहा.

स्तालिन की बात को वहां शिरोधार्य मानते हैं. कार्ल मार्क्स साम्यवाद के तत्त्व का द्रष्टा था, उसने सच्चाई को ऐतिहासिक प्रमाणों, आर्थिक कठिनाइयों और वैज्ञानिक युक्तियों से प्रमाणित कर संसार के श्रमजीवियों के सामने रखा. कितनों के दिमाग ने इस सच्चाई को स्वीकार कर लिया, लेकिन पूंजीवादियों के स्वार्थ और उनकी रक्षा के बड़े-बड़े साधन उस सिद्धान्त के धरती पर आने के रास्ते में बाधक थे. लेनिन की विशेषता थी एक सफल साम्यवादी क्रान्ति को भूतल पर लाना, जिसमें कितनी ही बार उसे पूर्ण असफलता ही मिली थी. खैर, साम्यवादी क्रान्ति जार के साम्राज्य में हो गयी. देशी और विदेशी पूंजीवादियों ने उसे हर तरह दबाने की कोशिश की और वह उसमें विफल हुए, लेकिन तो भी लेनिन के समय उपज के सभी साधनों में से बहुत कम व्यक्तियों के हाथ से निकलकर समाज के हाथ में आये थे. खेती ही नहीं, वाणिज्य-व्यवसाय भी बहुत कुछ व्यक्तियों के हाथ में था जब कि 1924 ई. के आरम्भ में लेनिन का देहान्त हुआ. शहर से लेकर गांव तक की जनता को साम्यवादी समाज के रूप में परिणत करना स्तालिन का काम था. यह मार्क्स और लेनिन के काम से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है. जिस वक्‍त लेनिन की मृत्यु के बाद कल-कारखानों को बढ़ाकर देश के उद्योगीकरण का कार्यक्रम स्तालिन ने सामने रखा, तो एक तरफ बुखारिन आदि नरम-दली कहते थे कि जल्दी हो रही है, इसमें सफलता नहीं होगी, देश को भारी नुकसान पहुंचेगा.

दूसरी ओर त्रोत्सकी जैसे गरम-दली कहते थे कि बिना सारे संसार में क्रान्ति हुए. साम्यवाद एक मुल्क में स्थापित नहीं हो सकता. इसलिए हमें अपनी सारी शक्ति रूस को ही साम्यवादी और उद्योगपूर्ण बनाने में न लगाकर अन्तरराष्ट्रीय क्रान्ति की ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए. स्तालिन ने इन विरोधों के बावजूद अपने प्रोग्राम को लोगों के सामने रखा और उसे उसमें सफलता हुई. प्रथम पंचवर्षीय योजना के समय भी दाहिने-बायें पार्टी वाले इसी तरह विरोध करते रहे, लेकिन, सोवियत जनता ने अपनी आंखों से इन योजनाओं द्वारा आशातीत आर्थिक सफलता देखी.

स्तालिन के नेतृत्व में रूस के नष्टप्राय उद्योग-धन्धे 1927 तक महायुद्ध के पहले की अवस्था से आगे बढ़ गये और प्रथम और दूसरी पंचवर्षीय योजनाओं की समाप्ति के बाद तो सोवियत-प्रजातन्त्र यूरोप का सबसे बड़ा उद्योग-धन्धा-परायण देश हो गया. तृतीय पंचवर्षीय योजना द्वारा सोवियत प्रजातन्त्र चाहता है कि अमेरिका को भी मात कर उद्योग-धन्धे में वह संसार में प्रथम स्थान ग्रहण कर ले.इन पंचवर्षीय योजनाओं का आरम्भिक वर्षो में लोग मजाक उड़ाया करते थे और अब सफलता के बाद हर देश उनका अनुसरण करना चाहता है. इन योजनाओं द्वारा सोवियत जनता ने अपने भूख और बेकारी के दिनों की जगह पर सुख-समृद्धि के दिन देखे, अविद्या और निरक्षरता की जगह ज्ञान और कला का प्रचार सार्वजनिक होते देखा. अभी दस वर्ष पहले उनकी कैसी हीन दशा थी, यह बहुतेरे सोवियत नागरिकों को भली प्रकार मालूम है. स्तालिन की योजनाओं की यही सफलताएं हैं, जिन्होंने उसे इतना लोकप्रिय बना दिया है. कुछ लोगों के लिए इस लोकप्रियता को समझना मुश्किल है. वह समझते हैं कि महज एक आदमी, जो न ईश्वर की तरफ से भेजा गया है, और जिसमें न वैसी दैवी चमत्कार हैं, भला कैसे इतना जनप्रिय हो सकता है !

जब-तब कितने ही षड्यन्त्रकारियों को सोवियत सरकार ने जो दण्ड दिये हैं, उसे बढ़ा-चढ़ाकर पूंजीवादी पत्रों ने इस प्रकार संसार में फैलाया है कि कितने ही लोग समझते हैं कि सोवियत शासन की नींव बहुत कमजोर है, हिंसा और आतंकवाद के सहारे उनका शासन चल रहा है. वोरोशिलोफ, मोलोतोफ, बुदयन्मी, ब्लूचर, आदि जैसे क्रान्ति के महानायकों को अब भी वैसी ही लगन से काम करते देखते हुए भी जहां दो-चार पुराने क्रान्तिकारियों में से अपने अपराध के लिए दण्डित हुए, पूंजीवादी पत्रों ने हल्ला करना शुरू कर दिया कि ‘लेनिन’ के साथी सभी क्रान्तिकारी, स्तालिन के षड्यन्त्र के शिकार हो चुके. सजा पाये लोगों की ओर दृष्टि डालने से मालूम होगा कि उनमें सभी ऐसे बुद्धिजीवी व्यक्ति हैं, जिन्हें अपनी महत्त्वाकांक्षाओं में नाउम्मीद होने के कारण सफल पार्टी और उसके नेताओं के प्रति विद्वेष पैदा हो गया है. शिक्षित बुद्धिजीवी वर्ग चाहे वैसे कितना ही उदार और त्यागी हो, लेकिन उससे स्वार्थ और महत्त्वाकांक्षा को धक्का लगते ही वह इतना नीचे उतर आता है जितना नीचे अशिक्षित साधारण जन उतरने की हिम्मत नहीं रख सकते. सोवियत प्रजातन्त्र में उद्योग-धन्धे बहुत ज्यादा केन्द्रित हो गये हैं और उनमें यन्त्रों का अत्यधिक प्रयोग हुआ, इसलिए एक व्यक्ति असन्तुष्ट होने पर ज्यादा नुकसान कर सकता है.

एक यन्त्र-विशेष को खराब कर वह दो सप्ताह दस कर्मचारियों को बेकार बैठा सकता है. रेल की सूचनाओं में गड़बड़ी कर ट्रेनों को लड़ा सकता है, गहरी खानों की पम्पों को खराब कर उनमें पानी भरवा सकता है. जिन लोगों को हाल में सोवियत सरकार ने कड़ी-कड़ी सजाएं दी हैं, उन्होंने यही अपराध किये थे. उनके पीछे जनता की कोई सहानुभूति नहीं, वस्तुत: वे जेलों में पकड़कर बन्द न किये गये होते, तो लोग क्रोधान्ध हो उन्हें अमेरिका के गोरों की तरह ‘लेविन’ से मार डालते. ऐसे लोगों को सोवियत-शासन और स्तालिन के जुल्म का ‘शहीद !’ उद्घोषित करना विदेशी पूंजीवादियों के अपने मतलब की बात है और इस प्रकार सच का झूठ करना तभी तक होता रहेगा जब तक कि सोवियत-शक्ति एक भारी युद्ध में अपनी सबलता को सिद्ध नहीं कर देती और क्या जाने, इसके बाद भी, जब तक कि भूमण्डल पर पूंजीवाद का अस्तित्व है, ऐसे झूठे प्रचार भी कभी बन्द होंगे ?

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