मनीष सिंह
अतीक अहमद बहुत ही सीनियर पॉलिटिशियन रहे. जन जन के नेता, और युवा हृदय सम्राट अतीक जी, 1989 में प्रथम बार विधायक तब बने, जब इस देश की मौजूदा संसद और विधायिकाओं के 90 फीसदी लोग गली में कंचे खेला करते थे.
औरों को क्या गिनें, हमारे मौजूदा प्रधानसेवक प्रथम बार गुजरात में विधायक चुने गए. अतीक जी इधर चार टर्म के विधायक हो चुके थे. असल में उन्होंने पहली बार उन्होंने संसद की साीढियों पर माथा टेका, अतीक सांसद होकर, टर्म पूरा करके, रिटायर हो चुके थे.
वे एक गम्भीर और लोकप्रिय जनसेवक थे. प्रयागराज की जनता की आंखों के तारें … इतने बड़े तारे कि अगर कोई पार्टी टिकट दे, या न दे.. जनता निर्दलीय ही अतीक अहमद को जिताती थी.
और अतीक अपने बाहुबल के इलाके में कभी माया को जिताते, कभी राम को. यह अलग बात कि जब नमाजवादियों को जिताने लगे, तो माया मिली न राम…!
यही इतिहास है.
चुनाव जीतना, बार बार जीतना, जितवाना…दरअसल सत्य ईमान का पुतला, याने मर्यादा पुरुषोत्तम बन जाने का सबूत होता है. यह सबक हमने टीवी पर सीखा। ऐंकर चीखता है अगर मौजूदा सरकार की नीति और उसके लोग इतने ही गलत हैं, तो भला जनता उन्हें बार बार चुनाव क्यों जितवा रही है ???
यही सवाल मैं अतीक अहमद के विरोधियों से पूछता हूं क्योंकि आख्रिकार अतीक अहमद के के पास जनता के दिये हुए जितने निर्वाचन सर्टिफिकेट रखे हैं, उनकी गणना प्रधानसेवक, ग्रूह सेवक और राज्य के मुख्यसेवक को मिले सर्टिफिकेट से ज्यादा हैं.
इस पर भी प.पू. अतीक जी अहमद पर माफियागिरी और अपराध का आरोप शांत नहीं होता तो आखिर अतीक अहमद की गलती क्या थी ??
गहन विश्लेषण के बाद समझ आया कि अतीक जी के पास संगठन नहीं था. एक अच्छा प्रचार सेल और डेडिकेटेड कार्यकर्ता नहीं थे. जनता न नीति देखती है, न अपना सुख-दु:ख, न छवि, न आपराधिक इतिहास.
वोट खराब नहीं करती इसलिए जीत की संभावना देखती है. वो संगठन, माहौल, कार्यकर्ता देखती है, उसकी मेहनत देखती है, पसीज जाती है.
संगठन, मीडिया, पैसा, होते आज व्हाट्सप में अतीक के एक-एक लोमहर्षक कांड को न्यायपूर्ण कार्यवाही बताकर छवि उज्ज्वल कर दे सकती थी. जहां भी उसने हथियार उठाये, उसके पहले की एक कहानी बता देती कि यह हमला तो मजबूर प्रतिक्रिया थी, क्रिया नहीं थी.
क्रिया-प्रतिक्रिया के कारनामे वाले नेता ही इस दौर में सशक्त करार दिए जाते हैं. साफ-सुथरी, गैर आपराधिक पृष्ठभूमि हो तो वह पप्पू होता है, सांसदी के अयोग्य करार दिया जाता है. हमारा इलेक्टोरेट हत्यारों को, कानून का मजाक बनाने वालों को पसन्द करता है. सर माथे बिठाता है, बार बार चुनता है.
बस नेता को गरीब परिवार से उठा होना चाहिए. अतीक भी गरीबी से उठे, परिवार से उठकर संघर्ष किया, मगर सरकार न बना सके.
सरकार बना लेते तो उन्हें अप्रशिक्षित सड़क छाप शोहदों की जरूरत न होती. पूरा संवैधानिक तन्त्र, उनके माफिया तन्त्र का कारिंदा बन जाता. अकादमी से प्रशिक्षित सरकारी सेवक उनके लिए छिनैती, फ्रॉड, कब्जा, दादागिरी, धमकीबाजी, अपहरण (आप कस्टडी कह लें) का काम करते. वह भी सरकारी खर्चे पर… निष्ठा के साथ करते. अतीक इस स्तर तक न जा सका, यही उसकी गलती थी.
अस्सी से नब्बे का दौर अपराधियों को राजनीति में लाने का था. लगभग हर दल ने उनको जोड़ा, सहयोग लिया, और जमकर सीटें गिनी, सत्ता छानी. यह लोकतंत्र कीे चोरी थी, संविधान से अपराध था, मगर निम्न कोटि का है.
आगे राजनीति का अपराधीकरण हुआ. अपराधी मंत्री बने, प्रशासन सम्हालने लगे. यह भी गलत था, मगर यह अपराध भी मध्यम कोटि का ही था.
सबसे बड़ा अपराध है संवैधानिक तंत्र को एक विशाल निजी माफिया में बदल देना. पूरी व्यवस्था जब अपने पक्ष को फायदा देने के किए माफियाओं के तरीके अपनाने लगे, विधि व्यवस्था का सलेक्टिव इस्तेमाल करे, तो उसमें और माफिया में क्या फर्क ?
जो साथ हों, उन्हें अभय, क्षमा, पुरस्कार… और जो विरुद्ध, उनको मौत !!! यही तो माफिया डॉक्ट्रिन होती है.
माफिया डॉक्ट्रिन, मौजूदा तन्त्र की ड्रायविंग फोर्स है. गैंग बदल कर शरणागत होने वाले सुपूजित है, चैंलेंजर्स का फिजिकल और पोलिटिकल एससिनेशन हो रहा है.
इसमे हमें बुराई नहीं दिखती, बल्कि हम तो चीयरलीडर हैं. समाज आल्हादित है, इसमें हमारी खुशी है तो तय रहा कि संविधान की ताकत को तोड़ मरोड़ कर उपयोग करने वाला रहा माफिया, अब कहीं नहीं जा रहा. वो यहां है, और रहेगा.
इसलिए जब खबर सुनी कि अतीक मारा गया…तो मैंने विश्वास नहीं किया. आप भी नहीं करेंगे, जब आंखें खोलकर देखेंगे. अतीक राज कर रहा है…और वह बेताज बादशाह भी नहीं.
उसके सर पर बाकायदा ताज रखा है. वह अट्टहास कर रहा है, वह जानता है कि जनता उसकी मुरीद है इसलिए वह निश्चिंत है. आप भी रहें … क्योंकि आयेगा, तो अतीक ही.
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